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जैन दर्शन

जैन दर्शन इस संसार को किसी भगवान द्वारा बनाया हुआ स्वीकार नहीं करता है,अपितु शाश्वत मानता है.जन्म मरण आदि जो भी होता है,उसे नियंत्रित करने वाली कोई सार्वभौमिकसत्ता नहीं है..जीव जैसे कर्म करता हे,उन के परिणामस्वरुप अच्छे या बुरे फलों को भुगतने क लिए वह मनुष्य,नरक देव,एवं तिर्यंच (जानवर) योनियों में जन्म मरण करता रहता है.जीव और कर्मो का यह सम्बन्ध अनादि काल से नीर- क्षीरवत् जुड़ा हुआ है.जब जीव इन कर्मो से अपनी आत्मा को सम्पूर्ण रूप से कर्मो से मुक्त कर देता हे तो वह स्वयं भगवान बन जाता है.लेकिन इसके लिए उसे सम्यक पुरुषार्थ करना पड़ता है.यह जैन धर्म की मौलिक मान्यता है.जैन दर्शन में अहिंसा का जितना सूक्ष्म विवेचन हुआहै,उतना किसी अन्य दर्शन में नहीं हुआ है.इसका एक मुख्य कारणयह है की इसका प्ररूपण सर्वज्ञ-सर्वदर्शी (जिनके ज्ञान से संसार की कोई भी बात छुपी हुई नहीं है.,अनादि भूतकाल और अनंत भविष्य केज्ञाता-दृष्टा),वीतरागी( जिनको किसी पर भी राग -द्वेष नहीं है) प्राणी मात्र के हितेच्छुक, अनंत अनुकम्पा युक्त जिनेश्वर भगवंतों द्वारा हुआ है.जिनके बताये हुए मार्ग पर चल कर प्रत्येक आत्मा अपना कल्याण कर सकती है.अपने सुख और दुःख का कारण जीव स्वयं है ,कोई दूसरा उसे दुखी कर ही नहीं सकता.पुनर्जन्म,पूर्वजन्म ,बंध-मोक्ष आदि जिनधर्म मानता है.अहिंसा, सत्य,तप ये इस धर्म का मूल है.नवतत्त्वों को समझ कर इसका स्वरुप जाना जा सकताहै.नमस्कार सूत्र इस जैन दर्शन का सार है.यदि सच्चा सुख,सच्ची शांति चाहिए,तो जैनदर्शन के सिद्धांत ही एक मात्र सहारा है.उनपर अमल करना अत्यावश्यक है.

नरक गति वर्णन (छहढाला)

तहाँ भूमि परसत दुःख इसो,बिच्छू सहस डसैं नहि तिसो ।तहाँ राध श्रोणित वाहिनि,कृमि-कुल कलितत-देह दाहिनी॥९॥

शब्दार्थ -राध-पीप,श्रोणित-रुधिर,वाहिनी-नदियां,

भावार्थ ~यहाँ दौलत राम जी नरक गति के दुखों का वर्णन करते हुए कहते है कि उन नरको मे उत्पाद शय्या से गिरते ही जैसे ही जीव ने भूमि को स्पर्श किया वहां हजारों बिच्छुओं के डंक मारने के सामान कष्ट भोगा वहां पर पीप, गंदे खून की गन्दी नदिया बहती है जो शीतलता प्रदान करने की जगह देह को ही जलाती है !

सेमर तरु दल जुत असिपत्र,असि ज्यौं देह विदारैं तत्र ।मेरु समान लोह गलि जाय,ऐसी शील उष्णता थाय ॥१०॥

भावार्थ~नरक में सेमर वृक्ष के तलवार के सामान तीक्ष्ण कटीली पत्तों के समूह शरीर के ऊपर गिर कर उसे छिन्न भिन्न कर टुकड़े टुकड़ों में विभक्त करते है!वहां की उष्णता असहनीय है ,इतना अधिक उक्ष्ण है की मेरु पर्वत के सामान विशाल लोहे का गोले भी पिंघल जाए !

तिल तिल करै देह के खंड,असुर भिड़ावै दुष्ट प्रचंड !सिन्धु निरतैं प्यास न जाय,तो पण एक न बूंद लहाय !!११!!

शब्दार्थ-तिल तिल=छोटे छोटे,करै=करे,देह-शरीर के,खंड=टुकड़े,असुर=असुरकुमार जाति के देव,भिड़ावै=लड़ते है दुष्ट-बड़े दुष्ट होते है प्रचंड-शक्तिशाली होते है,सिन्धु=समुद्र,निरतैं=पानी से भी,प्यास न जाय=प्यास न बुझे,तो पण-फिर भी,एक न बूंद=एक बूँद भी नहीं लहाय=मिले

भावार्थ-असुरजाति के देव बहुत दुष्ट और शक्तिवान होते है,वे नारकी के शरीर के छोटे-छोटे टुकड़े करते है और पूर्वभव के बैरो का जाति स्मरण करवा कर नारकियों को आपस मे लड़वा कर आनंदित होते है!वहां प्यास इतनी लगती है कि यदि समुद्र का सारा पानी भी मिल जाए तब भी प्यास नहीं बुझती किन्तु फिर भी एक बूँद पानी प्राप्त नहीं होता है!

विशेष-भवनवासी देवों के १० भेद है उनमे पहला भेद असुरकुमार है उनमे के अनेक जातियों में से एक अम्बावरीश जाति के देव होते है,उनके पूर्वभव के संस्कार बहुत दुष्ट होते है!उद्धाहरण के लिए, किसी के आयुबंध का अपकर्ष काल आया और उस काल में किसी गरीब को वह इलाज़ आदि करवाने के लिए १००० रूपये दे देते है,तब उस काल में उसकी देवायु का बंध होगा! ऐसे जीवों के देवायु का बंध तो हो गया किन्तु उसके पूर्व भव के मार काट के संस्कार वश,नरक मे भी इसी प्रकार की मारा काटी करने मे आनंद आता है!बहुत से लोग आज कल टीवी मे बॉक्सिंग आदि के दृष्यों को देखकर आनादित होते है,उन्हें भी यदि देवायु का बंध होता है तो वे इसी प्रकार नरक मे,असुरकुमार हो सकते है!

२-दो असुरकुमार मिलकर नारकी का शरीर काट कर,उन्हें उठवाकर ज़मीन में फेंककर भी आनंदित होते है,मात्र उन्हें आपस में लड़वाकर ही आनंदित नहीं होते !

३-नारकीयों के वैक्रियिक शरीर मे सडा हुआ खून मांस,हड्डियां होती है,ऐसा किसी भी शास्त्र में नहीं लिखा है की वैक्रियिक शरीर में यह नहीं होते!इस शरीर को छोटा बड़ा किया जा सकता है!आचार्यों ने लिखा है की नारकियों को करोड़ों रोग होते है!केवल देवों के वैक्रियिक शरीर में खून मांस नहीं होता है!

४-इस प्रकार लड़वाकर असुरकुमारदेव को पाप बंधता है,और वे मरकर तिर्यंचगति मे जा सकते है!नारकी जीवों की लेश्या-अर्थात उनकी आत्मा के परिणाम-ऊपर से नीचे के नरको में परिणाम उतरोत्तर वृद्धिगत ख़राब खराब होते है!पहले नरक मे जघन्य कापोत लेश्या,दूसरे मे मध्यम कापोत लेश्या,तीसरे में उत्कृष्ट कापोत लेश्या ऊपर और नीचे जघन्य नील लेश्या,चौथे में मध्यम नील,पांचवे में ऊपर उत्कृष्ट नील और नीचे जघन्य कृष्ण,छटे में मध्यम कृष्ण और सातवें में उत्कृष्ट कृष्णलेश्या होती है! शरीर की अवगाहना भी उतरोत्तर पहले से सातवे नरक तक बढती जाती है!विक्रिया,वेदना खराब खराब होती जाती है!सातवाँ नरक भयंकरतम है! पहले नरक में भी नारकी को जघन्य दुःख,तिर्यन्चों के अधिकतम दुखों से सैकड़ों गुना अधिक है!

तीन लोक को नाज जु खाय,मिटै न भूख कणा न लहाय !ये दुःख बहु सागर लौं सहै ,करम-जोग तैं नरगति लहै !!१२!!

शब्दार्थ ~तीनलोक को नाज जु खाय=तीनो लोक का अनाज भी खा लेने पर,मिटै न भूख=भूख नहीं शांत होती,कणा न लहाय=क्योकि अनाज का एक कण भी नहीं मिलता,ये दुःख बहु=यह दुःख बहुत, सागर=सागरों,लौं=तक,सहै=सहा,करम-का जोग=कर्मों के संयोग से, तैं= यह नरगति=मनुष्यगति लहै= को प्राप्त करता

भावार्थ-तीनो लोकों मे उत्पन्न है अनाज भी खा लेने पर भी भूख नहीं समाप्त होती किन्तु एक कण भी अन्न का खाने को नहीं मिलता!इसप्रकार के सर्दी,गर्मी आदि के दुखों को जीव ने बहुत सागरों तक सहकर कर्म के योग से वहां से निकलकर,मनुष्यगति को प्राप्त किया !

विशेष-नरक में अनाज तो मिलता नहीं इसलिए नारकी वहां पर उपलब्द्ध दुर्गन्धित मिटटी को चाटते है और उसकी उल्टी करते है!वह मिटटी इतनी दुर्गन्धित होती है की यदि पहले नरक की मिट्टी का एक कण भी,यहाँ मध्य लोक आजाय,तो उससे यहाँ के कोसों दूर के जीव मर जायेंगे और सातवें नरक की आजाए तो ४ कोस तक के जीव मर जायेंगे!

तत्वार्थसूत्र के अनुसार,नारकियो की पहले नरक में उत्कृष्ट आयु १,दुसरे में ३,तीसरे में सात, चौथे में १०,पाचवे में १७,छटे में २२,और सातवे में ३३ सागर है!जघन्यायु पहले नरक में १०००० वर्ष,दुसरे की एक सागर+१समय,तीसरे की ३सागर+१ समय,चौथे की ३ सगर+१ समय,पाचवे में १०सागर+१ समय,छटे में १७ सगर+१समय और सातवे में २२सगर+१ समयहै! १सागर असंख्यात वर्षों का होता है!नरक में नारकियों दुःख बहुत है उनके वैक्रियिक शरीर में कोई सहनंन नहीं होता ,संस्थान ख़राब से खराब होता है!वहां शारीरिक दुःख भी बहुत है!नरक में भावी तीर्थंकरों के दुःख- श्रेणिक महाराज की ८४००० वर्ष की आयु नरक मे है,जब उनकी आयु के ६ माह शेष रह जायेंगे तब देव उनके चारों ऒर कोट बना देते है जिससे अन्य नारकी उन्हें किसी प्रकार का कष्ट या दुख नहीं दे पाए जिससे वे परस्पर दुखों से बच जाते है!बाकी शेष कष्ट सभी को सहने पड़ते है!असुर कुमार भी ऐसे जीवों को नहीं लड़ते होंगे क्योकि उन्हें अवधि ज्ञान से पता लग जाता होगा की ये तो भगवान् बन ने वाले है !

नरक गति के बहुत दुःख है उस गति से बचने के उपाय-१-हिंसात्मक वस्तुओं जैसे कीटनाशक दवाइयों ,चमड़े,मांस,चीनी मिल,खाद मिल,तेल मिल,ईंट के भट्टे ,खेती, रेशम के कपडे आदि के व्यापार अथवा ऐसे संस्थानों मे नौकरी नहीं करनी चाहिए!बहु आरम्भ और बहु परि -ग्रह मे नहीं लिप्त रहना चाहिए!हमें संतोषी होना चाहिए!सप्त व्यसन,मदिरा,मधु,मांस,पर स्त्री आदि के सेवन नहीं करना चाहिए

गुणस्थान

मोह (= मोहनीय):

१) दर्शन मोह = सम्यक्त्व का घात करता है।

        मिथ्यात्व प्रकृति

        सम्यक्मिथ्यात्व(मिश्र) प्रकृति

        सम्यक्त्व प्रकृति

२) चारित्र मोह = कषाय को उत्पन्न करता है।

२५ कषाय:अनन्तानुबंधी – क्रोध, मान, माया, लोभअप्रत्याख्यान – क्रोध, मान, माया, लोभप्रत्याख्यान – क्रोध, मान, माया, लोभसंज्वलन – क्रोध, मान, माया, लोभनोकषाय- हास्य रति अरति भय शोक

जुगुप्सा वेद(स्त्री, पुरूष, नपुंसक)

योग: मन, वचन, काय के निमित्त से आत्मप्रदेशों में हलन-चलन योग कहलाता है।

आत्मप्रदेश: आत्मा असंख्यात प्रदेशी है।

तारतम्य: कम-ज्यादा होना। ऊपर-नीचे होना।

Notes:

प्रथमोपशम सम्यक्त्व = जो उपशम सम्यक्दर्शन मिथ्यादृष्टि(पहला गुणस्थान) को प्राप्त हो

द्वितियोपशम सम्यक्त्व = जो उपशम सम्यक्दर्शन क्षायोपक्षमिक सम्यग्दृष्टी(४-७ गुणस्थान) को प्राप्त हो| यह श्रेणी चढ़े ही चढ़े ऐसा कोई नीयम शास्त्रो में नहीं मिलता।

जात्यन्तर: (भिन्न जाति की) सत्ता में सर्वघाती और उदय में फ़ल देशघाती।

समुद्घात = आत्मा के प्रदेशों का शरीर से बाहर निकलना।

मारणान्तिक समुद्घात = मरण से पूर्व उस आत्मा को जहां जन्म लेना होता है। आत्मप्रदेश वहां जाते हैं। उस प्रदेश को छूके, अन्तर्मुहूर्त रूकके वापस आ जाते हैं।

2nd vs 3rd Gunsthan:

तीसरे गुणस्थान में सम्यक्त्व है, मगर दूसरे गुणस्थान वाला सम्यक्त्व शून्य हो गया। तीसरे का ज्ञान मिश्र है, मगर दूसरे का ज्ञान मिथ्याज्ञान है।

इसलिये तीसरा गुणस्थान दूसरे वाले की अपेक्षा अच्छा है।

दूसरे गुणस्थान वाला नीयम से पहले गुणस्थान में जायेगा, मगर तीसरे गुणस्थान वाला हो सकता है चौथे में लौट जाये।

सम्यग्दृष्टि २५ दोषों से रहित होता है:

शंकादि आठ दोष:

        १. शंका: सर्वज्ञ के कहे हुए तत्वों में शंका करना।

        २. कांक्षा: धर्म को धारण कर उसके फ़ल में सांसारिक इच्छा करना।

        ३. विचिकित्सा: मुनियों के शरीरादि मैले देखकर घृणा करना।

        ४. मूढ़दृष्टि: सच्चे और झूठे तत्वों की पहिचान न रखना।

        ५. अनुपगूहन: अपने अवगुणों को और दूसरे के गुणों को छिपाना।

        ६. अस्थितिकरण: धर्म से ढिगते हुए जीव को पुनः दृढ़ ना करना।

        ७. अवात्सल्य: साधर्मी जनों पर गाय बछङे की प्रीति के समान प्रेम ना रखना।

        ८. अप्रभावना: जैन धर्म की शोभा में वृद्धि ना करना।

८ मद: ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धी, तप, शरीर

३ मूढ़ता: धर्म और सम्यक्त्व में दोषजनक अविवेकपन के कार्य को मूढ़ता कहते हैं।

        A) देवमूढ़ता: पीपल आदिअ की पूजा करना

        B) गुरू मूढ़ता: परिग्रह सहित साधू की पूजा करना

        C) लोक मूढ़ता: गंगा में स्नान इसलिए करना की पाप नाश हो जाय।

६ अनायतन: कुगुरू, कुदेव, कुधर्म, कुगुरू सेवक, कुदेव सेवक, कुधर्म सेवक – इनकी भक्ति, विनय तो दूर रही, इनकी प्रशंसा भी नहीं करता।

Total: 8(शंकादि दोष) + 8(मद) + 3(मूढ़ता) + 6(अनायतन) = 25 दोष

सम्यग्दर्शन के भेद:

तीन भेद:

        सात प्रकृति = ४ अनन्तानुबन्धी(क्रोध, मान, माया, लोभ), दर्शनमोह की तीन(मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व

        1. औपशमिक = सात प्रकृतियों के उपशम से होता है।

        2. क्षायिक = सात प्रकृतियों के क्षय से होता है।

        3. क्षायोपक्षमिक = ४ अनन्तानुबन्धी और मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व का उदय ना हो, और सम्यक्त्व का उदय हो। सम्यक्त्व के उदय से दोष लगेंगे।

दो भेद:

        १. व्यवहार सम्यक्त्व (= सराग सम्यक्त्व) =

                ७ तत्व, देव शास्त्र, गुरू का श्रद्धान

        २. निश्चय सम्यक्त्व (= वीतराग सम्यग्दर्शन) =

                व्यवहार सम्यक्त्व से होने वाली आत्मरूचि (आत्मा का सच्चा श्रद्धान)

अन्य दो भेद: (परमात्मप्रकाश जी २/१७ टीका)

        १. सराग सम्यक्त्व: (राग सहित सम्यक्त्व) = ४,५,६ गुणस्थान में होता है। इसके लक्षण हैं: प्रशम, संवेग, अनुकंपा, आस्तिक्य

        २. वीतराग सम्यक्त्व: (राग रहित सम्यक्त्व) = ७-१४ गुणस्थान में होता है। यह निजशुद्धात्मानुभूतिरूप वीतरागचारित्र से तन्मयी है।

४ गुणस्थान में आत्मानुभूति:

        आत्मानुभूति ज्ञान की पर्याय या चारित्र की। आत्मानुभूति ज्ञानरूप होता है ४ में (अर्थात मैं ज्ञान स्वरूप हूं)।

        अगर हम आत्मानुभूति को चारित्र की पर्याय माने, तो उसका मतलब आत्मा में रमण करना। यह ४ गुणस्थान में नहीं होती। यह तो मुनिमहाराज जी को ही वीतराग चारित्र अवस्था में हो सकती है।

सम्यक्त्व के चार गुण:

प्रशम= (शान्तिपना) रागादि कषायों का उपशम(मन्द कषाय होना) प्रशम कहलाता है।

संवेग = संसार, शरीर-भोगों से भय होना, और धर्म में रूचि संवेग है।

अनुकम्पा = प्राणिमात्र पर दया अनुकम्पा है। कभी किसी का बुरा नहीं सोचता।

आस्तिक्य= पुण्य, पाप तथा परमात्मा के प्रति विश्वास आस्तिक्य कहलाता है।

· ३२ बार भावलिंगी अवस्था प्राप्त करना ही सम्भव है।

· कुछ लोग मानते हैं कि सातवां गुणस्थान ध्यानावस्था में ही होता है, जो कि गलत है।

· किन्ही महाराज जी के दीक्षा लेने पर पहले सातवां गुणस्थान होगा, फ़िर छ्ठे और सातवें गुणस्थान में झूलना होगा।

गुरू का लक्षण:

· विषयो की आशा से रहित।

· आरम्भ से रहित।  (खेती आदि व्यापार सम्बन्धी कार्य आरम्भ कहलाते हैं।)

· परिग्रह से रहित।

· ज्ञान, ध्यान, तप मे लीन।

२८ मूलगुणो से सहित होते हैं

साधू के 28 मूलगुण: 5 महाव्रत, 5 समिति, 5 इन्द्रिय विजय, 6 आवश्यक 7 सात शेष गुण

5 महाव्रत: अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह

5 समिति:  ईर्या (गमन में सावधानी), भाषा, एषणा (भोजन शुद्धि), आदाननिक्षेप (धार्मिक उपकरण उठाने रखने में सावधानी) और प्रतिष्ठापना (मल मूत्र के त्याग में सावधानी)

5 इन्द्रिय विजय

6 आवश्यक:  सामायिक, स्तवन, वंदन, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान (त्याग) और कायोत्सर्ग (देह में ममत्व का त्याग)

7 सात शेष गुण:

        १- मुनिराज कभी स्नान नहीं करते, यदि कभी अशुचि पदार्थ का स्पर्श हो जाए तो एकांत स्थान पर निश्चल खड़े होकर कमंडल का पानी सर पर से डाल लेते हैं !

        २- भूमि पर सोना, मुनिराज पलंग या मखमली शैय्या पर नहीं सोते, ज़मीन,शिला,तख्ती इत्यादि पर एक करवट से सोते हैं !

        ३- वस्त्रों का त्याग रहता है !

        ४- केशलोंच- सिर,दाढ़ी,मूँछ के बालों को हाथ से उखाड़ते हैं !

        ५- दिन में एक बार और थोडा ही भोजन करते हैं !

        ६- दातून नहीं करते !

        ७- खड़े होकर भोजन करना !

प्रमाद के १५ भेद है! (कुशल कार्यो में अनादर प्रमाद है। संज्वलन कषाय के तीव्र उदय से होता है)

४ विकाथाओं-स्त्रीकथा,राज कथा,भोग कथा,चोर कथा

४ कषायों – ४ कषाय क्रोध मान,माया ,लोभ

५ इन्द्रियां- स्पर्शन,रसना,घ्राण,चक्षु और कर्ण

तथा ,स्नेह और निंद्रा १५ भेद प्रमाद के है!

साधू के दो भेद: द्रव्यलिंगी, भावलिंगी:

        द्रव्यलिंगी: जिन मुनियों के आन्तरिक परिणाम मुनि के अनुरूप नहीं हैं, मगर वेष ठीक है अर्थात बहिरंग में २८ मूलगुण का पूरा पालन करते हैं। गुणस्थान १-५

        भावलिंगी: जिन मुनियों के आन्तरिक परिणाम मुनि के अनुरूप हैं। अर्थात अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान का अनुदय और संज्वलन के उदय से आत्म परिणामों में विशुद्धि है।

अगर द्रव्यलिंग नहीं है तो भावलिंग तो हो ही नहीं सकता।

श्रेणी: ऊपर चढ़ने की सीढ़ी

उपशम श्रेणी: कर्मो का उपशम करते हुए आगे बढ़ते हैं। इसमें द्वितियोपशम सम्यक्त्व या क्षायिक सम्यक्त्व हो सकता है।  यहां चारित्र मोह का उपशम करते हुए चढते हैं अतः यहां औपशमिक चारित्र है। वज्रवृषभनाराच, वज्रनाराच, नाराच संहनन वाले ही यह श्रेणी चढ़ सकते हैं।

क्षपक श्रेणी: कर्मो का क्षय करते हुए आगे बढ़ते हैं। इसमें क्षायिक सम्यक्त्व ही होता है। यहां चारित्र मोह का उपशम करते हुए चढते हैं अतः यहां औपशमिक चारित्र है।  यहां चारित्र मोह का क्षय करते हुए चढते हैं। वज्रवृषभनाराच संहनन वाले ही यह श्रेणी चढ़ सकते हैं।

कारण: जिनके होने पर कार्य हो या ना हो।

करण: आत्मा के वें परिणाम जिनके होने पर गुण नियम से प्राप्त होता ही है।

क्षपक श्रेणी के ८ वें गुणस्थान के जीव की निर्जरा उपशम श्रेणी के ८ वें गुणस्थान के जीव से निर्जरा असंख्यातासंख्यात गुणी होती है।

आठवें गुणस्थान में ध्यान: कुछ ग्रन्थो में धर्मध्यान कहा है, कुछ जगह शुक्लध्यान(पृथक्त्व वितर्क) कहा गया है।

आठवें गुणस्थान के बाद ९वें में जायेंगे। नीचे उतरते हुए ७वें आते हैं।

आठवें गुणस्थान के पहले भाग में मरण नहीं होता। अगर अन्यभाग में मरण होये तो चौथे गुणस्थान में आयेंगे और देव गति में जायेंगे।

आठवें गुणस्थान में सातवें गुणस्थान से असंख्यातासंख्यात गुणी निर्जरा होती है।

सातवें गुणस्थान तक आठो कर्मो का बन्ध होता था।

आठवें गुणस्थान में सात कर्मो का बन्ध होता है (आयु नामकर्म का नहीं होता)।

गुणश्रेणी निर्जरा: ८ गुणस्थान आदि में तो उत्तरोत्तर समय में असंख्यात गुणी निर्जरा होती है।

· जो असंख्यात गुणी निर्जरा ६-७ वें गुणस्थान में होती है, उसका अर्थ है कि पंचम गुणस्थान में होने वाली उत्कृष्ट निर्जरा से असंख्यात गुणी है। मगर यहां मतलब यह नहीं है कि उत्तरोत्तर समय में असंख्यात गुणी निर्जरा होती है।

जो असंख्यात गुणी निर्जरा ५ वें गुणस्थान में होती है, उसका अर्थ है कि चौथे गुणस्थान में होने वाली उत्कृष्ट निर्जरा से असंख्यात गुणी है। मगर यहां मतलब यह नहीं है कि उत्तरोत्तर समय में असंख्यात गुणी निर्जरा होती है।

चौथे गुणस्थान में हर समय निर्जरा नहीं होती क्योंकि व्रतो का अभाव है।

१०वें गुणस्थान:

सूक्ष्म साम्पराय का अर्थ: साम्पराय = कषाय। जहां सूक्ष्म कषाय रह गयी हो वह सूक्ष्म साम्पराय। चारित्र मोहनीय के १०वें गुणस्थान में संज्वलन लोभ के अलावा अन्य कषाय या तो नष्ट हो गयी होती हैं या उपशम हो गयी होती हैं।

१०वें गुणस्थान से ऊपर ११वें गुणस्थान में जायेंगे। – उपशम श्रेणी में। (८ -> ९ -> १० -> ११ -> १०->९->८->७)

१०वें गुणस्थान से ऊपर १२वें गुणस्थान में जायेंगे। – क्षपक श्रेणी में। (८ -> ९ ->१० -> १२->१३->१४)

१०वें गुणस्थान में मरण होगा तो फ़िर देव पर्याय और चौथा गुणस्थान।

बन्ध: ६ कर्म का बन्ध (आयु और मोहनीय का बन्ध नहीं होता)

वीतरागी नहीं कह सकते क्योंकि अभी सूक्ष्म लोभ का उदय है।

११ वें गुणस्थान में:

मरण हो सकता है, फ़िर जन्म होगा चौथे गुणस्थान में।

११ वें गुणस्थान में पहुंचना जरूरी नहीं है।

२,३,४,५,११ गुणस्थान प्राप्त करना जरूरी नहीं है।

१- ७ -> (६-७) -> ८ -> ९ -> १० ->१२->१३->१४

११ वें गुणस्थान एक भव में अधिक से अधिक दो बार जा सकते हैं। पूरे संसार काल में अधिकतम चार बार।

११ वें गुणस्थान का काल निगोदिया के क्षुद्रभव का दुगणा समय होता है। (१/२४ सैकण्ड) * २ = १/१२ सैकण्ड।

११ वें गुणस्थान प्राप्त करके भी जीव अर्धपुद्गल परावर्तन(यह अनन्त काल होता है) तक संसार में भटक सकता है।

१२ वें गुणस्थान में अनन्त निगोद राशी होती है। वें मरण को प्राप्त हो जाते हैं। इसमें हिंसा का दोष नहीं लगता क्योंकि प्रमाद नहीं है। नयें जीवो का उदय नहीं होता, और बाकी अपनी आयु पूरी होने पर मरण को प्राप्त होते हैं।

इस गुणस्थान के अन्तिम समय में ऐसी विशुद्धि होती है कि तीन बचे घातिया कर्मो का नाश हो जाता है।

इनको ध्यान कौन सा है? इसमें दो प्रकार के प्रमाण हैं:

        १) धवला जी (वीरसेनाचार्य) के अनुसार पृथक्त्व वितर्क और एकत्व वितर्क दोनो शुक्लध्यान होते हैं। (११ और १२ दोनो में दोनो शुक्लध्यान होते हैं)। १३-> तीसरा शुक्लध्यान (सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाती), १४-> चौथा शुक्लध्यान

        २) ८-९-१०-११ गुणस्थान में – पृथक्त्व वितर्क , १२- एकत्व वितर्क, १३-> तीसरा शुक्लध्यान, १४-> चौथा शुक्लध्यान

अप्रतिपाती = जहां से नीचे गिरता नहीं है।

अगर पहले आयु का बन्ध कर लिया हो तो जीव क्षपक श्रेणी नहीं चढ़ सकते।

१२ गुणस्थान का समय ११वें गुणस्थान के समय से दुगणा है (१/६ सैकण्ड)

१२ गुणस्थान को छद्मस्त वीतराग कहा जाता है।

१३ गुणस्थान:

एक ही कर्म का अस्रव होता है, उसी का बन्ध (१ समय का) होता है: साता वेदनीय

चार घातिया नाश होने से ये जीवन मुक्त या भाव मोक्ष को प्राप्त कहें जाते हैं।

परमौदारिक शरीर: निगोदी जीव इनके शरीर में नहीं है। शरीर की परछाई पङती नहीं है।

नौ प्रकार के:

        1) सामान्य केवली (बाहुबली, रामचन्द्र): इनके गणधर नहीं होता। देशभाषा में उपदेश। गन्धकुटी होती है।

        २) अन्तकृत केवली: जिनके ऊपर उपसर्ग हुआ, शरीर नष्ट हुआ और केवल ज्ञान हो गया और मोक्ष हो गया।

        3) उपसर्ग केवली: जिनके ऊपर उपसर्ग हुआ, शरीर नष्ट नहीं हुआ और केवल ज्ञान हो गया। जैसे कुलभूषण, देशभूषण महाराज

        4) मूक केवली: जिनकी दिव्यध्वनि नहीं खिरती। गन्धकुटी नहीं होती है।

        5) २ कल्याणक वाले केवली

        6) ३ कल्याणक वाले केवली

        7) ५ कल्याणक वाले केवली

        8) समुद्घात केवली: जो केवली समुद्घात कर बचे हुए कर्मो की स्थिति अन्तर्मुहूर्त करते हैं।

        9) अयोग केवली

केवली का इच्छा न होते हुए भी आहार और उपदेश होता है। ये सब कर्म के उदय के कारण।

समवशरण में लोगो को नीन्द नहीं आती, चाहें वो लोग कितने भी दिन समवशरण में रहें।

१४ गुणस्थान:

शरीर रहता है। योग(आत्म प्रदेशो का स्पन्दन) समाप्त। ५ लघु अक्षर का समय। मन, वचन, काय क्रिया समाप्त। नयी वर्गणाओं का ग्रहण नहीं। चौथा शुक्लध्यान (विकृतक्रिया निर्वृत्ति)।

८५ प्रकृतियां का नाश अन्तिम २ समय में करते हैं।

अन्तिम से पहले समय में ७२ प्रकृतियां, और अन्तिम समय में १३ प्रकृतियों का नाश करते हैं।

संसारी होते हुए भी संसारी नहीं हैं। असंसारी कहें जाते हैं। मुक्त नहीं कहे जाते।

सिद्ध अवस्था:

अवगाहना: ३.५ हाथ – ५२५ धनुष कुछ कम

        ३.५ हाथ से कम आकार वालो को मोक्ष नहीं होता।

        ३.५ हाथ से ७ हाथ तक के मुनि महाराज खङगासन में ही मोक्ष पधारेंगे।

सिद्धालय: ४५ लाख योजन गोल

मिथ्यात्व के बचने के

मिथ्यात्व से बचने के उपाय-

१-मिथ्यादृष्टि जीव सभी देव,शास्त्र,और गुरुओं को सामान मानता हुआ उनकी विनय, पूजा,वंदना आदि करता है किन्तु जिसने सच्चे देव,शास्त्र,गुरु का स्वरुप आगमानुसार जान लिया है,उसने भगवान् का स्वरुप जान लिया है जो कि-

१-वीतरागी-राग-द्वेष,कामादि से रहित हो,

२-सर्वज्ञ-संसार के समस्त पदार्थों को उनकी,त्रि-कालीन समस्त पर्यायों सहित जान लिया हो,३-हितोपदेशी-जिन्होंने संसार के समस्त जीवों के हित,कल्याण के लिए मोक्षमार्ग का निष्पृह हो,उपदेश दिया हो,सच्चे भगवान् है!

विचारने से निष्कर्ष निकलता है,कि यह गुण अन्य मतियो के देवों/भगवान पर घटित नहीं हो पायेगे क्योकि सर्वप्रथम वे राग-द्वेष-कामादि से रहित नहीं है,सर्वज्ञ नहीं है,तथा उन्होंने जीवों को मोक्षमार्ग का उपदेश भी नहीं दिया है क्योकि उन्हें स्वयं मोक्ष प्राप्त नहीं हुआ,वे उपदेश कैसे देते? 

अत: जिसने सच्चे देव,शास्त्र,गुरु का स्वरुप जान कर श्रद्धान कर ह्रदय में बैठा लिया है, वह अन्य देव,शास्त्र,गुरु की पूजा,वंदना करेगा ही नहीं! यदि करेगा तो इसका मतलब है कि उसे सच्चे देव,शास्त्र,गुरु पर श्रद्धान नहीं है!

अत: मिथ्यात्व से छुटने के लिए नियम ले कि-

१-मै अपने दिगम्बर जैन धर्म के सच्चे देव,शास्त्र,गुरु के अतिरिक्त अन्य किसी देवी-देवता की पूजा नही करूंगा। 

२-मिथ्यात्व से बचने के लिए;मालिक,व्यापारियो,जिस मे कोई संसारिक लाभ जुड़ा हो,के साथ भी, उनके मंदिर मे जाकर पूजा,विनय आदि नही करूंगा। हमारे इस प्रकार के व्यव-हार से किसी को बुरा नही लगेगा जब उन्हे पता लगेगा कि यह पक्का जैनी,अपने धर्म मे निष्ठावान है।

सामंतभद्र आचार्य ने कहा है कि किसी भय,आशा,स्नेह अथवा लोभ से सम्यग्दृष्टि,अन्य देवी-देवताओं की विनय,प्रणाम नहीं करता किन्तु अविनय भी नहीं करता! जैसे अन्यमति-यों के मंदिर में जाएगा तो उनके नियमानुसार टोपी आदि पहनेगा लेकिन नमोस्तु,वंदना, चढ़ावा आदि नहीं करेगा क्योकि वह अपने श्रद्धांन में दृढ है !

३- अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए अन्य मतियों के मंदिरों में जाकर पूजन आदि नहीं करना चाहिए,यह मिथ्यात्व है और मनो कामनाओं की पूर्ती,शुभ कर्मों के उदय के बिना हो ही नहीं सकती! जैन कर्मसिद्धांत के अनुसार अपने देव पूजन कर अपने पापरूप कर्मों का पुन्यरूप परिणमन कराने का प्रयास कर ही मनोकामनाओं की पूर्ती हो सकती है!

४-अपने मंदिरों में मनोकामनाओं की पूर्ती के लिए; पूजा,पाठ,अनुष्ठान करवाना भी अनुचित है क्योकि सांसारिक विषयभोग आत्मा के लिए कल्याणकारी नही है।भगवान का पूजा,विधानादि सांसारिक विषय भोगो की पूर्ति के लिए नही किया जाता है।यदि हम भोगो को ईष्ट/उपादेय ओर आत्मकल्याण को अनिष्ट/हेय मानते है,तो मिथ्यादृष्टि है।प्रभु-भजन करने से स्वयं पापों का नाश,सांसारिक सुखो की परंपरा से,मोक्ष सुख की प्राप्ति होती है।पूजा-प करने से हमारे अशुभकर्म,शुभकर्म मे परिणमन करते है, अशुभ कर्म की फलदेने की शक्ति कम होती है,पुण्यकर्मो का बंध होता है,जिससे सांसारिक सुख स्वयं ही मिलते है,ये खेती मे भूसे के समान है न कि गेहु।पूजा आत्मकल्याण-मुक्ति के लिए करते है न कि सांसारिक सुखो की प्राप्ति के लिए,सांसारिक सुखों की वाँछा से पूजादि करने से मिथ्यादृष्टि हो जाते है!

५- जब अन्य मतियों के देवी-देवताओं द्वारा चमत्कार स्पष्ट रूप से दिखते हो,तब अपने मतियों को,उनके पास जाने से कैसे रोका जा सकता है ?

भगवान् सिद्धालय में विराजमान है,उन्हें हम से कुछ लेना देना है ही नहीं,वे चमत्कार नहीं दिखाते!भगवान् महावीर /पार्श्वनाथ कोई भी हमारे संकट दूर नहीं करेंगे! हमारे द्वारा इनके गुणों की,अराधना करने से पुन्य प्राप्ति होगी जिससे स्वयं ही कष्ट दूर होंगे! हम पूजा इनकी वीतरागता,सर्वज्ञता, हितोपदेशिता गुणों के लिए करते है,उन की प्रेरणा से उनके गुण को अपने में उत्पन्न करने के लिए पूजा करते है! यदि किसी मंदिर के पञ्च-कल्याणक के बाद कोई चमत्कार दिखता है तो; चमत्कार,भगवान् नहीं करते बल्कि उस मंदिर से संबधित कोई व्यंतरदेव चमत्कार दिखाते है!

अन्य मतियों के देवी-देवता हमारे से उच्च है ही, फिर उन्हे नमस्कार करने में क्या हर्ज़ है?अन्य मतियों के देवी-देवता ही नही,अपने जैन शासन के भी देव हम से बड़े/उच्च नहीं है!शास्त्रों के अनुसार यमपाल चंडाल ने एक नियम लिया था,’चतुर्दशी को वह जीवों को नहीं मरेगा,सूली नहीं दूंगा”,जिस कारण से राजा ने उसे नदी में फिकवा दिया!देवो ने उस यम पाल चांडाल की आकर पूजा करी!अत: इस अपेक्षा से मनुष्य सबसे बड़ा है! मुनि महाराज, देवो के हाथ से आहार ग्रहण नहीं कर सकते क्योकि उनकी अपनी अन्य विक्रियाये अन्य देवियों के साथ रमणमें लगी हुई है जिससे उनके परिणाम सही नहीं है! वो कही भी खड़े हो, उनकी पवित्रता नहीं होती! यहाँ उनका वैक्रियिक शरीर आया है,उनका मूल शरीर तो स्वर्ग में भोगो में लगा है!अत: जिनके भाव ही अच्छे नही है वो हम मनुष्य से अच्छे कैसे हो सकते है।किसी भी शास्त्र मे देवो की पूजा करने का विधान नही है। अतः अन्य देवी-देवता- ओ की भी पूजा नही करनी चाहिए।श्रद्धान ऐसा बनाये कि केवल वीतरागी, सर्वज्ञ, हितोप- देशी देव ही पूज्य हैं।

जैनो के नवदेवता पांच परमेष्ठी,जिन मंदिर,जिन बिंब,जिनवाणी और जिनधर्म है।इनके अतिरिक्त किसी की पूजा करनी ही नही है। 

एक सेठ-सेठानी के संतान नहीं होती थी!सेठानी की अनुमति से सेठ जी ने संतान की इच्छा पूर्ती के लिए दूसरा विवाह कर लिया,बच्चे भी हो गए! दूसरी पत्नी की माँ के पूछने पर उसने कहा की सेठ जी पहली पत्नी को अधिक चाहते है,जिससे माँ दुखी हुई,उसने सोचा की पहली पत्नी मर जाए तब उसकी बेटी को सुख मिलेगा! एक दिन माँ ने साधू को भिक्षा दी,उस साधू ने पूछा तुम्हारे चेहरा उदासीन क्यों है?उन्होंने कारण बताया! साधू ने कापाड़ी विद्या सिद्ध करी, और उसके पूछने पर माँ ने कहा सेठ जी की पहली पत्नी का सर काट कर लाओ!वो कापडीविद्या गयी,सेठानी के सर के चारों ऒर चक्कर काटती रही!किन्तु सेठानी सामयिकी कर रही थी वह उसका बाल बांका नहीं कर सकी,वह लौट आयी! देखिये देव,सेठानी का कुछ नहीं बिगाड़ सकी!१५ दिन बाद कापडीविद्या पुन:गयी,सेठानी पूजा कर रही थी,उस विद्या को क्रोध आया और वह दूसरी पत्नी का सर काट कर ले आयी और माँ को सुपर्द कर दिया! अब माँ बहुत विलाप करने लगी! वास्तव में सेठानी पुण्यात्मा थी उसका कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता!

अगर हमारे घर में देवी-देवता की पूजा होती है ,उसे बंद करने से हमें भय लगता है,तो मात्र इच्छा शक्ति की कमी है और कुछ नहीं!

परम्परा से चली आ रही देवी देवताओं की पूजा बंद करनी है तो उनका अनादर मत करे, उन्हें विनय पूर्वक ले जाकर किसी निकट की नदी में यह कहते हुए कि “मुझे अभी तक श्रद्धा थी किन्तु अब नहीं है,अब मुझे सच्चे देव मे श्रद्धा हो गई है मै उनकी ही अराधना करूंगा।इसलिए विसर्जित कर रहा हूँ,विसर्जित कर दे। 

कुछ परिवार मे जैन मत के साथ-साथ अन्य मतो की भी अराधना होती है ऐसी परिस्थि–तियो मे क्या करा जायसर्वश्रेष्ट है कि सभी परिवार वाले सच्चेधर्म का पालन करने लगे। यदि यह संभव नही हो तब स्वयं गल्त मार्ग का अनुसारण नही करे! बाकियो को उनकी इच्छानुसार चलने दे।जैन धर्म के अनुसार प्रत्येक जीव अपने कर्मानुसार फल भोगता है जो हम करेगे वह हम भोगेगे और दूसरे अपने। बच्चे विवाह बंधन से पूर्व स्पष्ट बता दे कि हम जैन, देव-शास्त्र-गुरू के अतिरिक्त अन्य किसी देवी देवता की पूजा नही करेगे।यदि दोनो पक्षो को स्वीकार्य हो तो ही पाणिग्रहण करे अन्यथा नही।अन्य मतियो के देवी-देवताओ की पूजा कर अपने असंख्यात भवो को क्यो नष्ट करे।

अनेको जैन मंदिरो मे अन्य मतियो की प्रतिमाये भी है ऐसी परिस्थितियो मे क्या हमे उनकी पूजा,वंदना करनी चाहिए?

हम पूजा,वंदना,आरती जैन शासन के नवदेवता के अतिरिक्त किसी की नही करेगे।अन्य देवी-देवता को वेदी मे नही रखे।यदि पहले से रखे हो तो वहा से हटाकर किसी अन्य स्थान पर विराजमान कर दे।

अपने मंदिरो मे रखी अन्य देवी-देवताओ की विदुर रूप मूर्ति को भी नही देखना है।अन्य देवी-देवता को मात्र जयजिनेन्द्र सधर्मी होने के कारण कर सकते है।आरती,पूजा, अभिषेक,अर्घ आदि कुछ नही चढ़ाना चाहिए।

अन्य देवी देवताओं को लोग ३ कारणो से पूजते है।

१- इनकी पूजा करने से मोक्ष मिल जायेगा। समाधान-जिन्हे मोक्ष नही मिला वे दूसरो को कैसे मोक्ष दिलवा सकते है?

२-कुछ लोग संसारिक सुखो की वांछा से पूजते है। समाधान -सुख पुन्य कर्मो के उदय के बिना नही मिल सकता।

३-कुछ लोग परलोक मे सुखो की वांछा से पूजते है। समाधान-मिथ्यात्व मे लगे रहने से परलोक मे सुख कैसे मिलेगा? इसलिए अन्य मति के देवी-देवताओ को पूजना हितकारी नही है।

व्यापारी अपनी दुकान खोलते समय सीढ़ीयो को नमस्कार करते है, अथवा तिजोरी पूजते है या अगरबत्ती जलाते,बांट-तराजू की वंदना करते है क्या से उचित है?

ये सभी पुद्गल ही है इनकी अर्चना करना कैसे ठीक हो सकती है?यह मिथ्यात्वहै ,सात तत्वो का श्रद्धान भी नही है। देहली सिर पर,मंदिर की लगानी है क्योकि वह चैतयालय भी देवता है।जैन मत के अनुसरणीय देवी देवता को पूजने में आपत्ति –शास्त्रों में आचार्यो ने जैन मत के माननीय देवी देवता; भवन्त्रिक,भवनवासी,व्यंतर,जन्म से मिथ्यादृष्टि कुदेव,राग-द्वेष में लिप्त बताया है! इसलिए नहीं पूजते! यदि देवों में पूजना है तो एक भवतारी लौकान्तिकदेव, सर्वार्थसिद्धि के देव,सौधार्मेंद्र आदि देवों को पूजना चाहिए,जिन्होंने अगले भव में नियम से मोक्ष जाना है!हमें वीतरागी,हितोपदेशी और सर्वज्ञ देव की ही पूजा करनी है!

जैन शास्त्रों में नवरात्रि पर्व का वर्णन नहीं मिलता, नीतिसंगत नहीं है, इसलिए इन्हें मनाना नहीं चाहिए! इन्हें मनाकर हम,इन्हें जैन धर्म में क्यों प्रविष्ट करा रहे है? इनके अनुष्ठानों को नहीं मनाना चाहिए! जो आचार्य/मुनि नवरात्रों या अन्य पर्वों में बढ़ चढ़ कर भाग ले रहे है, उनके देखने की चीज़ है,किन्तु आगम सम्मत नहीं है अत: हमें इनसे दूर रहना चाहिए!जैनियों के पर्व;दसलक्षण धर्म, अष्टाह्निका(प्रत्येक वर्ष में ३ बार),अष्टमी,चतुर्दशी,(प्रत्येक माह में दो बार) है! इन पर्वों को धूमधाम से मनाना चाहिए! इसके अतिरिक्त तीर्थंकरों के कल्याणक,दीपावली,रक्षाबंधन, शासन जयंती,अक्षयत्रित्या आदि तत्कालिक पर्व है उन्हें मनाना चाहिए!

भक्तामर स्तोत्र की रचना

भक्तामर स्तोत्र की रचना कब हुई, कैसे हुई और क्यों हुई, कैसे पढ़े, कब पढ़े और किस तरह पढ़े, आदि सब जाने |

भक्तामर स्तोत्र कीे रचना श्री मानतुंग आचार्य जी ने की थी, इस स्तोत्र का दूसरा नाम आदिनाथ स्रोत्र भी है, यह संस्कृत में लिखा गया है, प्रथम अक्षर भक्तामर होने के कारण ही इस स्तोत्र का नाम भक्तामर स्तोत्र पड गया, ये वसंत-तिलका छंद में लिखा गया है।भक्तामर स्तोत्र में 48 श्लोक है , हर श्लोक में मंत्र शक्ति निहित है, इसके 48 के 48 श्लोको में “म“ “न“ “त“ “र“ यह चार अक्षर पाए जाते है!

वैसे तो जो इस स्तोत्र के बारे में सामान्य ये है की आचार्य श्री मानतुंग जी को जब राजा हर्षवर्धन ने जेल में बंद करवा दिया था तब उन्होंने भक्तामर स्तोत्र की रचना की तथा 48 श्लोको पर 48 ताले टूट गए! अब आते है इसके बारे में दुसरे तथा ज्यादा रोचक तथा पर,जिसके अनुसार आचार्य श्री मानतुंग जी ने जेल में रहकर में ताले तोड़ने के लिए नहीं अपितु सामान्य स्तुति की है भगवन आदिनाथ की तथा अभी 10 प्रसिद्ध विद्वानों ने ये सिद्ध भी किया प्रमाण देकर की आचार्य श्री जी राजा हर्षवर्धन के काल ११वी शताब्दी में न होकर वरन 7वी शताब्दी में राजा भोज के काल में हुए है तो इस तथा अनुसार तो आचार्य श्री 400 वर्ष पूर्व होचुके है राजा हर्षवर्धन के समय से !

भक्तामर स्तोत्र का अब तक लगभग 130 बार अनुवाद हो चुका है बड़े बड़े धार्मिक गुरु चाहे वो हिन्दू धर्मं के हो वो भी भक्तामर स्तोत्र की शक्ति को मानते है तथा मानते है भक्तामर स्तोत्र जैसे कोई स्तोत्र नहीं है!, अपने आप में बहुत शक्तिशाली होने के कारण यह स्तोत्र बहुत ज्यादा प्रसिद्ध हुआ! यह स्तोत्र संसार का इकलोता स्तोत्र है जिसका इतनी बार अनुवाद हुआ जो की इस स्तोत्र को प्रसिद्ध होने को दर्शाता है !

भक्तामर स्तोत्र के पढने का कोई एक निश्चित नियम नहीं है, भक्तामर को किसी भी समय प्रातः, दोपहर, सायंकाल या रात में कभी भी पढ़ा जा सकता है, कोई समय सीमा निश्चित नहीं है, क्योकि ये सिर्फ भक्ति प्रधान स्तोत्र है जिसमे भगवन की स्तुति है, धुन तथा समय का प्रभाव अलग अलग होता है!

भक्तामर स्तोत्र का प्रसिद्ध तथा सर्वसिद्धिदायक महामंत्र – — ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं अर्हं श्री वृषभनाथतीर्थंकराय् नमः

48 काव्यों के 48 विशेष् मन्त्र भी हैं!!

48 काव्यो की महत्ता:-1सर्वविघ्न विनाशक काव्य2सर्व विघ्न विनाशक काव्य3सर्व सिध्दि दायक काव्य4जल जंतु भय मोचक काव्य5नेत्र रोग समहारक काव्य6सरस्वती विद्या प्रसारक काव्य7 सर्व संकट निवारक काव्य8 सर्वारिष्ट योग निवारक काव्य9भय पाप नाशक काव्य10कुकर विष निवारक काव्य11 वांछा पूरक काव्य12 वांछित रूप प्रदायक काव्य13लक्ष्मी सुख दायक काव्य14आधी व्याधि नाशक काव्य15 राज वैभव प्रदायक काव्य16 सर्व विजय दायक काव्य17सर्व रोग निरोघक काव्य18शत्रु सैन्य स्तम्भक काव्य19पर विद्या छेदक काव्य20संतान सम्पति सौभाग्य प्रदायक काव्य21सर्व सॉख्य सौभाग्य साधक काव्य22भुत पिशाच बाधा निरोधक काव्य23 प्रेत बाधा निवारक काव्य24शिरो रोग नाशक काव्य25दृष्टि दोष निरोधक काव्य26पर्सव पीड़ा विनाशक काव्य27शत्रु उन्मूलक काव्य28अशोक वृक्ष प्रतिहार्य काव्य29सिंहासन प्रतिहार्य काव्य30 चामर प्रतिहार्य काव्य31छत्र प्रतिहार्य काव्य32 देव दुंदुभी प्रतिहार्य काव्य33पुष्प वृष्टि प्रतिहार्य काव्य34भामंडल प्रतिहार्य काव्य35 दिव्य धवनि प्रतिहार्य काव्य36लक्ष्मी प्रदायक काव्य37 दुष्टता प्रतिरोधक काव्य38 वैभव वर्धक काव्य39सिंह शक्ति संहारक काव्य40सर्वाग्नि शामक काव्य41भुजंग भय भंजक काव्य42यूद्ध भय विनाशक काव्य43 सर्व शांति दायक काव्य44सर्वापधि विनाशक काव्य45जलोद्रादि रोग विनाशक काव्य46बंधन विमोच काव्य47अश्त्र शस्त्र निरोधक काव्य48मोक्ष लक्ष्मी दायक काव्य.

भक्तामर स्तोत्र (हिन्दी)

भक्तामर स्तोत्र (हिन्दी)

भक्त अमर नत मुकुट सु-मणियों, की सु-प्रभा का जो भासक।पाप रूप अति सघन तिमिर का, ज्ञान-दिवाकर-सा नाशक॥भव-जल पतित जनों को जिसने, दिया आदि में अवलंबन।उनके चरण-कमल को करते, सम्यक बारम्बार नमन ॥१॥सकल वाङ्मय तत्वबोध से, उद्भव पटुतर धी-धारी।उसी इंद्र की स्तुति से है, वंदित जग-जन मन-हारी॥अति आश्चर्य की स्तुति करता, उसी प्रथम जिनस्वामी की।जगनामी सुखधामी तद्भव, शिवगामी अभिरामी की ॥२॥स्तुति को तैयार हुआ हूँ, मैं निर्बुद्धि छोड़ि के लाज।विज्ञजनों से अर्चित है प्रभु! मंदबुद्धि की रखना लाज॥जल में पड़े चंद्र मंडल को, बालक बिना कौन मतिमान।सहसा उसे पकड़ने वाली, प्रबलेच्छा करता गतिमान ॥३॥हे जिन! चंद्रकांत से बढ़कर, तव गुण विपुल अमल अति श्वेत।कह न सके नर हे गुण के सागर! सुरगुरु के सम बुद्धि समेत॥मक्र, नक्र चक्रादि जंतु युत, प्रलय पवन से बढ़ा अपार।कौन भुजाओं से समुद्र के, हो सकता है परले पार ॥४॥वह मैं हूँ कुछ शक्ति न रखकर, भक्ति प्रेरणा से लाचार।करता हूँ स्तुति प्रभु तेरी, जिसे न पौर्वापर्य विचार॥निज शिशु की रक्षार्थ आत्मबल बिना विचारे क्या न मृगी?जाती है मृगपति के आगे, प्रेम-रंग में हुई रंगी ॥५॥अल्पश्रुत हूँ श्रृतवानों से, हास्य कराने का ही धाम।करती है वाचाल मुझे प्रभु, भक्ति आपकी आठों याम॥करती मधुर गान पिक मधु में, जग जन मन हर अति अभिराम।उसमें हेतु सरस फल फूलों के, युत हरे-भरे तरु-आम ॥६॥जिनवर की स्तुति करने से, चिर संचित भविजनो के पाप।पलभर में भग जाते निश्चित, इधर-उधर अपने ही आप॥सकल लोक में व्याप्त रात्रि का, भ्रमर सरीखा काला ध्वान्त।प्रातः रवि की उग्र-किरण लख, हो जाता क्षण में प्राणांत ॥७॥मैं मति-हीन-दीन प्रभु तेरी, शुरू करूँ स्तुति अघ-हान।प्रभु-प्रभाव ही चित्त हरेगा, संतों का निश्चय से मान॥जैसे कमल-पत्र पर जल कण, मोती कैसे आभावान।दिखते हैं फिर छिपते हैं, असली मोती में हैं भगवान ॥८॥दूर रहे स्रोत आपका, जो कि सर्वथा है निर्दोष।पुण्य कथा ही किंतु आपकी, हर लेती है कल्मष-कोष॥प्रभा प्रफुल्लित करती रहती, सर के कमलों को भरपूर।फेंका करता सूर्य किरण को, आप रहा करता है दूर ॥९॥त्रिभुवन तिंलक जगपति हे प्रभु ! सद्गुरुओं के हें गुरवर्य्य ।सद्भक्तों को निजसम करते, इसमें नहीं अधिक आश्चर्य ॥स्वाश्रित जन को निजसम करते, धनी लोग धन करनी से ।नहीं करें तो उन्हें लाभ क्या? उन धनिकों की करनी से ॥१०॥हे अमिनेष विलोकनीय प्रभु, तुम्हें देखकर परम पवित्र।तौषित होते कभी नहीं हैं, नयन मानवों के अन्यत्र॥चंद्र-किरण सम उज्ज्वल निर्मल, क्षीरोदधि का कर जलपान।कालोदधि का खारा पानी, पीना चाहे कौन पुमान ॥११॥जिन जितने जैसे अणुओं से, निर्मापित प्रभु तेरी देह।थे उतने वैसे अणु जग में, शांत-रागमय निःसंदेह॥हे त्रिभुवन के शिरोभाग के, अद्वितीय आभूषण रूप।इसीलिए तो आप सरीखा, नहीं दूसरों का है रूप ॥१२॥कहाँ आपका मुख अतिसुंदर, सुर-नर उरग नेत्र-हारी।जिसने जीत लिए सब-जग के, जितने थे उपमाधारी॥कहाँ कलंकी बंक चंद्रमा, रंक समान कीट-सा दीन।जो पलाशसा फीका पड़ता, दिन में हो करके छवि-छीन ॥१३॥तब गुण पूर्ण-शशांक का कांतिमय, कला-कलापों से बढ़ के।तीन लोक में व्याप रहे हैं जो कि स्वच्छता में चढ़ के॥विचरें चाहें जहाँ कि जिनको, जगन्नाथ का एकाधार।कौन माई का जाया रखता, उन्हें रोकने का अधिकार ॥१४॥मद की छकी अमर ललनाएँ, प्रभु के मन में तनिक विकार।कर न सकीं आश्चर्य कौनसा, रह जाती है मन को मार॥गिरि गिर जाते प्रलय पवन से तो फिर क्या वह मेरु शिखर।हिल सकता है रंचमात्र भी, पाकर झंझावत प्रखर ॥१५॥धूप न बत्ती तैल बिना ही, प्रकट दिखाते तीनों लोक।गिरि के शिखर उड़ाने वाली, बुझा न सकती मारुत झोक॥तिस पर सदा प्रकाशित रहते, गिनते नहीं कभी दिन-रात।ऐसे अनुपम आप दीप हैं, स्वपर-प्रकाशक जग-विख्यात ॥१६॥अस्त न होता कभी न जिसको, ग्रस पाता है राहु प्रबल।एक साथ बतलाने वाला, तीन लोक का ज्ञान विमल॥रुकता कभी न प्रभाव जिसका, बादल की आ करके ओट।ऐसी गौरव-गरिमा वाले, आप अपूर्व दिवाकर कोट ॥१७॥मोह महातम दलने वाला, सदा उदित रहने वाला।राहु न बादल से दबता, पर सदा स्वच्छ रहने वाला॥विश्व-प्रकाशक मुखसरोज तव, अधिक कांतिमय शांतिस्वरूप।है अपूर्व जग का शशिमंडल, जगत शिरोमणि शिव का भूप ॥१८॥नाथ आपका मुख जब करता, अंधकार का सत्यानाश।तब दिन में रवि और रात्रि में, चंद्र बिंब का विफल प्रयास॥धान्य-खेत जब धरती तल के, पके हुए हों अति अभिराम।शोर मचाते जल को लादे, हुए घनों से तब क्या काम? ॥१९॥जैसा शोभित होता प्रभु का, स्वपर-प्रकाशक उत्तम ज्ञान।हरिहरादि देवों में वैसा, कभी नहीं हो सकता भान॥अति ज्योतिर्मय महारतन का, जो महत्व देखा जाता।क्या वह किरणाकुलित काँच में, अरे कभी लेखा जाता? ॥२०॥हरिहरादि देवों का ही मैं, मानूँ उत्तम अवलोकन।क्योंकि उन्हें देखने भर से, तुझसे तोषित होता मन॥है परंतु क्या तुम्हें देखने से, हे स्वामिन मुझको लाभ।जन्म-जन्म में भी न लुभा पाते, कोई यह मम अमिताभ ॥२१॥सौ-सौ नारी सौ-सौ सुत को, जनती रहतीं सौ-सौ ठौर।तुमसे सुत को जनने वाली, जननी महती क्या है और?॥तारागण को सर्व दिशाएँ, धरें नहीं कोई खाली।पूर्व दिशा ही पूर्ण प्रतापी, दिनपति को जनने वाली ॥२२॥तुम को परम पुरुष मुनि मानें, विमल वर्ण रवि तमहारी।तुम्हें प्राप्त कर मृत्युंजय के, बन जाते जन अधिकारी॥तुम्हें छोड़कर अन्य न कोई, शिवपुर पथ बतलाता है।किंतु विपर्यय मार्ग बताकर, भव-भव में भटकाता है ॥२३॥तुम्हे�