Tukaram Gatha Sar Narayan Prasad Jain - archive.org
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(क. ०५८ © 521८८
6:96. (८5. ॐ
तताराज गया याख
महाराषट क महान सत क चन हए अभगो का
हिनदी रपानतर
®
सगरहकरता-अनवादक
नारायणपरसाद जन
समपादक
शरीपाद जोशी
. १६७८
4 ससता यहितय मणडल परकाशत
परकाशक यशपाल जन
मतरी, ससता साहितय मडल | नई दिलली ¢
9 7
दसरी बार : १९७०८
मलय : :2. 50
मदरक: सवतवा पच कड क०, दिलती-६
` ८विवक ओर साधना" क समथ रखक
परमपजय शरी कदारनाथजी
को
सविनय
, -- नारायणपरसाद
पकाशकीय
सतो की वाणी परतयक वयकति क लिए बडी उपयोगी होती
ह । दनिया क मायाजाल म जब आदमी अशात होकर भटकता
ह तो सतो क जीवन-चरित ओर उनक वचन उस सही रासत
क दरदान करात ह। हम हष ह कि सतो की पावन वाणी को
पाठको क किए सरभ करान म "मणडल" अपना यतकिचित योग
दता रहा ह । सत-वाणी, बदध-वाणी, महावीर-वाणी, सत- `
सधा-सार आदि इसी दिशा क परकारन ह । इसी शखला म
अव महाराषट क महान सत तकाराम क चन हए विचार-रतनो `
की यह मणिका पाठको क हाथो म पहच रही ह । पाठको को
सविघा क लिए पसतक की सामगरी को विभिनन वरगो म विभाजित
कर दिया गया ह ।
` हम चाहत थ कि तकाराम क म अभग भी अनवाद क साथ म दत; ठककिन उसस पसतक का आकार बहत बढ जाता ओर मलय की दषटि स पसतक सामानय सथिति क पाठको क किए दलभ हो जाती । आकार कम करन की विवडता क कारण न कवर मल अगो को ही छोडा गया ह, अपित कटी कही अमगो क अश-मातर ही दिय गए ह ।
हम विशवास ह कि पाठक इस पसतक क वचनो का पठन-
पाठन ही नही, मनन-चिनतन भी करग ओर अपन दनिकः सवाधयाय म इस पसतक का उपयोग करग ।
--मतरो
रव
दो शबद सत तकाराम उन महातमाओ म स थ, जो मल-मटको को रासता ,
दिखान क किए पदा होतह । उनकी सरल-सहानौ दिवय वाणी हर मराठ को जवान पर ह । दव-पजा या तीरथयातरा क अवसर पर किसी भी अनय सत क नाम का एसा यशगान नही होता, जसा तकाराम क नाम.का ।
समपतति को वह आघयातमिक माग की बाधा ओौर आदमी को आदमी स अलग करनवाली बाड समञञत थ । आतमानभति क बाद उनहोन
„पहला काम यह किया कि अपन कटमब क अपन हिसस- की समपतति क सार अधिकार-पतरो को नदी म बहा दिया । उसक बाद यदयपि वह जीवि- ` कोपाजन करत रह, तथापि उनहोन अपन को पणतया भगवद -कषा पर छोड दिया ।
शिवाजी की भट की ह ई घन-समपतति को उनहोन टकरा दिया । वह जो उपदश दत थ उसीक अनसार आचरण भी करत थ । यह कहना जयादा सही. होगा कि उनक काय हौ उपदश का काम करत थ। व मद-माव कौ न
^ माननवा, सब जीवो को समान समञलनवाल ओर आतम-परम को विदव भरम म मिला दनवाठ अदवत की परति-मतति थ । उनक गीत उनक परशानत जीवन क अनरप थ । मराठो न राजनतिक अनशासन शिवाजी स सीखा तो आवयातमिक अनशासन तकाराम स । वह जन-साधारण म स एक थ ओर सव-साधारण की ही भाषा म बोलत थ ।
` उनक सचच जीवन की कषाकी उनक अभगो म मिलती ह । भगवत- सफति-यकत अवसथा म चार करोड अभग उनक मह स निकल, जिनम स सिफ साढ चार हजार मिरत ह । व कहत ह, “मक सवपन म सदगर न उपदश दकर कता किया । उसक वाद तरनत ही कविता की सफति हो आरई ।“ उनक अभग वद-मतरो क समान ह । महाराषट म व . अधयातम-मदिर क कलश". मान जात ह ।
नारायणपरसाद जन
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विषय-सची
आतम-परिचय
. नाम-महिमा
„ भकत ओर सजजन
भगवान गौर उसकी भकति
, भजन ओर कीततन
. सगण-निरगण-विचार उपदश `
, अजञानी जीव ओर दजन . भगवान स पराथना , विचार-मौकतिक
२८
३५ ५२ ६१ द
६८
९१ १०३ १० ९.
तकारामः गाथा-सार
९;
आतम-परिचय
मः शदरवश म पदा हा, इसीलिए मञलम दमभ नही रहा 1 ह भगवान,
त ही अब मरा मा-बापह। वद-पठन का अधिकार मञ नहीह। म सव
“भरकार स दीन ओर जातिहीन ह ।
अचछा हआ हः भगवान, कि तन मञञ किसान बनाया, वरना म धमड
स मर गया होता । ह ईङवर, तन अचछा किया, कयोकि अव तकाराम नाचता
ह ओर तर चरण छता ह । अगर मकषम कछ विदया होती तो वड कट म
. फस जाता । तव म सतो की सवा न करता ओर मपत म मर जाता ।
अगर मर मामली किसान न होता तो मञषम दनिया भर का घमड आ
जाता ओर यमराज क मारग स चलन लगता । बडपयन क अभिमान स
आदमी नरक म चा जाता ह ।
सवय पाडरग भगवान क साथ सवपन म आकर नामदव महाराज न
मकभ जगाया । उनहोन मकषस कहा, “तम कविता करो, वयय की वात मत
करो । मन सौ करोड अभग लिखन का सकलप किया था; उनम स जितन बाकती ह, उतन तम छि डालो ।
मरा दरवय ओौर घानय लोगो क घर-घर म भरा हमा ह, ओर म अपना
पट भिकषा स भरता ह । परम न मरी सब विषयो की. वासना नषट कर डाली
ह गौर मर कटमब की सवा वही करता ह ।
१० बकाराम-गाया-सार
इस मतय-रोक म हरि क नाम को छोडकर मज ओर कछ परिय नही
लगता । मर चितत को सार परपच सघणा हो गई ह । सोना, रपया, हम मिटटी
क समान ह, माणिक पतथर की तरह ह । सार जग को भलानवाली सतयो
स मञच विरकति हो गई
जव मजञ भान भौ नही था, ससार कौ चिनता नही थी, उस समय पिता
. चल बस 1 ह परभो, तरा भरा ही राजय ह, दरसर का काम नही । सतरी मर गई
वह छट गई । दव न माया चडा दी । लडक मर गए,अचछा हजा । दवन माया
स मकत कर दिया । मर दखत मा मर गई; चिनता स मकत हौ गया ।
ससार की वारता मञलस सहन नही होती ओर किसीको यह कहना कि
यह मरा ह" मञच नही सहाता । दह को सख दनवाल उपचारो स मदो सख
नही होता; उनका आदर अथवा भोग विषवत अथवा बनबनवत रगता
ह 1 परतिषठा या गौरव मिलन पर मरा जौ बहत ही अकलाताःह 1
` म जो कछ बोलता ह, सनतो का उचछिषट ह । म जो कछ बोकता हः
दव ही मञलस बलवाता ह ! उसका गहय अरथ-माव कया ह, सो भी वही जानता `
ह॥ ६
कोई करगा कि यह तकाराम कविता करता ह; पर कविता की वाणी
मरी मपनी नही ह । मरी कविता का परकार यवति का नही ह 1 मशनस विव मभर ही.बकवाता ह । भ पामर अरथ-मद कया जान ? जो गोविनद बलवाता ह, सो बोलता ह । यहा म" नाम की कोई चीज नही ह, सबकछ सवामी की ही सतता ह । ।
परमा -विरोधी वचन मचस सहन नही होत । उनह सनकर भरा मन
बडा दःखी होता ह । इसलिए मजञ किसीकी, सगति सहन नही होती । एकात-
वास ही परिय लगता ह । दह कौ भावना ओौर वासना का सग मञञ पसद नही
आतम-परिचयः - ` ११
आता । उसस जी ऊब गया ह । आला-मोह क जाक म पडन स दःख वढता
ह गौर दव-भाराधन म अनतर पड जाता ह ।
म .मान मौर दमम को थककर कीरतन करता ह । म दह स उदास हो
गया ह । एक दव क सिवा मञञ कोई चाह नही । अरथ को अनय सरीखा
मानकर दर रख दिया । म सव उपाधियो स अलग रहकर पवितर हआ ह ।
ससारम जो क ह, बरहमरप ह, एस अनभव का म एशवरय भोगता ह ।
भरी कामना दव को ही भोगती ह ओर दव क आगन कौ अभिलाषा रख-
कर चरणो का चमबन ऊती ह । शातिक सयोग स तरिविध ताप नषटकर
दिया। अब भद-बदधि उतपनन होना पाप ह । जिधर दखता ह, उधर एक हरि
का रप ही दीखता ह । इसकिए अपन ओर पराय का मद नषट हो गया ।
कषण-कषण साकषी होकर मः अपनी अनतरमख -वति को समारता ह ताकि
परम चरणो का मञञस सबव न टट । कितनही भकतो को अनतराय आयाः
दसक भय स म जागरत हो गया ।
ह दव, म तम सरीखा शिव भी नही ह गौर अपन सरीखा जीव भी नही
ह, यानी इन दोनो भावो स अलग ह ।
` एक भगवान कीः ही पहचान ह, दसरी भावनाए नषट हौ गई । तमहार
अलावा अनय नाम-रपातमक जगत मर चिए नषट हो गया 1
म' हाय म विवक की राटी लकर दह क पीछ लग गया । जिस तरह समशान
, म मद कत ह, उसी तरह मन उस अपन बरहमतज स जला डाला ।
` हम शरी विटठल क परतापी वीर ह । कलिका भी आय तो उसका सिर
फोड दग । हम हमशा हरिनाम-कीतन करत ह । इस सख क किए हम बारमबार
जनम ठग । हम मकति की माशा नही करत ।
१२ तकाराम-गाया-सार
, जिसस मर चितत म विदोप पड, एसी सगति म नही करगा । दिरटल
क यतिरिकत जो शबद ह, उनह म कान स नही सनगा । म जो कछ वोरता ह,
दरो क समाधान क किए बोरता ह, लकिन मरा चितत कही मी गया . इमा नही ह । जिनक चितत म भगवतपरम ह, व मजञ पराणो स अधिक परिय ह ।
, दव मौर सनत ही मर हित को जानत ह । इसचिए दसरो क बोलन की ओर भ घयान नही दता ।
दव क पास मङञ किस चीज की कमी ह ? फिर म किसी ओौर स कया साग ? दसर कौ शसा न सननवाला ह न करनवाला । सिवा मगवान क , मञन करिसी चीज की इचछा नही ह । मोकष की न म आशा रखनवाला ह,
` न उसक लिए परयास ही करनवाला ह; न म ससार क आवागमन स डरता ह मरी आतमा को सिवा परमातमा क कछ नही चाहिए ।
पतिवरता अपन पति क सिवा किसीकी परशसा नही जानती 1 वह सव भाव स मन म पति का ही घयान करती ह । वस ही मरा मन अननय हौ गया ह । सिवा भगवान क मज कछ भी परिय नही ह । सरय-विकासिनी कमलिनी . चनदर क परकार स नी खिरती । कोकिला वसनत म ही गाती ह । बालक मा क आग ही नाचता ह । दसरो क बोल ऽस परिय नही लगत ।
. मन काम-करोष भगवान क समरपण करक उसक चरणो का परम धारण किया ह । मरा दहभाव चला गया । अब पीछ फिरकर कौन दख ? ऋदधि- सिदधियो क सखो को लात मार चका, तो फिर इस पराकत ससार-सख को कौन मानता ह ? म विठोवा का दास ह । मन बरहमाड को गरास बनाकर रख दिया 29
परमशवर हमार दा लग गया ह, सछिए हम विनतारहित ह । हमारा मन कही नही दौडता। समी इदविया सतषट ह । कामवासना'का परणतया . तयाग करक म विठोवा का नाम लता ह ।
आतम-परिचय १३
` दव कौ वारत मीटी गती ह, यह मरा परतयकष अनभव ह । मच सख मिला ह । उस सख का बाणी स वरणन नही हो सकता । अब महय ओर
दव म अनतर नही दीखता । इस भख को वनाय रखन का जी-जान स यतन करगा । .
परम मरी मा ह; बह मरी भख-पयास विना कह जानती ह ।
म किपीक अवगण नही दखता । न किसको पापी, पवितर या विदवान गिनता ह । सब तर ही रप ह । इसलिए सवका भावसहित वनदन करगा
ओौर सवा करगा । मञञ कवर भवित कौ अभिलाषा ह । तरी खातिर म विष को अमत मानकर पीऊगा 1
मज तर जञान की इचछा नही ह ; मल तो तरा नाम लना ही मीठा लगता
ह । ह मा विठाई, मन अपना सारा भार तञलपर डाल दिया ह । भवित या
वरागय मरी कछ भी समजञ म नही आता । म निङजज होकर तर सामन नाच
इस छोड ओर कोई भाव नही ह मर मन म ।
`. ह वषणवजनः, म तोतरी वाणी स हरिहरि" वोखता ह, इसक अलावा
म भिखारी ओौर क नही जानता । तम भगवान क दास हो; म तमहारा
उचछिषट परसाद पान को आशा करता ह ।
शरी हसचिरण कमलो क समान तरिलोक म सख नही ह, इसीकिएि मरा
मन उनम सथिर हो गया ह । उनह मन अपनी आतमा म घारण किया ह
ओर उनक नाम कौ इकहरी माला गल म डा ली ह । इसस म तरिविध तापो
स मकत होकर शाति पा गया ह । पाणडरग न मरी सव इचछाए पण कर दी;
मञञ सब सख मि गया '
भरा सपण भार विटठल न ठ लिया ह । अब अनदर-बाहर उसीका रप
भरा हमा ह ।
१४ वकाराम-गाया-सार
मन सव सख विठोबा क चरणो स परापत होत ह, इसलिए ओर किसीकी
इचछा मर चितत. नही ह । एक मगवान क सिवा मर चितत म ओर कोई
नही । मङमकतितक की परवाह नही रही }
म एकानत म आननद स हरि का अननत परमरस भोग 1 यह परमसख.
गहय घन ह । किसीकी बरी नजर न खग जाय, इसकिए एकानत म इसका सवन
क । हमारा यहः परम बडा नाजक ह । वचनो का भार नही सह सकता
, कोई अपना, कोई पराया ! किनहीका पालन करना, किनहीस कषगडा
करना ! कोई अधिक कोई कम किस गण स होता ह ? ह शरीपति, तरी माया
मरी समजञ म नही आती ! इसकिए म शपथपरवक कहता ह कि म तरा ही
चिनतन करता ह ।
सारी दनिया हमको सताती ह । इसस मन म शका उठती ह किकया
नारायण मर गया ? अगर हम रोगो. स डरन ग तो कया.उसस ईरवर को
„ शम नही मायगी ?
सनतो न अपन चरण मर चितत म रख दिय ह । अव मकञ काल नही बाधि सकता । मरी सारी विषमता शीतर हो गई । अब अनदर-बाहर एक ईहवर ही
ह, इसकए मन भयरहित हो गया ह । भय तो अब सवपन म भी नही लगता ।
हम विलबा क लाइ ह, इसकए काल क भी काल ह । अव सव जगह हमारा शासन ह । अव एसी किसकी वखरी वाणी ह, जो हमार सामन बोः
सक ? अबर हमार हाथ म हरिनाम का तीकषण बाण ह ।
म' खाता-पीता, कता-दता ह, परनत सारा `जमा-खच करता ह तर ही नाम परः1 अब सारा कञञट खतम हो गया 1 अपना सारा मार तर सिर पर डालकर म निरिचनत हो गया ह ।
` हमार लिए सवःदिशा ओौर सारा काल शम हो गया ह । जो गम थाः
आतम-परिचय ~ १५.
. वह मगल का भी मगल हो गया ह । सख-दःख स विपरीत नही रहा । अव आघात भी हितफल दता ह । अव सार जीव हमार किए अचछ हो गए ह ।
सचित ही भोग; आग किसीका न ल । आतमसवरप म वढा रह, किसी- की चाकरी न कर । आजतक विषय-काम क हाय पडा रहा, कभी विशराति न पाई । अव पराधीनता समापत हो गई । अब स म अपनी सतता चकाऊ। `
जो सखराशि बकरणठ म भी नही मिलती, व सव सख-एरवय मञञम
निरनतर मिवास करत ह ।
. मङस परम न जसा कछ बलवाया, वसाम बोला, वरना मरी जाति मौर
कर क बार म तो आप जानत हीः ह । ह सनत मा-बाप, मञच दीन पर करोधः
न करक मञच मरी वातो क किए कषमा करो । मर भावी अपराघो को मन म
, न लाकर मञच अपन चरणो क निकट जगह दो ।
म सनतो क घर का दास बनकर उनक दवार-आगन म खोटगा, कयोकि `
उनकी चरण-रज क लगन स मर बयारीस कलो का उदधार होगा ।
दषट की सगति न हो । उसस भजन म वाधा पडती ह ! ह विटठल, दषट , लोग तरा निषध करत ह, मजञ यह बिलकल सहन नही होता । म अकला किस- किस स वाद-विवाद क ? तर गण गाड या इन दषटो कौ खवर ल १: `
जिस पद भ राम का नाम नही ह, उस सनन म मञञ कषट होता ह । ` तरा कहलाकर अब दसर का कहलान म मञच लजजा आती ह । मल सव-
. भाव सएक त ही परिय ह।
मञञ सनत-समागम ओर भगवान का. नाम ही परिय ह । मोकष की इचछा यहा किसको ह ? म तो भगवान की सवा ही मागता ह 1
१६ तकाराम-गाथा-सार
मन अपना सव भार भगदान पाडसग पर छोड दिया ह । वह मरा सख
टख दखकर जिसम अतिहित दखत ह, करत ह
म अपन चितत को मोडकर धीर-धीर एक हित-माग पर खाता ह, परनत
पडित दोष निकालत ह । इसस शका क आघात पहचत ह । म ससार स उरता
ह, एक भाव स भगवान क निकट आना चाहता ह ।
अपनी दहतक की हमन उपकषा कर दी ह 1 अव कहा जाकर किसको हित
की वात सनाऊ ? अपना-अपना ससार चान म कौन दकष नही ह 7 हमन
सासारिक विचारो का वमन कर दिया ह । जव म अपनी जानतक कीलालसा
नही रखता, तो गौरो कौ सभाङ कस कर ! जिस विषय म मञञ रस नही
रहा, उसम दसर की परसननता क लिए कयो छिथड ए
` इसकी मज सपषट परतीति होगरई ह कि तारनवाला ओर मारनवाला
तहीह।
भरा सवरप मर हाय मा गया । अव सबकछ अचछा ह । अव दत किस-
किए ? वह तो अनदर की गनदगी ह 1
म भी भगवान ह, आप भी भगवान ह । परनत दोनो म एक-दसर क परति
मीति अधिक ह ! जो कोई भकति म दढ ह, उसक पीछ-पीछ भगवान दौडत
ह
गगा क परवाह की तरह म सहन बोरता जाता ह ।.भागयवान इसका
सवन करग 1 यहा सब अधिकारी कहा ह ? `
परपचो कौ यह खटपट कव परी होगी ? इस जाक स चटकर म कब विशराति पाऊगा ? इसक दःख स मर पराण निकलन स लगत ह । इस परपच क सवरप कौ परतीति न होन स लोग उसम सखी ह । भोगो स मरा मन शर स ही वसत ह । सङिए वह कटी छिपन का. ठिकाना दढ रहाह।
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आतम-परिचय १७
सार ससार स अलग रहकर म दनिया का कौतक दखगा । ससार म
भर हओ कौ आलो म वनध छा गई ह । इव हओ म स कोई सिर ऊपर नही
निकार सकता ।
निङचय मानो कि य मर बोल नही ह । म तो भगवान का मजदर ह ।
मरी वाणी नामघोष स मधर हो गई ह ओौर उसस मरा मानस निशचिनत होकर
आननदभरित हो गया ह । अब ससार का भय नषट हौ गया ह । अव म चिदा-
काडा का हो गया ह । यह सब सनतो का परसाद ह । इसस भगवान का
आननद परापत हआ.ह ।
पतर, पतनी, बनध, आदि शरीर क सवयी, घन क खोभी, मायावौ लोग
. मितर, सतिदार, सवजनादि, नाना परकार क घातक करमो म लयडत ह ।
य मञञ डबान की घात म ह । इनस भरी रकषा करो। ह परभो, म तमहारी शरण
आयाह। ध
` जबतक हीरा नही मिला. तबतक काच की शोभा, जवतक सरयोदय
नही हमा, तभीतक दीपक कौ शोभा । उसौ तरह जबतक तकाराम स मट
नही हई ह, तभीतक अनय सतो की बात चरगी ।
मन अपना सब भार उसक सिर पर डार दिया ह, इसलिए मरी सारी
चिनता खतम हो गई ।
जिनक चितत शदध ह व मदो अतयत परिय ह ।
मर अहकार पर पतथर पड 1 दभ स परापत हए यश म आग लग।
जोःभर अनभव म आया ह, उस ही म रोगो को दता ह ।
अतर की जयोति की दीपति जो पह आचछादित थी, परकाशित हौ
गई । उसस इतना आननद हमा ह कि बरहमाड म भी वह नही समाता । उसस
१८ तकाराम-गाया-सार
मल जो'सख हमा, उसक लिए कोई उपमा नही ह ।,
धन-मान परारब स भिलता ह परारन स ही सख-दःल होता ह । परारबव
स ही पट भरता ह । इसलिए म वयथ किभीको बरा-मला नही कहता 1
जगत क साथ महय कया लना-दना ? मरा सारा नोच पाडरग पर ह । विठोवा का नामकीतन करना ही मरा कल-साघन ह ।
सख का वयापार करन स मञ सख को इतनी कमाई हो गई कि आग- पीछ ओर सब दिशाओ म आननद-ही-आननद वयापत हो गया । अव तो मङञ
दव की ही सोहवत ओर उसकी ही पगत म बठना ह । समथ दव क धर म सव परकार की सपतति भरी पडी ह । वहा कभी किसी चीज की कमीः नही पडती । दव क घर म अपार लाभ का वास होता ह 1
दस म स एक आदमी अचछा ह, एसा कह तो अनय रोगो की निनदा करन
का दोष सहज ही लगता ह । इसलिए कौन अचछा ओर कोन बरा इसका विचार करन कौ वतति मञम ह ही नही । सव विषयो म हम अपन मह पर ताला मार-
कर वाणी का उपयोग कवर हरिनाम समरण म ही कर ।
म हरिनाम का सिकका लिय हए ह । उसकी सहायता स म कलिका
को धकका मारकर पीछ हटा सकता ह । इस सिकक को यो ही न समनञना 1
यह.जिसका ह उसक समान ह ओर उसक न मानन स नक-कान कट जात द । म नाम-शमी सिकक स निजाननद क सिहासन पर आङढ हमा ह ।
भतमातर म दवता का वासर ठ, यह समजञकर म सव लोगो को आगन दता ह । परनत वसा करत समय यह वयकति परप ठ या सवरी, इसका विचार मन म नही साता । मर मन क भाव को भगवान जानत ह ।
दसो दिशाओ म मटकनवाटा मरापन जवस तर पास लोट आया ह, तवस उस परम तपति हो गई ह ।
~ ---------9------------------- `
ारम-परिचय १९
फरिजल की बात कहन म वाणी का वयय कौन कर ? अव तो म वही
करना ह जिसस भगवान को हदय म धारण कर सक । ईश-चिनतन का
उपददा दन स म पाग गिना जाता ह ।
लोगो की निनदासतति को सनकर म बहर की तरह रगा, जस सवपन-
सषटि जगन पर मिथया हो जाती ह, उसी परकार इस परपच को सठा मानकर
म अनध की तरह रहगा ।
म परम क चरणो को कभी नही विसारन का। इतना किया तो मरी
सब चिनताओ का भार भगवान अपना समनचकर अपन ऊपर ल लग । परभ-
चरण रपी सचची अमत-सजीवनी मर हदय म हमशा रहती ह ।
मरा यह अनभव आप दखिय कि मन ईरवर को कस अपना बना किया
जयो ही कषदर ससार का तयाग किया कि भगवान अपन हो जात ह । मर धय
रखन स दव इतना मर पास-पास रहता ह, मानो मजञस चिपट गया हो ।
“इस शारीर स म पथक ह", इस बात को भलकर मन अपना गला
मखतावश अपन ही हाथ स दबा डाला ह--अपन सवरप को दह-बदधि स
ढक रलौ ह । “यह मरा घर", “यह मरा डका" एसा मन मानाही कस ?
मञ समसत जगत दवरप दीखता ह । इसस मरी गण-दोष दखन की
वतति कषीण हो गई ह । यह वडा अचछा हआ ह-- बडा ही अचछा हम ह ।
आरसी म भक ही दसरा परतिबिमब दिखाई दता हो, परनत तासविक दषटि
स दखनवाल को विमब ओर परतिबिमब एक-का-एक हीह.। नदी का समदर
क साय समागम होन पर नदी का नदीपन खो जाता ह. ओर वह समदर ही
हो जाती ह ।
मञ जो-कछ मिला ह, मर सचित करमो का फल ह । मरा अनतःकरण
परम-मकति क माधरय स सराबोर हो गया ह जिसस म आननद म ही रहता
२० तकाराम-गाया-सार `
ह । मरा जीवन आननद स भरपर हो गया ह । भगवान न मर अजञान का परदा
दर कर दिया ह, जिसस भरी दषट म सारा जगत बरहमाननद स परिपण हो
गया ह । ईडवर न मरी कामनाए दर कर दी ह, इसङिए भरी उसक परति
बडी परीति ह ।
जो तरिविष-ताप-जवर स पीडित ह, उनह म नारायणरपी ओषध
दता ह ।
जो दव सरव-वयापक ह, वह मर हदय म न हो, यह कस हो सकता ह ?
दह-विषयक मत जो-जो आशाए बाघी, उनस मकषो भारी कछश हमा 1
अमक मनषय का समाधान करन स मञञ कोई परयोजन नही ह । इसस
सवय को गौर दसर को दःख होता ह 1
पहल मर मन क अनदर नाना परकार की आशा, मौर ततसबधी असखय
चिनताए थी, परनत उन दोनो का अब मन नाश कर डाला ह ।
यदि ईइवर-भकति का यह उपाय पह स ही म जान गया होता, तो इतन कारतक गरभवास (जनम-मरण) का दःख कयो भोगता .? सतरी पतर क कषट
सल -षरकर "।हक कयः मरती ?
मञ तो एक शदध भाव ही मानय ह । उसक अतिरिकत अनय किसी जञान- चातय कौ मजञ कोई आवदयकता नही ह ।
यह सब जगत मञञ मगवान-रप दीखता ह । इसस मञ जो आननद होता ह, उसस मरा सपण शरीर शीतक हो जाता ह । इसकए म जपन अटपट
` परनत परमभर शबदो स उस दव को करणा की भिकषा माग रहा ह ओौर एसा करन स मर मन को बडा सल होता ह। मञषम जो भदातमक भावना थी, उसका कषय हो गया ह, जिसस मञम दःख की तो छायातक नही रही । म तो तर
न
आतम-परिचय २१
= म रग गया ह, इसस मरा जीव अतयत सखी हो गया ह ।
म स दव का दास ह कि जिस कोई कामना नही ह गौर जो सखदःख
आदि दव स रहित. ह । मर योग-कषम को निभान की पण चिनता उस ह ।
मरा हितकरता भौ वही ह । म उसक गीत मघर सवर स गागा ओर अनय
किसी विचार को चितत म परविषट न होन दगा ।
लोक-सल नाशवत ओर बाहय ह । उस लकर म कया करगा ?
दव न मञच अमत-द का दान दिया ह । इस उपकार क बदल मन उस
अपना कठहार बना लिया ह । यह मरा, यह तरा' मर इस दत को दव न
कषय कर डाला ।
मज किसीस कछ नही मागना । मागन योगय एक दव ह ओर वह तो
मर पास ही ह । म उसस इनदर का पद माग ल मगर उसको लकर कया करगा ?
बह शारवत तो ह नही । वकणठ-पद माग ट, उसम भी कछ मजा नही । वह
एकदशीय ओर ददी ह 1 चिरजीव आयष माग ल ? जीव अमर तोह ही,
फिर चिरजीवपन म कया जयादा ह ? जो एकतव किसीस किसी परकार कमी
अषट हो ही नही सकता, एस आतमकयभाव कोही म मागता ह ।
मर घर म शबद-रपी रनो का खजाना ह । शबद ही मर जीन का एक
साधन ह गौर रोगो को म शबद का ही दान दता ह । दखो, दखो, यह शबद ही
दव ह ओर शबद-गौरव स ही म उसका पजन करता ह 1
जब भ अपना ससार छोड बठा ह, तब मल लोकाचार की कया दरकार
ह ? दव क सिवा मरा कोई इषट-मितर, सनही-सवजन, सगापयारा ह ही नही।
अपन शरीर क सपण सबधियो का मन तयाग कर दिया ह 1 नाना परकार
की परपचपरण उपाधयो की बात सनन स मर कान इनकार करत ह । परम,
दया करक मञ विषय-वासना क सख दःख स दर रखना ।
२२ तकारम-गाया-सार
म हर समय हरिनाम समरण करता रहता ह, इसस मरा मन समाहित
अवसथा म रहता ह ओर उसीका नाम ह समाधि । म कही गफा आदि म
भटकन नही जानवाला । म तो वही रहगा जहा मकतो की मडली जमी
होगी 1 नाम-समरण क सिवा उपवासः बरत आदि म कभी नही करनवाला ।
जिस घडी मन अपना जीवभाव तङञ अरपण कर दिया, उसी घडी उसका
एसा कषय होगया कि वह दढ भी नही मरता ! ह अननत! अब तो म जो-कक
करता ह, तरी ही सतता दवारा करता ह ।
दव का ओौर मरा मक स ही सवरपकय ह । शठ परपच क मोह क कारण
दव स मिरत म बडा विलमब हो गया ।
जिनकी वतया सथिर हो गई हो, उनको म अपना मितर मानता ह ।
सवामी की सतता दवारा समपण मम पहल स हसतगत हो जान पर वारः बार विरष लाभो की परापति होती रहती ह । म भावहीन सयाना नही ह ।
मन अपन सवामी क मन क साय अपना मन मिला छिया ह, जिसस म उसक अनतःकरण की बात जान जाता ह । म परिधरम-शवक अपन मन को परतयक कषण जागरतावसथा म रखता ह । अब म दव स तनिक भ विलग नही रहन वाटा 1
चिततवतति को एकागर करक म हर गरास मौर हर घट पर दव का समरण करता हमा खाता-पीता ह । म चितत को जागरत रखता ह दरतभाव क घस आन की मजञ बडी आशका रहती ह 1
मरी इचछा यी कि लोगो क ऊपर अपन बडपपन की छाप बिठाकर सव मान परतिषठा पाऊ, इसी कारण दव मञञस विलग हो गया ह ।
अब अहकार स मरा सब नही रहा, इसस तमाम परपच का निरसन हो गया ह ।
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आतम-पारचय २३
मरी अविदया की रातरि का अनत आ गया ह । अव दहबदधि-रपी मोहनिदरा
को भल गया ह । मरा निवास नारायण क सवरप क अनदर हो गया तवस मञच
^ आननद-ही-आननद हो गया ह । तमाम जगतत म सव जगह सव-कछ मर दी
सवरप स परिपण हो गया ह । इसस म यह समञच गया ह कि भरा यह जञान
कितना मिथया था कि “म यह दह ह, ओर “इस दह क सबधी मर सबधी
ह ।' अब तो दव ओौर म दोनो एकरप होगणएह।
भन बहत-स सत-मतानतरो का तयाग किया ह ओर जिसक दारा अपना
कारय हो जाय उस ही पकडकर बठा हआ ह ।
दहतो कमधीन ह । उसक योगकषम को अपन सिर पर लकर मकयो
वथा दःख कर ? शरीरक सवधियो को अपन सबधी मान बठन की दरभावना
समजाज तक बड सकट उठाता आया ह ।
भरा मन निशच ओर सथिर हो गया ह, जिसस मह बाय रखनवाली
आशा क बधन टट गणए ह । हरिपरम-परवाह स मञम आननद को वाद आ
गई ठ ।
म अपन चितत म एकनिषठ भाव धारण करक भतमातर क परति दया,
कषमा ओर शानति घारण करक रहता ह ।
लकषमीपति सरीखा दातार मञञ मिला ह, फिर मज मागन क किए रहा
कया? ४
भगवान क चरणो क निकट कमी किस बात की ह । उनक आग ऋदधा
ओर सिदधिया दासी बनी खडी रहती ह । परनत उस नाशवत सख की ओर
निगाह कौन करता ह ? म पाप-पणय दोनो को पार कर गया ह ।
, एसी मधर परम-मकति का आननद-भोग छोड मक जीवनमकत बनन स
२४ तकाराम-गाया-सार
बया काम ? नारायण सवथ भकतो का दास ह, फिर उसस मिलना कया मरिकल
ह ? ह दव, मञ सायजय मकति नही चाहिए । मः तो सनतो क समागम म
अधिक आननदपरवक रहगा ।
वक क'दिवयमोग म इसी लोक म भोगन म, दसा उचच परम भ
सागता ह 1
सान-अमान, भाव-अभाव आदि सब दनद टल गए मौर मरीदह ही
भगवान-सवरप बन गई ह 1 एसी अवसथावाल भागयवान ह । जीवन का यही
हत होना चाहिए
भतमातर म भगवान का वास ह, एसा पण अनभवयकत वरागय मक
परापत हमा ह 1
म जिसको चाहगा, मान दगा, मरी मरजी न होगी तो न दगा । वस, राजा
ओर रक मञज समान ह । जब म अपनी दह तक क परति उदासीन भाव रखता
ह, तब दसर की आख की शरम रखन का मञञ कया कारण ह ? तब तो म अपनी सहज लीला क अनसार ख खल रहा ह । म सख मौर दःख स पर हो गया ह
अपन कटमब क मरण-पोषण का भार मन तर ऊपर.डाल दिया ह । म तो एक निमितत-मातर ह । म वयवहार का कामकाज करता ह, परनत हदय म हर समय तरा नाम घारण किय रहता ह ।
सवरप-अजञान-रपी अरी रातरि को म खा गया ह, इसलिए अब काल मी मञञ नही पकड सकता । सवरप क ऊपर पद की तरह पडी हई मायान ही इस परपच का तमाशा खडा कर रखा ह । उस माया न परपच का वशा धारण करक जो भाव परकट किया वही अव नही रहन पाया, इसलिए दहादिक भरपच क घर म मञञ फिर स घसना पड, एसी परिसथिति ही नही रही ॥
आतम-परिचय २५
सका कारण यह ह कि मन तमाम उपाधिया शरीहरि क पास भज दी द ।
(" अबमकिसीक हाय नही आनवाला । अब मरी एरी अचिनतय सथिति हो
गई ह कि उसका वरणन नही हो सकता,
म अणःरण स भी सकषम ह ओर आकाश जितना बडा ह । मन भरमजनय
` दहादि परपच क आकार का कषय कर दिया ह । जञय, जञाता ओर जञान की
तरिपरी का निरास करक मन आतमबोध-रपी दीपक अपनी दह क अनदर
परकटाया ह । अव तो म अपना अवशिषट परारय भोगन भर क किण ओर
लोकोपकार क लिए ही जीता ह ।
मान, परतिषठा ओर दमम मज सअर कौ विषठा क समान लगता द ।
मतय आन स पहल टी म तो मर चका ह । मर मन म जो आता हसो
करता रहता । तम मर नय-नय खर दखा करो, मर साथ विवाद करन का
` वयरथशरमनलो।
अब किसीको मञञस कोई आदा नही रखनी चाहिए । म तो भगवान क
लिए दीवाना बन गया ह ।
सगरह, तयाग पर मन बडी सिरपचची की । उसस दःख घटन क बदल
बढा 1 अब तो मः अननत क कदमो क आग पडा रहता ह । अव मयो जनम-
मरण क जजार म फसन का कोई कारण नही रहा ।
एकविध भाव स एकारत भ रहत स जो सख होता द, बह मञञपरापत हो
गया ह ।
अब मः सततव, रज ओर तम, इन तीनो गणो को तयाग करक निरगण दव
का बन गया ह ।
भ कया गा ? मरा गाना सननवाला तो कोई ह नही । जहा जाता
ह, सारी दनिया को वि षयतषणा स मान भरी हई पाता ह ।
इसरिएि अव
२६ तकाराम-ाया-सार
म अपन आतमाराम क साथ करोडा करगा ओर जसी वन पड वसी बात
करक छटगा 1
जो निषकाम चितत स राम-मजन करता ह, उसका म दास ह ।
3 ~ „4.
जो तषणा क आसन पर बठ ह, उनका कछ नही बचनवाला, सव लट
जायगा । इसकिए म दनिया स मह मोडकर राम क रासत लगा ।
ससारी लोगो को पसा अपन जीवन स भी अधिक पयारा रगता
परनत मञञ वह पसा पतथर स भी तचछ कगता ह । सग सबधी, इषटमितर,
सजजन ओर बन य सव मञञ एक सरीख ह ।
शरीहरि का कीततन करक म शदध हो गया ह, इसलिए मर लिए तो सारा तरलोकय भी शदध हो गया ह । अव स म पखरहमरपी नगर म सथायी लप स
रहता ह । वहा मदातमक परपचरपी पवितरता पर मरी निगाह नही पडती ।
अव म एकानत म परबरहमरस का पान करता रहता ह ।
म जनममतय क चककर म फसकर बहत थक गया था, परनत राम- समरण स वह थकान दर हो गई ओर मरी काया शीतल हो गई ।
भरी कल पजी एक मगवान ह । य शवद भी मर मख स उनहीन बलवाय
ह ।
समसत वयसनो को नषट करक ओर सगमातर का तयाग करक म बिलकल निःसग भाव स नाचनवाला नट बन गया ह । इसस म सरवतर समान रप स दव को ही दखता ह सरवतर म ही वयापत होगया ह । अव किसी ओर को नही आन दनवाला 1
दवय की बौर कटभबियो कौ अव मञ कोई अभिलाषा नही ह । मल अपनी जान कौ परवाह नही । शरीर तक को वसतर स ढकन कौ कया
आतम-परिचय २७
ह ? अव मजञ लाज-शम भी किसकी रखनी ह ? कयोकि चारो
क सिवा मञच ओर कोई नही दिखाई दता ।
ओर अशभ दोनो परकार क कषण मर रएिशभहीहो गण ह;
मनञ विशवास हो गया ह कि दव मञषपर कपा करग ही । इसलिए
समपण वयापारो म म आननद का ही वयापार करता रहता ह । इसक
कछ म जानता तक नही ह । एसा होन स मरा चितत समाहित
इसलिए लाभ, हानि, सख-दःख क धकक मर अनतःकरण को नही
रकार म ससार म रहत हए भी उसम लिपत नही होता । परापचिक
अपन मन स दर कर रला ह ओर मर अनतःकरण कीपरीति
तलय हरि क नाम पर सथिर हो गईह। इसम मर मन |
आघातो-परतिघातो का शमन हो गयाह।
२६.
नाम-मटिमा
विदर क यहा साग-पात खान स कया दव भखा रह गया था ? कनजा
दासी. का बदन तीन जगह स टढा था । वह करपता की राशि थी। फिर
भी भगवान न उसीका सवीकार किया या न ?
साघ-सनतो का राम लन स पषय होता ह । इसीलिए मरी वाचा उनका
निरनतर नाम कती ह । इसस महालाम मपत म मिरता ह । सनतो क चरणो
म भावलीन रहना ही विशवाति ह । सनतो क जप स सब पाप कट जात ह।
कमदिनी अपनी सगघ को नही जानती, उसका भोग तो ममर ही करता
ह । इसी परकार ह दव ! अपन नाम की मिठास कौ आपको जानकारी नही हः
उसका परम-सख तो हम ही जानत ह।
आपक चरणो क सख क सबव म कया कह, आसिको उसका अनभव
नही ह 1 कितना हौ वणन कर, आपको सतय नही लगगा, कयोकि अमत क
गण अमत नही जानता ।
हरि का नाम सार का भी सारह । इसस यम भो शरणागत होकर किकर
बन जाता ह । नाम उततम स भी उततम ह । इसलिए वाणी स परषोततम बोलो ! कया कह, मगवान क चरण ही तारक ह ।
अनतकाल म मी जिसक मह म दव का नाम आ गया, उसक सख का पार नही ह ॥
मह स मगवान का नाम ख, यही भरा नियम-पम ह; सनतो क परो पडना, यही मरी उपासना ह 1
4.4.
। < ॥
नाम-महिमा २९
भगवान का नाम ही अचछा ह, वही सतय ह । उसीस बधन टटत ह;
उसीस दोनो लोको म कीति होती ह । जिसम हरि की शरदधा ह, उस हरि कौ
शरापति ततकाल होती ह । भोला भवत कलिकार को जीतना जानता ह।
दव-परम मन म न हयो तो न सही, मगर वाणी म उसका नाम हमशा रहन
द । उसक चिनतन म ओर नाम-सकीतन म जीवन बीत । चाह नाम दभ सही
कयो न ल, मगर ल, कभी-न-कमी भगवान सध लग दी ।
भगवान का नाम लन स भवरोग का निरसन होता ह, सचित करियमाण
ओग का नाश होता ह । इस उचवारन स जनम-मरण का नाश होता ह, पाप
नजदीक नही आ सकता, तरिविघ-ताप जाता रहता ह, माया दासी हो जाती
ह गौर परो पडन रगती ह ।
ह परभो, अगर म पतित न होता तो त पावन किसको करता ? इसि
पहल मरा नाम ह, बाद म तरा । अगर लोहा न होता तो पारस पतथर अनय
तयरो जसा होता । भगवान कलपना स कलपतरतक को कसपित वसत दता
= ॥
मक यह निरचय हो गया ह कि म इस भवसागर स पार हौ गया ह ।
ससार को छोडकर तरा नाम कठ म धारण किया ह । अब एक हरि को
-छोडकर ओर क शष नही बचा ।
भगवानरमी त याद करत ही दौडती आकर याद करनवाल को
पयार करती ह 1 हरि क नाम गान स सायजयता (मवित) मिलती ह ।
यहा सब सखो का आधार नाम ह । जब दवत चखा जाता ह, उसी समय
जरहय का साकषातकार हो जाता ह जौर शरीर भी बरहमरप हो जाता ह । साति
छोडकर दखलोग तो सव सख नाम म ही दिलाई दग।
३० तकाराम-गाथा-लार
भगवान का नाम ही सवधम ह 1 इसक अलावा म दसरा साधन नही
जानता ।
दरवय को म गनदी चीज मानता ह । कारण, उसक पौ काल लगता ह ।
नारायण क नाम का ही जीवन मन घरण कर खया ह । मर पास जो याचक
आयग, उनद इसीका दान दन कौ कोवि कलपा ।
सारभत मम राम ह, इसलिए हम भाविक भकतो न उस हदय म रख
लिया ह 1 लोहा, चकमक, पतथर ओर रई, य अगनि को सिदध करन क लिए ही
रखन पडत ह, बरना उनका बोञा कौन उठान बठ \
भगवान जो-क करत ह, मर भल क ठिए करत ह, यह अनभव मर
चितत को परी तरह हो गया ह । मर जीव को अपार आननद हौ गधा, कयोकि
परमाननद न मरा समपण भार ल चया 1 उनह अपन नाम का अभिमान
ह, इसकिए व शरणागत को अपन बर स तासत ह ।
नाम सही सिदधि होगी, मगर वह नाम दोषरहित वदधि स लना चाहिए ।
राम ही राजय ह, राम ही परजा ह, राम ही लोकपार ह । दसरा कोई नही ह । सवामी-सवक का भाव नषट हो गया ह ।
जहा दया, कषमा, शाति ह, वहा दव का वास ह 1 दव उसक घर दौडता आ जाकर उसक हदय म वास करता ह । दव का नाम ठन स उसकी पजा
व परापति हो जाती ह 1
जिसको जीभ पर भगवान का नाम नही आता, उसकी बोली मञच अचछी नही लगती 1 जो भगवान स सव परकार स विमख ह, उस म अपना कभी नही कहता, वह मरा शतर ह । जिसको मगवाद का नाम परिय नही ह, वह अघम ह 1
(0
नाम-महिमा ३१
जिस कषण दव क चरणो म मरी बदधि सथिर हई, उसी कषण मर मनोरथ
पण हो गए । जीव समाधान पाकर .निखवल हो गया, ओर आकलता को
मजञ याद तक न रही । भगवान क परमसख स मन क सखी होन क कारण
तरिविध-ताप का दहन हो गया । महालाभ भगवान का वाणी पर वासहो
गया ओर हदय म भी उनका अलड अगसग हो गया । आतमा क परमातमा
पद पान स विदव विदवमर म छय हो गया ।
राम क दो अकषरो को छोडकर यह सव जजाल किसकिए करना ह ?
आकसमिकः नामोचचारतक स सदगति मिरती ह; वही नाम सतत
छन स भगवान निकट आकर खड हो जात ह; ओर राम-नाम-समरण
मवित-भावपरवक किया तो उसकी सथिति तो कोन जान सकता हद
, नाम मीठा ह । उसीस सारी इचछाए परण होती ह। अनय रसोक
सवन स मतय निरचित आ जाती ह । परनत इस नाम-रस स जनम-मतय-
चकत समापत टो जाता ह ।
नाम छनवालो क ससार-कम का निवारण हौ गया । जिटन रामनाम
, पर विरवास रखा उनहोन भवपाश तोड डाल । भाविको न नाम सकीततन
स कलिका को शकाकर अपन बस म कर खया ह।
परम क मकत चिनता-आशा-रहित होन क कारण सदा निरभय रहत ह ।
यह वात वहतो न सिदध कर दी ह कि मख म नाम रखन स हाय म मोकष
आजाता ह । उसक लिए न असम-दड-लकडी चाहिए, न तीरथ-खमण । नाम
चिनतन हो, तो ईा-परापति म कोई बाधा नही आती 1
जिसक मह म हरि का नाम नही ह,.उसक सखो म आग रग । मपर,
कितनी भी विपतति पड, परनत चितत म राम रह । हरिचितनरदहित धन,
न
३२ तकाराम-गाथा-सार
समपतति, उततम कल समल जल जाय । ह परभो, मक वह सथिति दो, जिसम .
तमहारी सवा होती रह ।
समदरवषटित पथवी का दान भी नामचितन की बराबरी नही कर
सकता । इसङए आलस न करो । रात-दिन रामनाम लो । तमाम वद-शासतरो
का पठन भी गोविद क नाम की तलना म क नही ह । परयाग, काशी, आदि
समसत तरयो कौ यातरा भी रामनाम क सामन कछ नही ह । विठोना का
ताम ही सार ह ।
कविता करन स कोई सनत नही हो जाता । न कोई सनत का सबघी होन
स सनत होता ह । सनत का वष धारण करन स या सनत उपनाम रख लन स
भी कोई सनत नही हो जाता शतर क परहारो को जो सहन करता ह, वही शर
सनत ह । हाय म इकतारा लकर गदडी ओदन स कोई सनत नही होता ।
कीतन करन स सनत नही होता । पराणो क अथ बतान स सनत नही होता,
वद-पठन स सनत नही होता, करमो क आचरण स सनत नही होता; तप-तीरथाटन
करन स सनत नही होता; वन-सवन स सनत नही होता; माला-मदरा स सनत
नही होता; भसम रमान स सनत नही होता \ जबतक दहवदधि, दहातमभाव,
नषट नही हमा, तवतक उपरयकत सब रोग ससारी ही ह ।
जो कोई हरि का नाम रता ह, उसक पीपी परभ का परम †ता ह ।
हरि का नाम छत ही ससारःवघन टटन लगत ह । नाम क सिवा हरि- भरापति का ओर कोई उपाय नही ह । म सबस पकरारकर कहता ह, नाम लिय विना न रहो ।
हरि का नाम लत ही पापो का नाड हो जाता ह ओर उततम गति मिरती ` ह । राम क नाम स कलिका थरथर कापता ह । रामनाम छन स सकति , मिती ह 1 सीस आवागमन मिता ह ओर सार ससारः बधन टट जात ह । किसौ मौर तप-अनषठान की आवशयकता नही ह । भकति-भावसदहित हरि का नाम जपोतो काङवयम दरण भ जायगा ।
नाम-महिमा ३३
परमसपरम क सवरप का समरण करक उसम जीव को निमगन कर दना ही
रम-मिलाप ह । नामसमरण सपरमकारपही अपन पासञआ जाता ह । परभ
कानाम बार-वार लस शरीरकी समपण नस आननद स शात हो जाती ह ।
"रामः नाम क समरण करन मातरस ही काम ओर करोष भसम हो जतह
जौर अभिमान निरवासित हौ जाता ह । रामनाम स ही सव करमा काओौर |
ससार का बनधन टट जाता ह जौर सवपनम भी हम कोई तकलीफ नही होती ।
जनम-मरण का दःख नही सहना पडता; दरिदरता कभी भी अनभव नही होती ।
रामनाम क उचचारण-मातर स सवधम की परापति हो जाती ह ओर अजञाना-
नवकार का पटल एक कषण म दर हो जाता ह । रामनाम कन स भव-समदर
सहज म तरा जा सकता ह, इसम तनिक भी शका नही ।
नारायण का नाम एक एसी ओषध ह, जिसस मवरोग का नाश हो
जाता ह । इस दव की कपा होती ह ओौर सीघ ही कवलयपद की परापति ह
ो
जाती ह ।
हर समय विटठ भगवान क नाम काजप करना ही तमाम सखो का
सार ह 1 यही साधन तमाम साधनो का मर ह । यह याद रलना कि जवतक
तनिक भी दहाभिमान ओर दह का विचार ह, तबतक नारायण पास नही
आ सकत 1
दव का समरण करन स मन का तमाम भय टर जाता ह ओर चिनता
करन का कोई कारण नही रहता । (कषणः का उचचारण परमसदित करन स
तन मन शानत हो जाता ह । ~
हर समय मह स नामोचचार करन की भकति चारो परकार की मकतियो
स शरषठ ह । इसी नाम की सहायता स म बरहय क साय सपरदधा म उतर आया
ओर भकत स भगवान वन गया
३४ तकाराम-गाथा-सार
यदि रामनाम का रस रग जाय तो तमहारी दह भी रामरप ही नन
जाय । फिर तमम ओर दव म कोई अनतर नही रहनवाला । तमहारा मन
आननदसवरप हो जाय ओर तमहारी आलो स परमाशर वहन खग ।
= 3
चारो वद पढ चकम क वाद जो हरिगण गान वढ तो जानना कि वह वद
का अथ ठीक समजञा ह । योग, यजञ, दान, आदि चाह जो करो, परनत उन
करमो को करत-करत यदि कणठ म हरि का नाम रमा रहता ह तभी उन करमो
का फल मिलता ह । त नाना परकार की खटपटो की वदधि करन क वदल सवक
सारसवरप एक हरि क नाम को ही अपन ग का हार बनाय रख ।
राम का भजन तमाम मधर वसतओ का सार ह 1 वह जनममतय क
दःख का ओर तरिविध ताप का नाश कर डरता ह । खात-लात यग-क-यग
बीत गए, " फिर भी भख-का-भखा ! जिसन रामरस का सवन किया वह
. जनम-मरण क फर म कभी नही पडता ।
जो कोई रासत चरत-चलत रामनाम ठता जायगा, उस कदम-कदम पर
यजञ करन का पषय परापत होगा । उसका शरीर तीय ओर तरत क उतपतति-
सयान क समान बन जायगा । वह सचमच धनय-धनय हो जायगा । लोकिक
वयवहार क काम करत-करत जो रामनाम का समरण करता रहगा, वह
सदाकार सख की समाधि का मोग करगा 1 जीमत-जीमत जो गरास-गरास
पर रामनाम जपता जायगा, वह खान पर उपवासी ही ह । भोग ओर योग
दोनो परसगो पर रामनाम का समरण करनवाला कभी कम म छिपति नही
होता । जो हर समय रामनाम का जप करता रहगा, वह जीत, हए भी मकत
दीह।
रामनाम क समान दसरा पणय नही ह । नास तो अमत का भी सार ह, निन सवरपः का वीज ह, ओर सव गदध तततवो म गहय ट । नारायण क सिचा ओौर किसीपर भरोसा न रखो ।
ध:
भकत ओर सञजन
जो अपन हित क विषय म जागरत हौ गया ह, उसक माता-पिता
धनय ह ! उस दखकर भगवान परसतन होत ह ।
जिसका सव अहकार चला गया ओर जिसम निदा, हिसा, कपटादिक
` वयवहार नही, ओौर दहवदधि भी नही, वह निरमल सफटिक सरीखा सवचछ ह ।
अधिक कया क, उसका सव शरीर चिनतामणि सप ही ह । वह सव तीरथो
को पावन करनवाला ती हो गया ह । जिसक दशान स मोकष-लाम होता
ह, जिसका मन जदध हो गया ह, उसको माला आदि वाहरी चिनदो की क
भी आवदयकता नही; एक मन क गदध होन स वह सव भषणो स मडित होता
| ह, ओर जो निरनतर हरिगण गाता ह उसम अखड आननद रहता ह ।
~“ जिसन अपना दरवय, दह ओर मन परम क अरपण कर दिया ह ओौर जिस कोई
आशा नही ह, एसा परष पारस-मणि स भी वठकर ह ।
=.
जिसक मह म अमत तरय मीठ शबद ह, जिसकी दह परभक लिए ही लगी
हई द, जो परष सरवाग-निरमल ह भौर जिसका चितत गगाजल क समान पवितर
ह, उसक दशन-मातर स तापतरय मिटत ह एव विशवाति मिलती ह ।
चितत का अगर समाधान दौ गया तो विषदत दःख भी सोन सरीख सखल-
कर लगत ह । विषय की अति-ालसा बहत वरी ह । चितत अगर विकवध ह
तो चनदन का उवटन भी अग को जाता ह । मन अगर असवसथ ह तो सलो-
पचार स भी पीडा होती ह ।
जिसकरो एक दव ही भरिय ह ओर जिसम दव क परति अखड परमभावद,
३६ तकाराम-गाया-सार
भमडल म वही पवितर ओर वही मागयवान ह । उस परष कौ सवा दव को
पहचती ह 1
जो भगवान क चरणो का चिनतन करत ह, व सजजन मर परिय सगी-
साथी ह । अनय लोगो को म मरयादापालन-मातर क लिए मानता ह ; वयोकि
आखिर व सव दव क ही तो अश ह । परनत मञच हरि-मवित करनवाल
जितन परिय ह उतन अनय नदी ह ।
चौदह रोक जिसक पट म ह उस हमन अपन कठ म धारण करिया ह ।
हमार घर कछ कमी नही ह । ऋदधि-सिदधि हमार दरवाज पर सवा म ततपर
रहती ह, जिसन तमाम राकषसो को वाघ लिया, एसा परम हमार सामन दोनो
टाथ जोडता ह । जिसक रपादिक नही, उस हमन अपनी भवित क जोरस
` सगण-साकार किया ह । जिसक शरीर म अननत बरहय ट, बह हमार लिए
चीटी क समान ह । आशा को छोड करक हम भगवान स भी बरवान हौ गए
। सचित, परारवव ओर करियमाण कम भकतो क नदी होत ; कयोकि भकत
क अनदर-बाहर एक दव का ही अनभव होन क कारण उसका सवक चही
होगया ह । सततव, रज, तम गणो कौ वाघा कभी हरि कर भकत को नही
होती । दव स मवत सिनन नही ह ।
दरवय-इचछा जिसक चितत म नही ह, मान, अपमान, मोह, माया जिस
मिचया भासती ह, जो सव-तततवजञान सपादन कर ओर जञान का अभिमान
छोडकर माचरण करता ह, एस परष को साध अकसमात मिर जात ह ।
जो परदःख ओर परःसख को अपना मान वही साध ह । वही दव को समञनता ह । मकखन जस अनदरःवाहर कोमर ह, उसी तरह सजजनो का चितत
होता ह । निराधित को जो हदय म रखता ह, अपन दास-दासियो पर जो + ।
णो ~
भकत ओर सजजन ३७
पतर की-सी दया रखता द, उस कया कह ? वह तो मानो साकषात भगवान कौ
मति ह । ~
जिसक चितत म दरवय ओर दारा (कामिनी ओौर कचन) कौ इचछा नही
ह, उसन ससार पार कर लिया । सभ-अशभ स जिसको हष-शोक नही होता,
वह जग म जनादन होकर रह रहा ह । जिसन दव को दह अपण कर दिया,
फिर उस क करना वाकी नही रहा ।
हम परभ क दास कलिकाल स भी डरनवाठ नही ह । मगजाल सरीख
परपच भ भटक जाय, यह कभी नही होनवाखा । घल उडान स सरज की किरण
मटी नही होती ।
नटो की तरह वष रखकर हम सव खल दिखलात ह, मगर उसस हमार
आतमबोध म अनतर नही पडता 1 वहरपियो कौ तरह कौतक स हमन खल
जमा रखा ह, फिर भी अपन सवसय को जानत ह । सफटिक मणि लार-पील
रगो की चीजो क योग स वस रग बदलती ह, मगर किसी रग स मिल नही
जाती 1 हम ससार स अपत रहकर निसचित करीडा कसत रहत ह ।
कोई साधनवाला हौ तो सावन दोही ह-परदरवय ओर पर-नारी को
तयाजय मान 1 फिर उसक घर भगवान का भागय ओर सकर सपतति
आयगी । एस परष का शरीर दव का भडारगह ह ।
जस किरण सय स अलग नही, मिठास शककर स अलग नही, उसी तरह
मदव स अभिनन ह ।
सचच भकत परमषठि पद को भी सरवदा तचछ मानत ह । सदा हरि का
चिनतन करना ही उनका धन ह । इनदर.पद आदि भोग, मोग नही -भवरोग
ह । सावभौम राजय स भकतो को कोई काम नही 1 पाता क आधिपतय को
व कवर दारिदरय मानत ह । योग-रिदधि-सार उनह असार लगता ह । मोकष
३८ तकाराम-गाया-सार
सरीखा महान सख भी उनह दःख लगता ह । हरिक सिवा उनह सबकछ तयाजय
रगता ह ।
जिसन अपन हदय म हरि को धारण किया ह, उसका आवागमन समापत
होगया । सारा वयापार सफर हौ गया । हरि हसतगत होगया कि फिर कोई |
भय चिनता नही । हरि भकतो म कोई विकार नही रहन दता ।
जिसन भगवान क लिए ससार छोड दिया ह, उसपर उनका अतिशय
म होता ह । वह एस भकत क पीछ दौडता ह गौर उसक सख-दःख को सवय
सहता ह । भवत का काम ह कि वह भगवान का नाम र, ओर भगवान का
काम ह कि वह भवत क काम करता रह ।
जो अखड भित जानता ह, वही दव का पतला ह । उसक विना कोई
पडित हो या बदधिमान, मर नजदीक दववान नही । जो नवविध मकति जानता
ह, वही शदध ह । ह
जो मन को विषयो म जान स रोककर पीछ लाता हव, वह बली ह, इस भमडल म वही एक शर ह ।
सतान सवया करता ह मगर परानन खाकर उस निषफल करता ह, जिसक
अनदर सासविक य नही, उस दव कभी नही भिरता ।
परम-सतर कौ डोरी स हरि को जिधर ल जाओ, उधर जाता ह । भकत न अपनी काया, वाचा ओौर मन को मगवान क अपण कर दिया ह । सारी सतता उसक हाथ ह । इसलिए आकरक-वयाक कयो होऊ ? वह जस रखगा, वस रहगा 1
जिसका हदय निरम ह, वह भावशील धनय ह । जो दव-परतिमा का पजन करता ह, सत कह वहा माव रखता ह, विधि-निषव न जानता हआ चितत म भगवान कौ एकनिषठा रखता ह, दव को उसका भाई हो जाना पडता ह । .
व ~--~----
भकत ओर सजजन . ३९
जहा-जहा राजा जाता ह, तहा तहा उसका वभव साथ चरता ह 1
उस राजा को कया यह कहना पडता ह कि “म दशानतर जा रहा ह, यह वभव
साथ ऊ चलो ।'' जिसक हदय म नारायण रहता ह, उसपर नारायण की पण
छपा रहती ह । इसको पहचान समता ह।
, सब जीवो म भगवान ह, इस सकत को म जानता ह इसीकिए तीर
की तरह तीकषण उततर दता ह ।
हमारी यह विशषता ह कि अनीति क माग स चरनवाठ जीवो को हम
नीति-माग दिलात ह जर जो कोई चक, उसकी फजीहत करत ह । एक
परमातमा का सदा डका वजान म कया वाघा ह ? इसस अगर सारी दनिया
कपित हो तो कया हो जायगा ? जहा राम-कषण-नाम सरीख बाण छट र
हो, वहा अविदया को कहा जगह मिलगी ? जहा सतय का उपदश होता ह,
वहा असतय नही ठहर सकता । प]
अब भ तर ही मगल गणगान करगा ओर मसत होकर हरिकथा कहगा ।
मर तमाम भय, वयाकरता ओर पापणय को निवारनवाला त ह आजतक
जो मोग भोग, नह तर हवाल करक इस दनिया म अकिपत होकर रग
ा ।
हम तर पयार बचच ह, तर चरणो स अलग नही रह सकत 1
मञ किसी चीज क मागन की इचछा नही, तो फिर भ एसा सकोच किस-
किए कर ? दिक म इचछा रखकर म किसी नीच की कभी परशसा नही
कर
सकता ।
भगवान को मदिर की सीढी क पास स नमसकार करन स कस उदधार
हो जायगा ? साकषात भट होन स जो होता ह, वही सबको अचछा दीखता
ह 1 एक-दसर को नजरस न दखकर कोरी बात करना फिजख ह । इतीरिए
मन बोखना बनद करक अनतःकरण को साकषी बना रखा ह ।
० तकाराम-गाया-सार
हम विषणदास कसम स भी कोमल ओर वज स भौ कठोर ह 1 हम दह-
बदधि स मतक जौर आतमसथिति म जीवित ह । भलो को अपनी रगोटी तक
द दग, मगर दषट क सर पर लाठी जमा दग । मा-बाप स भी जयादा पयार
करनवाञ ह ओर शतर स भी जयादा हानि पचानवाल ह । हमार आग
अमत बया मोटा ह ओर विष भौ कया कडवा ह १ हम पणतः मीठ ह, जिसकी
जसी इचछा होगी, हमार निकट परी टोगौ 1
जिनक अनतःकरण म दया ह, व ससारी पराणी धनय ह । व यहा उपकार
क किए ही आय ह । उनका घर वक म ह । जो सठ नही बोरत, दह क परति
उदासीन ह, ओढ पर मधरी वाणी ह, उनक पट म पषकल अवकाश ह ।
मन निषकपट ह, वाणी रसा ह, इसीको लकषमी (एडवर) कहत ह । एस ही मागयवत को जीना चाहिए । जो हमशा नमर रहता ह, उसका नाम
लत स हरकोई सतषट होता ह ।
सबकछ विषणमय ह, यह वषणव ही जानत ह । वाकी क रोग जञान का
बोजञा वयथ सिर पर चय फ ह । विभिनन साधन कवल कणट परद ह । उन
सवक करन म उलकचनमातर ह । अहकार कषीण होना चाहिए । अभिमान का नाश करना बडा कठिन ह । मायाजार वच स भी नही टट सकता । इसका मम कवल हरिभजन स ही मिलगा; अनयथा नही ।
मनि रोग गभवास स उरकर मोकष को चल गए) मगर हम विषणदासो को वह गभवास सलम ह । सार ससार को परभमय कहकर हमन उस बरहमरप कर दिया । पराणो म मोकष-साघन को कठिन बताया ह, मगर हमारा वकणठ जान का माग बडा सरल ह । हम सव जनो क साय हमशा हरि का परमसख लत ह ।
ईवर क सवक बड शर ह, इसलिए काल उनक परो पडता ह । व घोष स परम का जय-जयकार करत ह, जिसस दोषो क बड-बड पाड भी जक
भकत ओर सजजन ४१
जाति ह । जिसक हाय म शाति, दया, कषमा क अभग वाण ह, भमडल म वही
बी ह ।
, दह ओौर दह क सबधियो को निय मान ओर शवान-शकरा का वनदन
कर--एसी सथिति हो जाय, तभी समञञना कि भम" ओर भर' का खातमा
हो गया 1 मोह क कारण गरभवास करना पडता ह । घर, पसा ओौर सवदश स
विरकत रहना ओर वन क वकषो तथा पशओ स मिलना चाहिए । म" ओर
(भरा' जवान पर भी न आय, एसी सथिति जिनकी ह, व सचच साघजन ह ।
सारा जगत हमारा दव ह । छकिन जो बर सवभाव क ह उनको म
विककारता ह । व काल क मह म पडग । उनक हित क लि म छटपटाता ह ।
हमारा कोई सखा नही, कोई शत नदी, हम सरल वाणी स बोखत ह, मगर
जिसम दोष ह, उस वह मरमभदी कगता ह ।
हम हाय म वीणा ओौर करताल छकर हरि-चिनतन म नाच, यही सलभ
रहसय हमको सतो न बताया ह। इस कीरततन म हौनवाल बरहमरस पर समाधि
का सख नयोछावर कर डालो इस बरहमरस-पान स हमार चितत म सशय उतपनन
नही होता, चारो मवरितया हम हरिदासो की दासिया हो जाती ह । मन इसस
विशराति पाता ह, ओर तरिविध-ताप कषणमावर म नाश होता ह ।
। ह दव, मान-अपमान तरी कषलक सपतति ह । जिनह इदरियो न दीन बना
दिया ह, जो तरी कषललक सपतति का शौक रखत हौ, उनह भय त मष बनाता
रहा । त ऋदधि-सिदधि दगा, मगर उस सवीकार कर ठ, एस मख हम नही ।
अर ठग, तन बहत-त एस लोगो को फसाया ह ।
जो दह स उदास ह ओौर जो आजञ-पादा का निवारण कर चक ठ, उनह
भवत समजञना । नारायण ही उनका एक विषय ह । उनद जन-धन, माता-
पिता पसद नही आत । एस भकतो क निरवाण क समय गोविनद आग-पीछ रह-
कर उनका रकषण करता ह । कोई सकट नही आन दता । सतकम म सबकी
४२ तकाराम-गाथा-सार
सहायता करनी चाहिए । उसम भय माना तो नरक जाना पडता ह ।
भगवान की ओर दतगति स जानवाला शदध ओर धनय ह ! परमारथ का
जञान सनकर जिसक मन म उसका परिपाक होता ह, हरिपरम जिसक हदय
म हिलोर कता ह, मौर सवहित क लिए जागत रहता ह, एसा वयकति ही दव
ह 1
परोपकारी वयकति विशदध गणो की राशि ह । दव उसक अधीन ह ।
उसका धय कभी भग नही होता ।
निषठादनत भाव भकतो का सवधम ह । इस निदिचित मम स न चको ।
भगवान म निषकाम, निरचर विशवास रखो । दसर ओर किसीका सरा
न टटोढो । स अननय भकत की किसन उपकषा की ह ?
नितय नाम छनवाछ की चरणरज कन की दव इचछा रखता ह ओौर उस
पान क लिए वह उसक पीरपीछ दोडता-फिरता ह । जिसक कठ म वकणठ-
नायक ह, उसम ओर दव म कया कोई अनतर ह ?
हरिदास की भट होन पर पाप, ताप, दनय ततकाल चक जात ह।
नाम-सकीरतन म जो आननद-मसत होकर नाचता ह, महादव उसकी चरणरज `
की बनदना करत ह ।
जो भगवान को नितय भजता ह, वही पडित ह । जो सरवतर समबरहम दवता ह, सव जीवो म राम को दखता ह, वही परम का सचचा दास ह । उसक दन
करन स दोष जति ह ।
जिसकी सपण वासनाए नषट हो गई ह, उनह ही नहयरस की मिठास की
परापति होती ह 1 जो सार भदभाव की सकगनता स नितानत मकत होकर, बाहयञान को उपायि स रहित होकर, निज सवरप का जञान परापत करन वर
भकत ओर सजजन ४३
ह, जिनका मन एक परमातमा म सथिर हो गया ह, उन निजातम-सख की कया
कमी ह ? जो सती-परषो को परमा का भान करात ह, व ही पणयवत ओर
परोपकारी ह । म उनक यहा उनका पायनदाज बनकर पडा ह ।
हम हरि क दासो को तरिलोक म कोई भय नही, कयोकि हम सक स
चछडान क लिए वह हमार आग-पीर खडा ह । हम अपन भावो स उस जसा
बनाय, वह वसा वनता ह ओर वतो का काम करन क किए वह डता
आता ह । म मख स विटठल को गाऊ, ओर निरनतर उसी सख म रह ।
वषणवो म मवित का दारिदरय नही ओर व ससार की भोर भी नही
दखत । गोविनद उनक चितत म टकर बठा ह । आदि, मधय, अवसान म
वही ह । उनहोन अपना सरव भोग नारायण क अपण कर दिया ह, ओौरव
उसीका नितय मगल-गान करत ह
उनका बल, बदधि परोपकार क ही किए ह 1. उनदन नामामत स पट
भर लिया ह 1 व दव सरीख ही दयावनत ह । व अपना-पराया नही दखत 1
उनका जीव ही दव ह । जहा व रहत ह, वही वकणठ ह ।
जिसक चितत म अहकार नही ओर परपच का तरास नही, वही तयागी
ह । यदि तयवत वसत का धयान रहा तो यह सब विडमबना ह । भल-वर का
आप सवय विचार कर, बतानवाला ओर कौन मिलगा ?
जिनको हरि परिय ह, वह परष हो अथवा सवी, मञच भगवान क समान
ह । उस भकत को म तरम स नमसकार करगा । जिसका अनतःकरण निरम ह,
उसीका अनतरबाहय कोमल ह । उसीकी सगति म मरा सब समय जाय तोडइस
समय की परतयक घडी मर लिए मगलरप ह । म अपनी जान उसपर नयोा-
बर करद ।
हरि क दासो को भय ह, एसा कोई न कटो । भगवान उनक सामन
खड होकर उनकी इचछाए परण करत ह । हरि क दासो को किसी भी परकार
द तकाराम-गाया-सार
की चिनता हो, यह असमव ह । भगवान उनको अनन-वसतर, आदि सव-कछ
द दत ह ।
हरि क दासो क यहा हमशा सल का कललोल होता रहता ह । जहा
हरि क दास बसत ह, वहा पणय फलत ह ओर पापो का नाश होता ह । नारा-
यण उनक रकषण क लिए सदशन लिय फिरत ह । हरि क दासो क यहा काम ,
करन क लिए दव सवक बनकर रहता ह ।
हमारा सवदश तो वरिरोक ह । हमारी निगाह म कोई दषट नही
ह 1 हमम ओर दसरो म मद नही ह 1 ठरिनामही हमारा घाम ह।
जिस परकार बालक का सब बोजञा मा पर होता ह, उसी परकार मरा
सारा वोजा तम सतो पर ह ।
वही पवितर ह जो विकलप की जड उखाड फकताह । जो बाहरी ठाठ
दिखात ह, व गनदगी स भर हए ह । जिसकी वदधि तरिकाल सावघान ह, वही आतमाराधन कर सकता ह । जो सदहगरसत ह, व परकति क बधन म ह । जो समबदधि समाधानरप ह, वही अखड धयान सचचा ह । अपना चितत
ओर वितत उसक हवा कर दो ।
जस आकादा सवतर सपण ह, वस ही सतो को समञञो-- गगाजल, अमत, सरय, हीरा, कपर ओर चिनतामणि की तरह विशदध ।
मकतिमान क आग बलवान का भौ ब नही चरता । उसका बल राम ह । वह मकत जहा वठगा, वहा सवशकति विना बलाय आती ह । वह की भी रह, उसको ओर कौन बरी निगाह स दख सकता ह ?
शदवावान भोङ भकत कौ सथिति कभी नही बदलती । शष अपना पणय कषय हो जान पर षट हौ जात ह । कवर विषणदास ही गरभवास क दःख को नही जानत । विवा का नाम ही अचछा गौर सचचा ह ।
क
सकत ओर सजजन। ४९५
भकतजन जसी इचछा करत ह, दव वस ही नाचता ह ओौर उस दव क
सकमार चरणो का व वनदन करत ह । भकति की अभिलाषा म व मवति को
भर जात ह । जिस मागन कौ इचछा नही ह, मगवान उसका साथ नही
छोडत 1
जो कोई मागत नही, उनदीकी सवा करन क लिए दव दौडता ह ।
वह दीन रप चारण करक भकत की सवा का ऋण धीर-धीर उसीकी सवा
करक चकाता ह । उन भवतो स वह एक कषण भी अलग नही रह सकता ।
` सचमच, जिसम भविति-भाव ह, वह दव का भी दव ह ।
हरिभकतो क यहा मोकष ओर सिदधिया दासिया बनकर रहती ह ।
जो मन, वचन, काया स भगवान क दास हो गए द, उनह काम-करोच
की वाधा नही होती । जो सवामी पर विशवास रखता ह, वह उसपर अपनी
सतता चलाता ह ओर उसक समसत एशवय का भोकता वनता ह । हम अपना
चितत निरमर कर लग तौ वहा गोपाल आकर रहन रगग 1
जो अरथ, दह, पराण सवक छोड द, वटी हरि को जीत सकता ह
मोह, ममता, माया, चिनता छोडकर विषयासवति को जला डाङना चाहिए ।
लोक-खाज, अभिमान, मतसर का नाश कर दना चादिए । शाति, कषमा, दया
स मितरता कर उनह भगवान को बलान सविनय भजना चाहिए । अपनी
जाति ओर विदवतता का अभिमान छोडकर सतो की शरण जाना चाहिए 1.
जो किसीस कछ नही मागता, वही दव को परिय लगता ह । उसौको
दव समञचना चाहिए भौर उसक (चरणो म रीन रहना चाहिए । जिसक मन
म मतदया ह, उसक घर चकरपाणि रहता ह । म निङचयपरवक कहता ह
। कि उसक समान कोई नही ह।
जो सतो की सवा करन म जी चराता ह, उसकी ओर मरी दषटि न पड ।
४६ तकाराम-गाथा-सार
जो सतो क चरणो म अपना भाव रखता ह, उसस भगवान अपन-आप आकर
मिलत ह ।
साधक की दा उदातत होनी चाहिए । अनतरवाहय कोई उपाधि नही होनी
चाहिए । वह खोलपता छोड, निदरा को जीत ओर भोजन परिमित कर ।
एकानत म मथवा कोकानत म ाणो पर आ बनन पर भी सतरिथो स न बोल । एसा साधक ही गर-कपा स जञान परापत कर सकता ह ।
ससार की तमाम माया दव को अपण करक जो कोई उसकी भकति करगा,
उसकी भकति दव को अतयत परिय खगगी । परारबधानसार परमातमा जिसको जिस सथिति म रख, उसम समतापरवक रहना चाहिए । म तो अपन योगकषम
कासाराभारदव क सिर पर डाल दगा ओर अपना तमाम ससार उसक चरणो म समरपित कर दगा ।
जो दव की अननय भाव स शरण छत ह, उनह उततम जाति क जानना । जो हरि क शरणागत हए ह, उनक हदय म हरि का सवरप रवारव भर गया ह, ओर किर छलक पडता ह--उसम बरहमानभव कौ सलक दिखाई दन लगती ह ।
हरि क भकतो को यपन मन म भय तो लशमावर भी नही रखना चाहिए 1 कारण कि जिनक नारायण सरीखा सखा ह, उनक निकट ससार का मलय
हम अपन मन को हमशा सतोष-अवसथा म रख । ८
वरागय का उदय सतसगति म रन स होता ह । सनत साधकरो को अपन ससरग स निषपाप वना दत ह । £
सजजनो क दशन म गभ वचन सनन को मिलत ह। व वम-नीति का परतिः पादन करत ह । उनक परति करोध रखन स हित नही होता । अतयत मद ही अचछा होता ह।
{ ट
(
भकत ओर सजजन ४७
मर मन को परिय लग .ठस मर सचच सवधी तो हरिभकत ही द । निधन
` रहना ही उनका अदौभागय ह 1 उनका धथ कभी भग नही होता । जव उन
भखःपयास रगती ह, तव भी व अपन चितत म दव का ही समरण करत ह 1
नारायण ही उनका धन द 1
जो सचच कलीन होत र, व अपन मन की ऊची सथिति स कभी नही
डिगत । उनक हदय म जो भाव होता ह, उपतको व अपन वाहय आचरण म परकट
करत ह । उनका विचार ओर बरताव एक होता ह । उनम अपवितरता का
दाग कभी नदी कगता । उनक रस म भग कभी नही पडता । हीरा घन को
चोट स नदी फटता ।
जिनहोन परमारथ क रासत परयाण कर दविया ह, जो आ पडनवाल
आघातो को सहन करन का मनोव रत ह व हो सञच शरवीर द ।
जो अपन चितत को शदध भाव स दव क अरपण करक उसकी शरण म
जात ह, व दव क समसत परकार क वभव क मालिक हो जात ह । दव उनह
अपन स दर रखता ही नही द ।
सतो दारा आप मञच अगीकत करा द, तो फिर बरहमजञान गिडगिडाता
हमा चला जायगा, परनत भगवान क भवत उस गरहण करन की जयादा उता-
वरी नही करत । व सनत बरहमजञान स अरग भागत-फिरत ह ओर तरहाजान
उनक घर म जवरदसती घस जाना चाहता ह 1 जो बरहमजञान अति परयत करन
पर भी नदी मिलता, वह उदासीन वततिवालो क गल पडता जाता ह ।
जिसक अनतःकरण म दव का वास हजा, उसक ससार क ऊपर तो 7तथर
पड गए समदञो । दव उसक ससव का नाश कर उस अपनस अलग नही रहन
दता । उसकी वाण को दव असतय, आदि गदगी म नही पडन दता 1 जिसको
दव की सगति हई, उसका मनषयपना गया । दव उस किसी परकार कौ आदा
या नमता क पार म `धन नही दता । जिस दव की परापति हो गई इ, वह एसा
४८ तकाराम-गाया-सार
सववता हो जाता ह कि सार जगत को अपन वडा म कर लता ह । य सव दव-
परापति क रकषण ह 1
जिसका चितत हमया सतषट ओर निरम रह, ओर जो योगय परसग को
तथा योगय काल को पहचानता हो, उस सनत जानना । +
, म वन म जाकर रगा ओर जिन-जिन वकषौ क पतत खान-योगय होग
उनट तोडकर खाऊगा । रोष सार समय विटठल का चिनतन किया करगा 1
वकषो की छार का वलकल बनाऊगा ओरः इस परकार दहाभिमान को जला
डालगा । परसिषठा को वमन (उलटी) क समान समजञकर विदटल परापति
क लिए एकानत सवन कारगा 1 जहातक हो सक, म परपच क तिपरम नही
रखगा जर अरणयादि सथरो म रहकर एकानतवास का असयास करगा ।
जिसका एसा निरचय ह उसक परापचिक दःख-दाणिदरिय का नार ह जाता ह ।
जिसन यलनपवक उपाधियो का नाश कर दिया हो, उसन सववर स
दव को हसतगत कर लिया समञजना, जिसन घन ओर जन का तयाग कर
दिया हो, वह सवय जनारदन खय हौ गया ह । इसम उतावरी काम नही दती ।
इसक रस की परतीति अनतर क अनभव स होती ह ।
हरिभकतो को किसी भी परकार का भय तो होता ही नही । उनह कोई
चिनता भी नही होती, कयोकि भगवान उनक समसत दःखो का निवारण
करत रहत द । परम उनक शरीर स दःल-दाणटिय का सपश भौ नही होन दत । जो समसत जगत म वयापक ह, वही एक विदवमभर मरा सखा हो
1 “
जिस दिन मञज हरिभकतौ का दरशन होता ह बह दिन मञच दिवारी-
दशहरा क समान ह ।
मकत जो कछ बोलता ह उस तरफ भगवान धयान दत ह । भगवान अपन मवतो की भकति स वव गय ह ।
मकत ओर सजजन ४९
दो म शवर क विषय म मसीम लिखा ह । सार इतना ही ह कि
भगवान की शरण जाना ओौर निषठापरवक उसका नाम लना । बारह
पराणो का भी यही सिदधानत ह । ८
सचच सनत काम-कोधादि का अपन हदय स सपश भी नदी होन दत 1
जिसक मन म हरिनाम बस गया ह अकला वहौ तरता ह, ओौर सव
उसकी वनदना करत ह 1
कतरम दयाभाव रलकर लोकोपकार करना दी जिसका कलघम
हो, उसक टाथ म सब साधनो का सार आ गया समञलना 1
जिनहोन सबकछ तयाग दिया, व तौ सदा क किए सखी हो गए । अगनि
को किसी शरकार की अपवितरता नही चती । सतयभाषौ लोग सासारिक
काम करत हए भी ससार स अकिपत रहत ह । परोपकारी म आतमसथिति
क] उदय हआ समननना । जो परगण-दोप-विषयक टीकाए न तो करता ह
जओरन सनता ह, वह जगत म रहत हए भी जगत स अरग रहता ह ॥
परमारथ परापति का सचचा. मम समन विना सारा परिशरम वयरथ ह!
जिसम वासतविक बराहमी-सथिति का उदय हमा ह, उसस तो एक
तिलका भी नही टटता, तो फिर जीव का वध तोकर ही किस परकार
, सकता ह ?
जिनक ससग स परम म वदधि ह, परम होतो दना हो जाय, उनहहीम
मनत कहती ह; जर जिनक ससग म आन स ईशा-तरम घट जाय, उनद म
दरजन भौर काल-मख कहता ह । ॥
। ; परमारथ-फर का सवन करनवाला कभी किभीक साथ वाद-विवाद
म नही उतरता । `
५० तकाराम-गाया-सार
सनतो की सगति ही सल ह । भतमातर म परमातमा समान रप स
वयापत ह, फिर भी विषमता को सच मान लना ही दःख ह ।
जिस परकार कोर शरम करनवाल किसान कौ अचछी-स-अचछी फसल
होती ह, उसी तरह जो परिभरम उठाकर भजन करता ह, उस ही हरि की
परापति होती ह । अपना हित करना-न-करना आपक हाय मह।
जो एक बार भी हरि को जीत ठ उसका सख सवस अधिक समञचना ।
जिनहोन अपना तन, मन ओर धन शरीहरि को समरपित किया होता ह,
उनहीक पास वह रहना पसनद करता ह 1 जो हरि कौ कीति का वरणन करत
ह व समरथ ह । शष सव, चाह व चकरवरता हो, कगार ओौर दयापातर ह ।
बरज क गवाल भकत ओर निरमिमानी थ, इसीलिए उनको दव कौ
परापति हई ।
जो भगवान को नही मरत व ही सचमच उदार ओर दानवीर ह । इसस उनको कीति सरवतर फल जाती ह ।
हरिनाम-समरण करनवा अविनाशी-पद को पात हः ओर उनह सब परकार क सख की परापति होती ह । सव सख का अनभव उनक अनतःकरण म होता रद, तो फिर उनह वाहरी सखो की दरकार भी कयो रह ?
चाह दराचारी हो, मगर जो वाचा स हरि का नाम कता ह तो म मन- वचन-शरीर स उसका दास ह । हरि क गण गान म चितत म माव न हो तो भी कोई आपतति नही । जो अनाचार करता ह, मगर वाचा स हरिक नाम का उचचार करता ह, अपनको हरि का दास कहता ह, वह धनय ह--चाह शदध कल का हौ या चाडार धरान का ।
बर कलवार लोग भी अनतापपवक हरिसमरण करन स मकत हो गए । 1.
भकत ओौर सजजन ५१
हरिभकतिरदित बडपपयन को आग रग 1 दजन मञच दिखाई न द 1
अभकत बराहमण मानो राड का पतर ह । उसका मह जल जाय । चमार वषणव
हो तो उसकी मा धनय ह । उसक दोनो कल पवितर ह । यह तो पराणो न ही
कह रला ह, म अपनी तरफ स नही कह रहा ह ।
जाति मौर कल की दव को कोई कीमत नही होती 1 जो कोई उसका
अननय मकत होकर रहता ह, उसक साथ वह भी अननय भाव स वरतन
करता ह ।
5
भगवान ओर उसकी भकरित
एक भगवान क सिवा ओर किसीकी सतति करना हमार किए बरहम-
हतया क समान ह 1 म विषणदासो का एकविव भाव ह 1 हम दसर को दव कभी नही कहनवाछ । अगर स वचन स पल, तो मरी जवान शतखड हौ
जाय । अगर मन म किसी अनय दव का सकलप काऊ, तो मञञो जग क सब
पाप रग ।
सतो का अतिकरम करक दवपजा करना अधम ह । दव को सनाय गए मतर ओौर चढाय गए पषप, दव क सिर पर मार गए पतयरो क समान ह ।
यदि कोई अतिथि को तयागता ह मौर दव क किए नवदय तयार करता ह, तो एसी भद-वदधि स कौ गई दव की सवा सवा नही, ताडना ह ।
सतो की सवा करनी चाहिए । कारणः, वह दव को पहचती ह । उसस
“सव कारयो की सिदधि होती ह । मवत दव क ही अग ह। धरम का मम
यही ह ।
मगवान का आशरय लन पर तमह मबित कौ चिनता करन को आवदयकता नही ह 1 तव तमहार अनदर दनय-दारिदरय भी नही रहगा ।
दव मर आग-आग रहकर सार भोग मोगता ह । म सव कतततव-
मोकततवरहित होकर यो ही बठा ह । आजतक मर पीछ खग हए शभागम
करमो क सख-दःख का निरसन करन ओर भोगनवाला दव ही ह इस जञान स होगया ।
(जीव ओर शिव' का ख करता न लीला स ही किया ह । सारा आभास
मगवान ओर उसको भदित ५३
अनितय ह । सचमच तो जगत विषणमय ह । वणधरमखल ह । सवकरछ एक-
ही स बना ह, उसम मिनन-अभिनन का वयवहार कसा 2 यह निणय साकषात
वद-परष नारायण न किया ह । उसी परसाद का रसाननद म परपत हजा ट ।
इसङए भगवान क चरणो क पास ही मरा वास होगा । उनस म कभी जदा
न. होऊगत-+-
नारायण की कपा स विषवत दःख अमतवत सख समान हो जाता ह ।
निततमान हरि क सवक होन स हम भी शकतिमान हौ गए ह । ससार
को लात मार दी । काम-करोवादिक छौ ऊभियो को नषट कर दिया । जन,
घन, तन को तणवत कर दिया । अब हम मकति क मसतक पर ह ।
इस. कलियग म दसरा उपाय नही चलता । भगवान क चरणो की ही
शरण गहनी चाहिए । उसक पट म सब पणय ह, ओर उसस सव पापोका
नाश होता ह । उस लन क लिए समय ओर कार दखन की आवशयकता
ही, न किसी तयाग कौ ।
खान को न मिल; सनतान न बढ; मगर नारायण कौ मकषपर कपा
रह । मरी बाणी मश एसा उपदश करती रह ओर दसर छोगो स भ यही
कहती रह । शरीर की विडमबना हौ या विपतति आव, मगर मर चितत म
नारायण रह । यह सब परपच नाशवत ह, इसलिए गोपाल को हमशा समरण
करन म ही हित ह ।
माव ही भगवान ह ।
जहा-जहा जो-जो भोग परापत हो, व सब हरि ही भोगता ह, एसा समजञ
कर हरि की सवा म समपण करना चाहिए । इसीको सहज पजा कहत ह ।
निरभिमान रहना चाहिए । जीव न कत तव-मोकततव का अभिमान न रखा
तो दव उसस अङग नही
५४ तकाराम-गाया-तार
आग-पीछ, अनदरबाहर, सरवतर अगर दव ही ह तो हरि क दास को भय किसका ? दव क पास काल का बल नही चरता । उस घनी क यहा कमी किसिबातकीटह ?
दव अपन एकनिषठ भकत का भार अपन सिर पर लकर उनक योगकषम की चिनता रखता ह । अगर भकत माग स मटका, तो वह उसका हाथ पकड कर सरल माग दिखा दता ह ।
एक भगवान क चिनतन स कया नही होता ? भगवान का चितन सरव- साधनो का सार ह ओर वह भवरसिष स पार उतारनवाङा ह ।
जिस पद की हम इचछा करग, भगवान हम उस जगह ल जाकर पहचा दगा 1 उसका चिनतन कर तो वह चितत को अपन सवरप स ओतपरोत कर दता ह । इचछित फल की परापति क किए शरीर म मगवचचिनतन का बल चाहिए । तब सिदधि उसकी चरण-सवा करती ह ।
मगवान की चाकरी करन स इचछा पण होती ह ओर आतमा को अपना परम पद परापत होता ह ।
भगवान ही मरा दव मौर भगवान ही मरा गर हो गया ह । वह भरी अभिकाषाए पण करता ह ओौर अनत म अपन पास बला लता ह । मकत क पीछ-आग खडा रहकर वह उनह सभारता ह, गौर उनपर आनवाक सकरय को दर करता ह मौर उनह योग-कषम दता ह । उनह रासता दिखलाकर मोकष- माग पर लगाता ह ।
बहत-स विदवान तकशासतरी होत ह, मगर भगवान का पार उनह नही मिकता । बहत-त पाठ-पाठनतर कन स ओर अरयो का विचार करनस मी मगवान को महतता उनह नही अनभत होती । भोलपन क विता भगवान का लाभ नही होनवाला । जञान क मापस उस कितना ही मापो, वयरथ जायगा । “
~~~
भगवान ओौर उसकी भकति षष
धीरज धरन स नारायण सहायक होता ह । वह अपन दासो पर शरम
नही पडन दता, ओर चिनता भी नही करन दता । हम आननद स कीरतन कर
ओर हरि क गण गाय ।
सचित कम ज सकत ह । भगवान क चिनतन स पापमल तथा ताप-
जार नही रहन पाता ।
भगवनि का धयान अनतःकरण म करना, यही उसका मखय पजन ह ।
इसक अलावा सब उपाधिया पाप ह । सहज सवरप सथिति एषी सथिति ह
जिसस कभी जी नही ऊवता ।
जञान की वात कहना भी कठिन ह, तो हदय म अनभव कस आ सकता ह ? इसङए अजञ जीव अगर हरिभजन ओर हरिकथा म समयक परकार
स चितत रगाय, तो उनक दःख का परिहार होगा । वन म जान स समाधान
नही होता ॥
उदरःपोषण क योगय काम करना चाहिए, परनत विशष आतमीयता
तो नाम की ही रह । चितत म भगवान का धयान धरन का ही काम कर । दव
की सवा म जड जान की ही भावना भागयवानो को करनी चाहिए ओौर यह
सारी बल-बदधि खच करक करनी चाहिए ।
भगवान का नाम ककर भीख मागना खजजासपद ह । एसा जीवन नषट
हो जाय । भगवान एस लोगो की हमशा उपकषा ही करत ह । दव क परति
भकति-माव हए विना, जीव को हरि क समपण किय विना, बाहरी भकति
दिखलाना वयभिचारवत ह । विषयचछा स दीन होकर दनिया को बोकषिल
करना ही अभागय ह । इसका कारण दव क परति अविवास ह । सचची शरदधा
हो तो विदवमभर कया-कया न कर दगा । उसक चरणो को दढता स पकडना
ही सार ह ।
६ तकाराम-गाया-सार
हरिभकति क भाववल स हरि क भकत अविनाश ह । योग, भागय,
व शकति उनक घर चकर आती ह ।
ह दव, अगर भकति-सख का अनभव नही आया तो म जञान लकर कया कर ?
. अब दव क अतिरिकत मजञ कछ नही बोलना, यही एक नियम कर वयाह काम करोध को दव क अपण कर दिया ह ।
जो हीरा घन की मार स नही एटता, वह अचछी कीमत स अगीकार
किया जाता ह, उसी तरह जो जग क आघात सहन करता ह उसको दव अपना बना ठता ह ।
जहा अपनी मान-परतिषटा ह, वहा मपनी अपरतिषठा करक पचभतातमक नषट दह की विडमबना कर डालनी चाहिए । एसा करन स घर-गहसथी कस रहगी ? जिसका हरि स परम ह वह तदरप हो जाता ह ।
बिना भवित का बरहयजञान बिना शककर क दष क समान ह । विना . नमक क अनन रचिकर नही होता । अनध को कछ सिखा तो वह उसका नाममातर जानता ह । तर .का सार भाग उसक तार ह ।
हम जसी भावना करत ह वसी दव कौ दन होती ह, इसकिए यल करन स.कया नही हो सकता ? कपासिनध भगवान अपन दास की उपकषा नही करत; वह उसक अनतर की वयया जानत ह । छोटा वारक मा स मागना नही जानता मगर मा उसक हदयभाव को जानती ह; ओर उस किसी तरह का दःख न हो, एसा करती ह । मन इसका अनमव ह; कोई अनयथा बोठ तो म नही मान सकता ।
यह नारायण जीवो का जीवन ह, अमत सवरप ह, बरहमाणड काः भषण
भगवान ओर उसकी भकति ७
ह, सखद सगतिवाला, ओौर काल का भौ काल ह । वह निज भकतो क¡ रारण-
सथान ह, माधरी का माधरय, आननद का कौतक भौर परीति क पयार ह । वह
परम, माव का निजभाव ओर नाम का भी नाम ह । वह सव सार-का-सार ह।
यदि त ही नही मिला तो कोर बरहमजञान का म कया कड १ ऋदधि, सिदधि,
-शासवनिपणता तर बिना मार ह 1
ह परभो, म तरी चरण-सवा सावन क लिए जनम ल । हरि नाम कीततन,
सतपजा किया कर भौर तर दरवाज पर लोटा कर । आननद स परिपण
रहकर म कही मी रह । सख-दःल कौ म इचछा नही । न कोई दसरा उपाय
कर, न आशा रख । सव परकार स उदासीन रह तो जसा-कह-वसा काम
करनवाली दासी बनकर मोकष मर घर रदगा ।
जञानावसथा स म बहत डरता ह । ह नारायण, वह मर निकट न आव।
आपक, भविति-सख की समता कर सक एसी तरिरोक म कोई चीज नही ह ।
अरष-निमिष सतसगति का कलप क अनतपरयनत बकणठ म रहन क समान ह ।
सतसग करनवाक क पास मोकष आदि पद बचार विशननति लन क किए
आत ह । मकष अखणड भकति द ।
चातक पथवी पर भर हए जल की ओर न दखकर पराणो को कठम
रखकर मच की बाट जोहता ह 1 सरय स विकसित होनवाली कमलिनी चनदरा
मत न छकर सरयोदय की भतीकषा करती ह । गाय अपन वचच को छोड दसर
बड को अपन पास नही आन दती । पतिवरता को सवभाव स अपना पति
ही परिय होता ह । इसी परकार एकविष-भाव स धपरवक पराणोतसग होन
पर भी नियम न छोडन का दढ निशचय हो, तभी मर विठोवा की बात छड ।
` भवत क अनतःकरण का भाव दव जानता ह ओर उस परण करन का
उपाय करता ह । कहन-मागन कौ जररत नही ह । जी-जान स घयपवक
उसका अनसरण करक अविनाशी फल की परापति कर छनी चाहिए । वालक
५८ दकाराम-गाया-सार
नही मागता, फिर भी मा उस बलाकर भोजन दती ह । उस दव का आशय
लकर कितन ही पगगो न गिरि पार कर दि ह ।
अननय भकत अजञानी भी हो, दव को अतिशय परिय ह । उपमनय, धरव
ओर परहवाद कया जानत थ ? उनक चितत म नारायण बसा हआ था । परम सवय भोला भकत ह मौर हमन उसक चरण पकड रख ह ।
भकतिपय बहत सरल ह; वह पणय-पाप रहित ह, इसकिए जनम- मरण नाडक ह । भकतिपथ पर खडा ह विठोवा हाय उठाकर बलाता
ह ओर अपन मह स कहता ह कि भकतो का सारा भार म उठाता ह । वह अपन भाविक भकतो को पार उतारता ह ओर कतकरियो क सिर फोडता ह ।
हमारा मन वीरज नही रखता; वरना भगवान क पास कया कमी ह ? हरि पर सव वोजञा डालन पर वह दास की उपकषा नही करता ।
दवयोपाजन क किए हम जमी चषटा करत ह, वसी हरि-परापति क किए करनी चाहिए ॥
भगवान क चरण तमाम तीरथो क उतपतति सथान ह ओर लकषमी जिन का सवन करतौ रहती ह, सब सत अपन अनतिम विशरानति-सथान क रप म उनह ही माग ठत ह ।
दव को अपना बनाय बिना जीव को सख नही मिलनवाखा । दव क चिना सबकछ मायिक मौर दःखद ह । उसक परारमभ स अनततक दःख ही भरा हमा होता ह ।
कोगो की सतति करन स अपन आयषय कौ बरवादी होती ह 1 एसा करनवाला नारायण स विमख हो जाता ह मौर उसम स सव परकार क
भगवान ओर उसकी भकति ५९
पापो की उतपतति होती ह । दव की सतति क सिवा कछ भी सनन स पाप रगता ह ।
भगवान को भकतो कौ अटपटी वाणी भौ अतयनत परिय लगती ह । वह उनकी समपण इचछाए पण कर दता ह ।
चितत क मतसर को दर करना ओर सखरप होकर रहना यही विशवमभर
का सचचा पजन ह ।
यडा, शरी, ओौदारय, जञान, वरागय ओर एडवय, इन छह गणो स यकत
कवर भगवान ह ।
दव क पास मोकष की पोटी बधी हई नही ह कि जिसम स वह मोकष निकालकर तमहार हाय म रख द । विषयो स मन भौर इनदरियो को खीच
जना ओर इस परकार निविषयी हो जाना ही मोकष का सवरप ह ।
राम अपन भकतो क पीछ-पीछ दौडत ह । राम क सवक उनक गल म रससी बावकर जहा चाह ल जात ह । राम अपन सवक को परमारथ क रासत
स भटकन नही दत । व कभी असावधानी स गरत रासत चक जाय, तो राम
उनका हाथ पकडकर उनह परमाथ क समयक, माग पर लगा दत ह ।
नारायण अपन अनय भकतो को इचछा रखत ह, ओर यदिव रक हो
तो उनको अपनी पदवी तक दकर निहार कर दत ह ।
दव का सवभाव एसा ह कि जबतक अपना काम परा न हौ जाय तव- तक सवय कया करना चाहता ह, इसकी किसीको खबर तक नही होन दता ।
नारायण जव कपा करग तव यह परापचिक जञान ही बरहमरप बन
जायगा । जव दव अपना सवरप वता दगा तव जीव-दशा म पडा ही नही
रहा जायगा ।
६० तकाराम-गाया-सार
दव को पचान का साघन एक भकति-भाव ही ह । सक सिवा ओर
किसी साधन स उसकी परापति नही हो सकती 1
जिनम शदध भाव ह उनक लिए दव सरवतर मौजद ह, ओर जो भावहीन
ह उनक हाय वह कभी आनवाला नही । दव-रहित कोई सथान ह ही नही,
एसा जिसका अनभव हो गया, वह सवय दव-हप हौ गया ।
नारायण का सवभाव एसा ह कि अपन भकतो क सकट, समरण करत
ही टाक दत ह । अननत भगवान फल की सिदधि परयनत अपन मकतो कौ मदद
करत हः ओर उनह निरधारित सथान तक पहचा दत ह 1 भकतो का तो इतना
ही कततवय ह कि सवतोमाव स नारायण की शरण क 1:
भगवान परणकाम ह । उनक गणो म सबस मखय गण दया ह।॥ दयाक
तो मानो वह समदर ही ह । वह अपन भकतो को किसीपरकारकाशरमया कषट
नही करन दत । उनकी उदारता दख तो सवय लकषमी को उनकी दासी पात
ह; उनकी शरवीरता दख तो कलिकाल को उनस परासत पात ह; चतर इतन
कि सव गणो की रारि ह; पागल इतन कि जिसम माव दखा कि उसक सवक
बन गए 1 अपन भकतो का जठा खा जान का उनह बडा शौक ह । वह जीव
मातर म वयापत ह, फिर भी उनद कोई जान नही सकता । वह सबस धरषठ ह।
"भ प कगकवष
६.९ 4
भजन ओर कीततन
यकताहारादिक किनदी साधनो कौ आवशयकता नही ह । तर जान का
अलय साधन नारायण न दिखाया ह, वह यह कि कलियग म कीरतन करो,
उसीस नारायण भिर जायगा । कौकिक वयवहार छोडन का ओर वन म
जाकर मभत लगाकर दड लन कौ जररत नही ह । हरिक नाम को छोड-
कर सब उपाय वयरथ दिखत ह ।
हरिकीततन स हरि की कपा का परसाद मिलता ह । वह दर हो तो निकट
आ जाता ह । म यह मम तमको तरनत वतलाय दता ह कि तम अपना
मन अपन हित क माग म रगाओो ।
परम-कीरतन को छोडकर म शाति, कषमा, दया कया जान ? अमत क
सागर म इवकर शरीर क परति चिनतित कयो रह ? मञञ जग म रहकर
आननद ह, म वन म एकात-सवन बय कर ? मष विदवास ह, भगवान मर
साथ चलत ह ।
हरि क नाम क गीत जस हम गात ह उसी तरह उनद चितत म भी
रखना चाहिए । यही बडा मदिकल ह । अनन दखन स भख नही मिटती ।
हरि की कथा वितत म रखन क लिए ही सनी जाती ह । खाय विना मल
नही मिटती ॥
जो दव तप, वरत, दानादि, बड-बड साधनो स नही मिरता, वह नाम
लन स दौडा आता ह । जिसक पट म चौदह भवन ह वह भवत क कणठ म
रहता ह \ शरीहरि भकतो का ऋणी ह । उस शसतरौ-पराणो या योगियो क
६२ तकाराम-गाथा-सार
घयान म नही पाया जा सकता । वह तो भकतो क कौततन म आकर आननद
स नाचता ह ।
हरि-कथः दव-घयान ही ह । कथा सरवोततम साधन ह । कथा सरीखा
पषय नही ह । भावसहित नारायण का नाम लन स एक कषण म महादोष
जल जात ह ।
जो भाव स कीततन करता ह, वह सवय तरकर ओरो को तिराता ह
मौर नारायण स जा मिकता ह, इसम सशय नही ।
जो पवितर हरिकया को सादर गायग-सनग, उनक दोषो क पहाड
जल जायग । हरिभकतो क पास समसत तीथ पवितर होन क किए आत ह, ओर सव पवकार उनक परो त रहत ह । हरिकथा का माहातमय अनपम ह । बरहमा भी उसक सख का वरणन नही कर सकता ।
जो कोई करतार, मदग आदि लकर परम भर अनतःकरण स हरिनाम कीततन करता हमा गाता-नाचता ह उस तदरप ही समञलना चाहिए ।
हरिमजन सरीखा आननद तो सवग म भी नही ह । हरिनाम-समरण करन स चारो परकार की मवितयो की परापति होती ह ।
यह हरिकथा समसत वररोकय म बरहमरस क रप म भरी ह । विषण भगवान उस हाथ जोड रह ह; दिवजी उसकी चरणरज को नमसकार कर माथ पर चढा रह ह । उस हरिकथा न ककिकाल को बनदी-गह म डाल
रखा ह ।
जो कोई हरि-कथा गायगा, उस ससार क दःखो का सपश भी नही होनवाला । उसक ठिए तो सारा ससार ही सखरप हो जायगा ।
हरिनाम-समरण स पाप कषणभर म नषट हो जात ह । शरीहरिनाम सकीततन कौ जहा गजना होती ह, वहा सब पाप जक जात ह ।
भजन ओर कीततन ६३
जप-तप आदि साधन करन स जिसकी परापति नही होती, वह हरि हमको उसक गण गान स मिल गया ह ।
राम-मजन करन म ही जीवन कौ सारथकता ह । राम क सिवा सव मिथया ह । राम क सिवा रोष सब नादावत ह । रामक नामक सिवा ओर किसीम क सार नही ह ।
अनय समसत मीठ रस किस काम क ? उनस इस विकारी दहकाही रकषण होता ह । परनत राम का भजन करत हए सखी रोटी खाय तो भी वह दध, शककर, मकखन सरीखा सवाद ओर पषटि दती ह ।
हरिकीततन करनवालो को उदर-पोषण की एव तरणोपाय कौ कोई चिता करनी ही नही चाहिए; कारण कि इन दोनो वातो का दायितव दव न अपन सिर कभी का ल रखा ह । दव अपन पीतामबर स भवतो का रासता साफ करता चरता ह । वह अपन भकतो क घर उनका दासतव करता रहता ह । जिनहोन मन, वाणी, ओौर शरीर दवारा अपना तमाम भाव दव को समित कर दिया ह, उनका सारा भार दव अपन ऊपर लता ह ओर उनका सारा वयवहार निभाता ह । हाल की वियाई हई गाय जस अपन वचड की ओर दौडती ह, वस ह दव अपन भवत कौ मदद को दौडता ह । भमञञ दव की परापति होनी ही चाहिए" एसी उतकठा जिसम जागी हो, उस सचचा भागयवान जानना ।
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सगण निरगण-विचार
दव भकतो को अपन नजदीक रखता ह ओर दरजनो का सहार करता ह । चकर गदा-धारी दव का यही धवा ह । निराकार ही साकार हो गया ह । जिसकी जभी इचछा होती ह, भगवान उस परी करत ह \
शसतरो का जो सार ओौर वदो की जो मति ह, वह हमारा पराणसखा ह । सगण ओर निरगण जिसक अग ह बही हमार साथ करीडा करता ह ।
सम अतिरय परम का भखा ह । इसीका उसक यहा अकार ह ।
सतो का अनभव-सिदध जञान उबदजञानियो को सवीकार नही! सत
तीवर सगण भवित-माव धरकर तर गए; मगर वह ताकरिको क अनमव म नही माया.ओौर उनहोन सगण दव का निषष ही किया ॥
शदधचरया सत-पजा ह । इसम घन या वितत नही रगता 1 सगण भकति क माग स गए तो हमारा विशरानति-सथान, हरि का सगण रप, अपन-आप भवत को खोजता जाता ह ।
सतो की सगति स दव को सख हआ; इसीलिए वह उनकी सवा करता ह । निरण दव सगण साकार होकरःसतो की पजा करता ह ओर उनको दणडवत करता ह ।
किसी गाव की सीमा बनान स पथवी क खणड नही हो जात । भवित क दिए अरपी परमातमा हरि व हर क सगण रप म आया ।
हम मौकषपद तचछ ह । हम तो मगवत-चिनतन क लिए यग-यग म जनम
सगण-निरगण-विचार ६५
लना ह 1 हमार किए दव न साकार रप वारण कर लिया ह अव हम उस
निराकार नही होन दग 1
यह सच ह कि सवर जीवो म दव अवय ह, परनत सगण दव क साकषातकार
क बिन। कोई नही तर सकतः । सबम जञान द, परसत भकति क विना वह
बरहम नही हो सकता ।
दव पाषाण का ह मौर जिस सीदी पर खड होकर उसकी पजा करनी ह बह भी पतथर की ह । भाव ही सार ह । जिनदोन इसका अनभव किया ह, व.
सवय भगवान हो गए ह 1
ईङवर सरवभाव स भकतो क समागम म रहता ह ओौर कह विना उनक
सब काम करता ह । वह उनक हदय-सपट म रहता ह गौर छोट-स सगण
आकारः म बाहर उनक सामन खडा रहता ह । भकत कछ मागग इस आशा
म बह उनक मह कौ ओर दखता रहता ह ओौर उनक मनोरथो को ततका
परा करता ह । परनत भकत अपना जीव-भाव दव क चरणो म अपण करक
कछ भी नही मागत ।
जिनहोन दव को निराकार अवसथा स साकार अवसथा म लाकर रख
दिया ह, उनको दव का बाप जानतता । दव ओर उसक भकत परसपर बडी
निकट सबध स जड हए ट ।
दव कहता ह कि म तमस दर ह ही नही, तम जसा भाव मर परति रखत
हो, वसा ही म तमहार परति रखता ह, ओर उसी रप स तमको परापत होता ह ।
भजीर होत तो ह दो, परनत उनम घवनि तो एक ही उतपनन होती ह ।
उसी परकार सगण ओर निरगण म कोई अनतर नही ह ।
सफटिक दिला म अपना कोई रग नही होता; परनत वह पथक-पथक
रगो को घारण करती दिखाई दती ह, फिर भी सब गो स अरिपत रहती ह ।
९६ £ तकाराम-गाथा-सार
उसी परकार दव सव परकार क काम करता ह मौर सवय उनस निलप रहता ह । जसा उसक भकतो क सन का भाग वसा वह हो जाता ह ओर उनकी वासनाओ को परा करता ह ।
दत का निरसन होन पर एक हरि ही अवशष रहता ह, तव उस ददन क लिए बाहर जान को आवसयकता नही रहती ।
अपनी सवरप-विसमति म सोय हए जीव, त मलतः परमातमा सवरप ह। €
यह आतमिक दषट क खलन पर तरी समञ म आयगा ।
समसत जगत को विषणमय जानना ही वषणवो का धम ह। भदाभद मतविचार, कवल अमगल गरम ह ।
मन चम-चलओो स न दखकर भी जञान-दषटि स सवक दख लिया ह । जिहवा न जो रस नही चख व सब आतम-रसना न चख लिय ह । न बोल हए बोर पारमाथिक परावाणी न सब परकट कर दिय ह । सथर कानो स जो नही सना, वह ततव मर अनतरमख मन म आ गया ह ।
(ईश) सवरप की याद करन स जीव ओौर सवरप दोनो एक हो जति ह, उसम कषणमर का मी वियोग नही होता । सारा बरहमाणड परमातमा का सवरप ह एषी भावना ही पजा ह । भगवान को एकदशीय मानकर पजना . वयथ ह ।
सवतर म ही भरा हमा ह -- भगवान न अपन सवरप की यह पहचान करा दी ह । इसकििए मः उसक सवरप क अतिरिकत मौर कछ नही दखता। मरी सथिति ओर मति दव स पथक नही ह ।
मगवान जिसका सखा ह, उसपर सारी दनिया कपा करतीः ह । एसा सबका अनभव होन पर मौ हरि की पा सपादन न करक सव जीव विषयो
सगण-निरगण-विचार ६७
क लिए हीः तिलमिलात रहत ह । दव जिसकी रकषा करता ह, उस अगनि भी बाघा नही पहचा सकती ।
भ निःशनद बरहय का ही परतिपादन करता ह । मत दहवदधि स मरकर
जीवनः पाया ह । दह स ससार म ह, आतमसस नही । सब विषय-भोगो का तयाग हो गया । म सवसग म रहकर भी निःसग ह ।
मिठास को जस सब गड ही ह, वस सबकछ दव ही हो गया ह । अनदर बाहर दव ही ह, फिर किसको भज ? पानी स तरग अलग नही ह । सोन मौर गहन म सिफ नाम का फक ह, उसी तरह दव म ओर मञषम कवल
नाम का अनतर ह, वासतव म दोनो एक ह ।
जीव शिव का मल सवरप जो भदशनय परबरहम ह, वहा जीव दिव करी समरसता ह । जीव ओर परमातमा मरतः एक ह ।
मानसिक पजा ही भगवान को परिय ह । कलपना का वह भोग लता
ह । भकति का बाहरी-खाठ-बाट उस पसनद नही ह । भगवान अनतःकरण क
भत-वततमान-मविषयत क भावो को जानता ह ।
अगर त ही विव म वयापत ह, तो म तञषस अलग कहा ह ? अगर अनदर-
बाहर कवल त ही ह तो अनदर स कया-कया निकाल बाहर फक ? ओर
बाहर स कया-कया अनदर डाल ?
निरगण स सगण दशन कन गए तो एकय-भाव म भद पदा हो जाता
९
9,
उपदश ` इस परपच-सगति म जो तरी आय वथा गई, उस हानि को त कस परी
करगा ? निन सतर-पतरो क मोह म त फसा हमा ह, व तज परयाण क समय छोड दग । जो उततम लाम ह, उसीका विचार कर ।
परसतरी को मा क समान मानन स कया खच होता ह ? दसर की निनदा न कौ ओर दसर क दरवय की अभिलाषा न को, तो उसम तमहारा कया खच होता ह ? राम-राम कहन स तमको कया शरम होता ह ? सतो क वचनो पर विवास रखन स तमहारा कया खच होता ह ? सच बोलन स तमको कया कणट होता ह मौर तमहारा कया खच होता ह ? कवल उतन स ही परभ की परापति होती ह मौर कोई कषर करन की आवदयकता नही ह ।
: जो कम किय जात ह, व फलदायक होत ही ह, इसलिए फलाशा न ` करो। 6
पतर, पल, बनध, भादि स सबघ तोडो । यह सव जजाल लगन रग, ¶ फिर उसस सवघ रलकर दोष म लिपत न होमो । आदमी क मरन पर जस हम उसक नाम का मटका फोडकर उसस निराश हौ जात ह, उसी तरह इन सवको मरा समजञकर इनक नाम क मटक एकसाथ फोड डारो । तयाग क विना भोग कभी परा नही होता । ।
जौ नारायण क अनतराय वन, उन मा-बाप करा तयाग कर दो। वाकी क सतरी, पतर, घन किस गिनती म ह? व हम दःख दनवार शतर ही ह। भहलाद न अपन पिता का, विभीषण न जपन बड भाई का, भरत न अपनी
उपदश ६९
भा गौर राजय का तयाग करिया 1 हरि क चरणकमल ही सवधम ह ; अनय
उपाय दःख-मल ह ।
मान-अपमान की गतथी खोल डालो 1 हमशा समाधान रहना ही दव
का दरशन ह । जहा शाति की बसती ह, वहा कालगति कटित हो जाती ह ।
अनतःकरण म जो-जो ऊमिया उठ, उनह शाति स सहन करन स परमा
सरम हो जाता ह ।
सपण साधनो का सार यह ह कि चितत म हरष-विषाद न हो । अधिक
शोष करन की जररत नही ह । सारा परपच ज ह । दट-अभिमान
छोड द ।
दरजन की गघ दर स भी आती ह । उनस दर रहो । उनस कभी न मिलो
न बोखो । दजन क अग म अटट गदगी भरी हई ह । उनकी वोी रजसवला
कसाव की तरह ह । दरजनो स पागल कतत की तरह डरत रहो । दजन का
अग-अग भी अचछा नही । जिस दश म दरजन हो, उस दश तक का तयाग कर
दना बतराया ह । जयादा कया कह दरजन का शरीर नरक ह ।
अगर तरा अनतःकरण शदध नही ह, तो काशी ओर गगा तरा बया कर
कमी ? परम बिना बोलना कतत क भोकन क समान ह ।
जिसक चितत म जसी वासना होती ह, वसी ही उसकी भावना होती
मन को परसनन रखो । यही सब सिदधयो का आदि-कारण ह । मोकष,
बघनः, सदगति, अधोगति, सबका मल कारण मन ह । पतथर की मतति म
दव की कलपना मन ही करता ह । मन ही इचछाए पण करनवाला ह । मन ही
सबकी मा ह । किसी वयवित म गर क कलपना मन ही करता ह 1
७० ६ तकाराम-गाा-सार
नाशवत अलकारो स करिया गया पजन कया सचचा पजन ह ? यहा सब- कछ नाशवत ह, लोगो को कषणिक का लोम दिखाकर कस फसा ?
शोक स शोक नढता ह, इसकिए हिममत करक खब धय षरो । इस जनम म थोडा-सा मी परमाय सा चया तो काफी ह।
जिसका जसा अधिकार ह, वसा उसको मारग दिखलाया गया ह । चरन स रासता मालम होता जाता ह । पार उतरन क बाद नौका को मत जला दना, कयोकि वह बहतो का पार उतरन का आघार ह।
शाति क पर सख नही ह, सिए सबको शातिही षारण करनी चाहिए! इसीस तम भवसागर पार कर सकोग । अगर चितत म काम-करोष खदबदात रहोग तो शरीर म आधि-वयाषि पदा होती रहगी । शाति धारण की, तो तरिविष-ताप अपन आप चल जायग ।
दवारचन करत समय यदि षर सतजन आय, तो दव को एक तरफ ` रखकर सत कौ पजा करनी चाहिए । .
ह जिह, सिवा मगवान क गौर कछ न बो । सब इदरियो स मरी यही विनती ह कि भगवान स विमल न हो । मर कान सिवा उसक नाम ककछ न सन । मरी मख सिवा उसक रपक कन दल । ह चितत, निङचित, एकविष, ओर अखड भाव स भगवान क चरणो म रत रह । हायपरो चलो मौर भगवान को नमसकार करो । भय कया ह ? हमारा पकषपाती नारायण ह ।
रथी परमा कस कर सकता ह ? लोम स चितत भिखारी हो जाता ह ।
अपन दहरपौ घर म दव को निरनतर बसाना चाहिए । इसस बठत,
उपदवा ७९१
सोत, खात, चरत ववत उनका सग रहगा । सस सकलप-विकलप, पणय-पाप
भी नषट हौग । सव कार भगवान क योग का सकाङ हौ जायगा ।
अगर पानी निरमल नही ह तो साबन कया करगा ? उसी तरह मगर
चितत शदध नही ह तो बोघ कया करगा ? वकष पर अगर फल-रल नही ओत
तो वसनत ऋत कया करगी ? वाजञ क वचच नही होत तौ पति कया कर ?
नपसक पति स उसकी सरौ कया कर ? पराण जान पर शरीर कया करियाः
करगा ? पानी क विना धानय कस पकगा ?
अभिमान का नषट होना ही योग ओर तप ह । करना हो तो यही करो ।
इसीस आवागमन नषट होगा ओर दह-भार दर होगा ।
अपना हित करन भ दर न कर, कयोकि काल-पतता अपन हाथ म नही
ह । जो अपना हित कर लता ह, वही बदधिमान ह ।
सरववयवहार की ओर एक ही समय त एक मन को कस वाट सकता
ह? दह को परारबध क हवार कर चितत म भगवान को दढतापरवक रख ।
उस छोडकर दसरी वात स सकलप कौ ओर मन कोन लगा) तभी तरा
परमारथ काय सिदध होगा । इस भलीभाति जानन स सहज सथिति की
परतीति गी । 9
परमारथ कौ राह जलदी छ, नही तो दर पड जायगा । करितनी ही खट
पटकी,तोभीसारओौरही ठ जात ह । परपच-मार कयो वयरथ सिर पर ढोता
ह ? जबतक आय शष ह, तबतक जलदी कर । अर ओ बवचक ! तकस'
परमारथ का एक भी धकका सहन नही होता तौ त परमारथ-मख को कस परापत
करलगा ?
उस रासत चलना चाहिए जो कि जहा जाना ह वहा पहचा द । वहा
(न की बात वहा पहचन पर वयरथ हो जाती । मजो परो
७२ तकारामगाया-सार
पडकर बोलता ह सो सनो । कया भवित-भाव ही वहा जान का रासता नही ह ? मन म उतकठा होनी चाहिए ।
तमम पानी हो तो शर बनो, वरना सीध-साद मजदर बनकर मज- दरी करो; परनत दोग न करो । थ
जिसक अनतःकरण म सतो क वचनो पर , विरवास हो, उस उपदक करन की जररत नही ह ।
दरवय का काल पीछा कर रहा ह, इसीिए उसका सग करना मिथया ह । दरवय नरक का मल ह । परारनध स मिरनवाला दःख-सख नही टक सकता, इसङिए किसी फल कौ तषणा रना वयय ह । परमय को सादर शरवण करो ओर नितय टिकनवाल परमा घन को ठत रहो ।
अनतःकरण म हरि का धयान करक सख स तपत हो । मह स कया वड- बड करता ह ? जबतक अनमव की मिस नही चखी, तवतक विधिनिषध की माया-पचची करनी पडती ह । मौन धारणकर अपनी बदधि को सथिर करो, यही साघन की सिदधि ह ।
तम सवय नकट हो । शरो पर गससा कयो करत हो ?
मनषय को चाहिए कि अपन निरवाह भर क कए काम कर। चितत म हमशा सतषट रह, यही नारायण क अनतःकरण म आ जान की पहचान ह । हमशा भातम-विवक स काम कर । अनतम होन स मातमा कौ परतीति होन लगती ह ।
यकत आहारःवयवहार हो; इनदरिया नियमित रह; -बहनिदरा, वह- भराषण न ही । परमाथ महा धन ह । अपनी दह दव क समपण कर ध
द, उसका छ मी मार अपन पर मत रख । इसस सव आननद होगा। ।
उपदशा ७३
परदरवय ओर पर-नारी ही गदी चीज ह । जो इनस रर ह वह पवितर
` ह । गय-पदय क गरनथ किखकर दसर क पस हरण करन की चषटा न कर । उसस अपनी बदधि निकिपत रख । पाप-पणयातीत पजी इकटठी करनी चाहिए । वन म न जाओ; विव ओर विडवभर समान ह 1
ए मर दरगति करनवार मन, तजञ कितना समषाॐ ? त किसीक
सीछ-पीछ नः लग । अनय क परति किय गणए सनह स दःख होता ह । जग क परति निषठर होन म ही हरि का परमसख ह । विचारकर दख ओौर वअ की
तरह कठोर हो ।
हाय-पर अगनि की खराक ह, इसलिए हरि-भजन छोडकर इनका पालन
कयो करत हो ? भकतिभाव की जगह खञजा या खौकिक वयवहार का
विरचार न करना । जो इसपर हसता ह, उस बरहमहतया का पाप रगता ह ।
कथा क समय जो कथा-शरवण म मन पिरोता ह, वह दववान ह बाकी क
` छोग पतयर ह जो मनषय का जनम लकर आ गए ह ।
सब जग दव ही ह तो भी उसक सवभाव कौ ओर न दखकर उसक पर
ही पडना चाहिए । अगति का सौजनय शीत-निवारण ह, उस पलल मन
बाघो । सरप, विचछ नारायण ही ह, तो भी उनह दर स ही नमसकार करो
हाय न लगाओ ।
त भगवान का समरण करता रह । कार तरा दा हौ जायगा । माया-
जाल का बनधन टट जायगा । समसत ऋदधिया-सिदधिया तर कहन क अन-
सार करनवाली हो जायगी । सब शासतरो का यही सार ह । यही वदो.का
मखयाथ ह ।
त निशचल बठकर उसका षयान कर । ` वह तकञ अन-वसवर दगा ।
हम अधिक सचय करक कया करना ह ? सरको पति करनवाला दव हमारा
ऋणी हो गया ह । वह बडा दयाल व मायाल ह, भकत कौ जररत जानन-
७४ ४ तकाराम-गाया-सार .
वाला ह । शरणागत स लाड कडाना भी जानता ह । उसस मागना या
कहना नही पडता, कयोकि जिसकी जसी इचछा ह, उस वह जानकर परी
करता ह । ल अपनी वाणी को विटठल क नाम का जलकार पहना, इसस
त सवय ही दनिया म विटठल हो जायगा ।
हरि भजन मर परारवव म नही ह, एसा मत कह । र मढ, एसा मत कह
कि मरी दह विषयोपभोग ॐ किए ह । ह चाणडाल, एस। न कह कि नर-
दह परमाथ करन क लिए दव ह । इत मलो को कहातक कह ? भरी
नही सनग तो आखिर मह म धल पडगी ।
सवचछद जग की सवा कौ इचछा न रखो, कयोकि उसस दव की अवजञा
होती ह । दह का निगरह करनवाला दव ह, दह उसक हवाल कर . दनी
` चाहिए 1
जिन वचन स नारायण स अनतर पड, व वचन गरक भीहोतो
भी मत मानो।
मोग स ही रोग होता ह । जिहवा रस-सवन क पीछ लग गई, तो दसत होन रगत द ।
जिहवा स नितय नारायण का नाम लता जा । इसस जनम, जरा,
वयधि, पाप-पणय. य सब दःख नषट हो जायग । जनम, जरा, दःख, वयाधि प
को जौर कामकरोध अहकार कौ ऊमियो को तत समभाव स सहन करक
अविनाशी आतममख अपन मनदर साधय कर ठ । असरो को रटन स अभि- मान ओर विधि-निषव पीछ लगत ह, वाद करन स निदादि दोषो का वरप गता ह । इस परकार य मषण दषणो कौ जड ह । इसकिए इन विषयो की छटयटी छोड द ओर सवभाव स सतो कौ शरण जाकर हर हार म परसनन रह ।
ब
1 कननययरौ
उपदश ७५
जिस परष क दो सतरिया ह, उसक घर पाप बसता ह । जिसको पाप की तलाश हो, बह उसक घर चला जाय । जो शठ बोलता ह, वह पाप कौ खान ह । जो सतय बोलता ह उसक समीप सवसखो का भडार ह ।
दव क सिर पर अपना सब भार डालकर उसको दह समापत कर दनी
चाहिए । दिह म ह" यह अभिमान मिथया ह, ठसा समञञकर सार ससार-
भार क निमितत सवरप इस अभिमान का तयाग कर दो । इस दहादिक परपच का सग छोड दो तो तमहार अनदर भगवदानद परकट होगा ।
दह म नही ह ' यह भाव द होन पर जीव परमातमा सवलप हो जायगा ।
‹ इसकिए सारा समथ इपी चिनतन म लगाओ । दव स कोई सथान खालो नही,
इसलिए अपन रकषण की चिनता न करो । जीव को अपण कर दन स हदय म
दव परकट टो जाया ।
दव पर पड हर अपन समसत मार को कदी पर उतारो मत । भख-पयास क समथ चिनतन करना अचछा । दव क चिनतन म लापरवाही दिखान स
शरीपति का अनतराय होता ह । म ठव क सिवा सारा वभव गदा मानता ह ।
सतरी क तयागन स बरहमचय की परापति नही हौ जाती; दश तयागन स
वरागय नही आता । वासना क कारण काम ओौर भय बढता ह । इसकिषए
घीरज स वयथ कौ वासनामो का तयाग कर । टी परशसा करन स वाणी
गदी होती ह ।
अनन न छोड, बनवस न कर । सब भोगो क समथ नारायण का चिनतन
कर । मा क कष पर चलनवाल बालक को चलन का शरम नही होता, उस
बालक को मा क सिवा सब भावनाओ का मडन करना चाहिए । न मोगोम
फस, न तयाग म पड । परपगोपातत जो-जो भोगता जाय,उस दव क अपण करक
नषट करता जा । इसक अतिरिकत अब ओर कछ बार-बार मत प, कयोकि
इस छोडकर अब ओर कछ उपदश दष नही रहा । ?
७६ तकाराम-गाया-सार
जबतक मह म राम.नही ह, तबतक सव लट वयय ह । सावधान !
साववान ! सकलपो स मन को मकत करर ! जो भोग तर भाग म आय उनह
मगवान क अरपण करक कवल ईश-चिनतन कर।
जग को सचचा मम नही बतलाना । तदविषयक सम रहन दना 1 सचचा
मम नही बतलान सव पौर लगग ओर वयय शरम उठायग । व सीखी हई बात
को हदय म धारण नही करत । अनभव क बिना कहना वथा शरम होगा ।
एक जाति क पराणौ का दसरी जाति क पराणी स भट करान का सकलप
हदय म न लाओ 1 जो होनवला हो, वह होनहार क अनसार होता रह
जिस भरकार कि नाराथण न तय कर दिषा ह । वयाच कौ भल मिटान क किष
गाय का वव करना कया पणयकाथ होगा ? सवारथा आदमी परा विचार नही `
करता । .
तथान को उपदश का एक वचन ही काफी ह । अगर त आख नही
, खोलगा तो अनतकाल म यमराज तरी खबर लगा ।
एस दव को छोडकर तर दीनवाणीवाखा कस हो गया ? कामनाओ स
हदय भरा रखत हो, मगर आखिर म हाय म धल मी नदी रहन की । उदार,
जगदानी, शरणागत का अभिमानी पाडरग भगवान ह । बह तरसीदल,
पानी ओौर चिनतन का भला ह । सबक दःख का निवारण वह सवय करता ह।
उसम मिलन क किए कोई परतिबनव तदी ह । |
पह गजञान क कारण जनममतय क बहत-स दःख सहन किथ, अव आग कयो नव बन ? जो क सख-दःख हो उनह दव पर डालन क अलावा
किमो तरह भी कोई खटपट न करो ।
इस मिथया परपच का मोह न रखकर जीव को साकषी क खप म रहना
व
उपदश ७७
चाहिए । अनकतव म एकतव ह ओर एकतव म अनकतव । परकति सवमाव क
अनसार उसका अनभव होता ह !
लोगो म अपना मान बढा दखकर निरिचनत न हो; भतो की परीति
स मत-ति (योनि) म जाना पडता ह । इसलिए अपन मन को भगवदभकति
म लगाना चाहिए, वरना मन इदरिपो की सहायता स बहिख हो जायगा ।
एकःपरमातमाकी ही जोर मन को लगाना चाहिए । मन का सवभाव एसा ह
कि जिस रग की ओर उसको कगाव उस रग म रग जाता ह । दव सव करमो स
निषकाम ह ओर जीव अवसथा म ही कम करन की आदत होती ह ।
निरभर होना साधन का मल ह; शष सव कञट गौण ह । ठोग का कोई
वयवहार अधिक नदी चरता; आखिर सच-ञठ का फसला हो जाता हि ।
जिसको परमचिनतन का ही परम द, उस ही सचव लाम म सभञलना ।
जो आशा को सभक खोदकर निकाल फक सक वदी व रागी बन ।
तजो कछ सीखा ह, उसका अभिमान रखगा, तो यमलोक क रासत
जायगा। जिस नमरता नदी, बह तलवार नही कठोर लोह ह ।
जहा हरिनाम का गजर बज रहा ह वहा त अपार लाभ मपत लट 1
रासत म चरत हए कदम-कदम पर मा पाडरग का चिनतन करना
चाहिए । इसस वह भगवान सन सख लकर चिनतन करनवाल क पीछ खग
जाता ह, गौर अपभी पसनद का रस उसक कठ म दारता ह 1 उस भकत पर
आसकत होकर बह अपन पीतामबर को छाया करता ह, गौर उसक मह स
कया परिय उततर मित ह, यह सनन क किए उसक मह कौ ओर दखता ह ।
नारायण क नाम समरण को ही जीवन बना डालना चाहिए । इसस मख-
` पयास नही सतायगी ।
अपना हित चाहत हो तो दमभ को दर करदो । शदध चितत स ईवर की
७८ तकषाराम-गाथा-सार
सवा करो । विटठल का नाम एकानत म परम स गाओ । इसस अलम लाभ
घर पर चला आयगा 1 यह आखिरो बण ह; इस छोडकर वाणी का वयरथ
वयय न करो 1 =,
चाट का वयवहार लोटा द । जिनहोन आलस को जीत लिया द, उन
दखकर भी त अमन आलकीपन पर लजजित नही होता ।
जनम-मरण म पडकर त नितय नय-नय दःखो स कषट पा रहा ह । इसकी
तञञ शम नही ह ? काम-करोषादि चोर तञञ पथ-मरषट करक नषट करन पर
तल हए द । त यह दखत हए मौ कयो नही दख रहा ? .
शरता का ही मोक ह । थोयी बकवास स काय-सिदधि नही होती ।
रतिजञापवक किया हआ निशतरय कभी न छोडो । धय ही सफलता का
कारण ह । धय स नारायण सहायक होता ह । हरि निशचय स अपन दासो
कारकषणकरता ह।
यदि तन एकानत म वठकर एकागरचितत स अपना चितत शदध कर लिया,
तो तञञ ठसा सख मिलगा जिसका अनत नही ।
मानव खद ही तरता ह ओर खद ही मरता ट । अतः अपना उदधार
सवय करो ।
अर, तजञ एक सर अनन कौ आवशयकता ह, उसीकी इचछा रख । बाकी वडबड वयय ह । मोह-पाग म बषकर कयो तषणा बढाता ह ? तञ
साद-तीन हाय जगह चाहिए, अधिक पान का शरम वयय ह । एक राम को
मलाकिशष सवशनमहीह।
जिस तरह कोलह क वर पर करणा न लाकर तलो उस मारता द, उसी परकार मवयरमण क दःख सहन ही पडत ह । इसकएि जबतक तमहार
हाय म ह, अपना सवहित दख छो ।
च य किषादकयनयाककषककक क क र क ` 3
उपदशा 1 ७९
मनषय-दह दीघ काल क वाद भिर ह । शोघ लाम ड रो, वरना
वह नषट हो जायगौ । हरिनाम ततपरता सलो ओर सख क भडार मरलो।.
बाद म फरसत क समय अपना हित-सावन कर ठ, एसा कहना पागलपन ह। कया जीना अपन हयम? `
हर एक कौ चाह परी करन क किए नारायण हाय ऊपर उठाय खडा
ह । वह सरञ, उदार, मारईवाप जिसको जो रचता ह, उसक सामन ला
रखता ह । जस अपन कम होत ह वसी ही पसनद होती ह ओर वसा ही खाना ौर भोगना पडता ह । इसकिए मर वसत को हौ विचारपरवक गरहण करना चािए । जो बोया जाता ह उसीका फक काटना पडता ह !
बबल क पड पर अम क आग ? ईखवर स कछ न कह, त सवथ ही अपना
शात-मिवर ह ।
अगर त इनदो का दमन नदी कर पाया तो फिर तन यह परमारथ
की दकान कयो रग। रखी ह ? बाहर स घला हआ, अनदर स मलिन ।
, इस तरह अनत म तर हाय कछ नदी लगगा । `
लोग जव निषकाम होग तमी राम को आखो स दखकर रामषप
. हो जायग ।
ह सतो, अचछी तरह सनो । सबका सार एक यही ह कि दरजन का
तयाग करना चाहिए । पयाज स भी जयादा बद पयाज खानवाक क
` मह स आती ह । जस( सग वसा रग ।
` अनतकाल का सबधी भगवान ही ह, उसीका आशरय ल ।
शरीर को बाहर स धोन म कया ह ? जबकि अनतःकरण गदा ह
पराप-यणय कौ गदगी तर अनदर भरी हई ह । फिर हमशा पवितर रहतवाली
ममिःकी छभकछत का त कयो विचार करता ह ।
८० तकाराम-गाथा-सार
ए मर जघीर मन, म तञषस एक बात पता ह । त निरनतर दशचित
कयो रहता ह ? खान की चिनता करता ह । तञषस अचछ तो पकषी ह । चातक
पलली पथवी का जर नदी पीता, इसलिए उसक लिए बादर गरमी म वरषाः
करत ह । कितन ही जीव पानी ओर वन म ह, उनक पास कोई सचय ह
कया?
मर, त कपाल दव का चिनतन कयो नही करता ? वह अकल! सवका
परतिपालन करता ह । गभ क वचच को वदधि ओौर मा क सतनो म दध कौ
उतपतति कौन करता ह.? गरीषम काल म पड पर पततिया फटती ह । उनद
पानी कौन दता ह ? उसन तरी कया चिनता नही की ? त उसीका समरण
करता रह । जिसका नाम विशवभर ह, उसीका धयान त सतत धर ।
कनया-यतरादि का मोह मगलदायक नही । इसस अपन ओर परमातमा
क बीच एक लौकिक परदा पड जाता ह ।
दही म छा ओर मकखन दोनो होत ह, परनत दोनो को एक दाम पर न मागो । आकाश क पट म चनद ओर तारागण होत ह, परनत दोनो को समान न समशनो । पथवी क पट म हीर ओर ककर-पतयर ह, इन दोनो को
एक-दसर स न बदलो । उसी परकार सतो ओर ससारियो को समान रप सनभजो।
जिसस अपकीति हो उसका पणरप स तयाग कर दना चाहिए ।
तयाग करना हो तो अहकार का तयाग कर । फिर जिस सथितिम त हो उसम रह 1 फिर दख कि दोष कया वचा । दत को स।मन न आन दो । शदध मन ओर सनतोष चाहिए ।
उततम वयापार स दरवय परापत करो. ओर उस उद।सीन भाव स ख करो । इसस उततम गति ओर उततमः मोग मिग । परोपकार करना, पर-
पिवनति म,
उपदश ८१
निनदा न करना, पर-सतरी को मा-बहन समशचना, भत-दया स गाय आदि
पञओ का पाङन करना, पयासो क लिए जग म पानी का परबनध
करना ह, शतरप रहना ओर किसीका बरा न चाहना, बडो का महव
बहाना- गहसथाशरम क य ही मखय फल ह ओर परमपद-परापति क लिए
आवशयक वरागय-वल यही ह । ।
कोई चीज खो जाय तो उसक किए वयय जी न जलाना । यह समकन ठ
कि वह वसत आपन कषणापण कर दी ।
ह दव, विषय-सवन म त मशच आलसी बना ओौर तरा नामलनकी
शकति द । ओर कछ बोलन म मरी वाणी को गगी कर, परनत तरा गणा-
नवाद करन म मरी वाणी को बल द । तर चरणकमल क अतिरिकत जर क दखन म मरी आखो को"अवा वना द ।
ह परभो, आपस मरी एक ही माग ह कि दजन की सगति मक विलकल
न होन द । उसस घडी-षडी चितत म विकषप होता ह । ¦
जो अपन हित की वात कहता, ह, वह मानो जीवनदान दता ह, ओर
जो मनपसनद आचरण करन की वात कहता ह उस घात की समशचना । जिस
तरह गलत रासत पर जानवाक अध को रोका जाता ह, उसी परकार अधरमी
को जबरदसती करक भी रोकना चाहिए 1
त ठसा सनयास क, जिसस तर सकलप का नाच हो जाय ; फिर त कही
रह- बसती म, जग भ, परग पर या जमीन पर, चाह जहा । जस आकार
अण-अण म समाया हआ ह, उसी परकार दव सरवव ह ।
त शसतरो क शबदो का वाचन करता जाता ह बारवार उनका पासयण
करता ह, परनत जबतक तरा अनतःकरण शदध न होगा, तबतक वह सव वयथ
ह । भावारथ गरहण किय विदा ऊपरी वाचन भाररप ह । परभः परापति करनी ह
तो उसक परति एकनिषठा-यकत भाव रखता जा ।
८२ तकाराम-गाया-सार
अपना समपण भार दव क सिर पर डालकर अयाचक वतति सवीकार
करना ही सार ह । अपनी दह को दवाधीन कर दना ओर उसक दारा
योगय समय पर योगय कम करात रहता । इस विरव क अनदर विव का पोषण करनवाला ह ही, एसा निशचय मन क साय कर लिय कि वही जिस समय जसी चाहिए, वसी वयवसथा कर लता ह । तम निचय समननो कि उपरयवत सथिति एक परकार का वल ही ह ।
जो तमह रहजञान चाहिए तो सनतो क चरणो की सवा करो ।
“ह मरा' ओर "यह तरा" यह दरतभाव जाता रह तो जीवातमा पर जो-जो
वोजञा ह वह सब उतर जाय । इस एक बात क अलावा आपको ओर कछ भी
नही करना ह ओर कछ तयागना भी नही ह । सवरपभाव सवभावतः शदध. ।
परपच क मोहजार म आशा-तषणा क कारण जीव बनधन म पड गया ह 1 जीव को फसा मारनवाखा तो उसक मन का भठा सशय ही ह । सवरप-सथिति म भख का अनमव होता ह सौर दःख की छाया भी वहा नही होती । सवका करता एक नारायण ह । लाम-हानि, मान-अपमान को समान जानना । इस ही सचचा सखी जानना ।
एक अचयत क नाम-चिनतन स तर तमाम काय सिदध हो जायग । एक हरि क ऊपर निषठा रखना, यही सौ वात-की-बात ह ।
कवल भाव-भकति स ही तमहारा काम होनवाला ह । दभयकत आचरण स तमह नकसान ही होगा ।
दव की ही सतति करो जौर जो निनदा.करन का मन होतोभीदवकी ही करो । दसर काम म वाणी का वयय करना अधम. कारय ह । रोग समयक जञान कौ बात सनत वकत बहर हो जात ह गौर नरक स जानवाठ कामो को पसा लच करक भी करत ह ।
उपदश < ८३
। भवसमदर म डब ह को बारह घडी उस पार जान का विचार.कसत
रहना चादिए । यह दह नागवान द ओर किसी-न-किसी दिनि विरीन हो
जानवारी ह । इस एहिक' ओर परापचिक वयवहार क उनमाद क वशीभत
होकर अधा नही बन जाना चाहिए ।
महान परषो क साथ जान-पहचान रखना अचछा ह 1 उसक अतिरिकत
अनय लोगो क साथ भारई-चाराः करन कौ इजञट म न पडना। लटना हो तो
एसा.खजाना लटो कि जिसका कभी अनत ही न आव । महान यश परापत
करक जीना उततम जीवन ह । |
परमारथ की साघना करत समय कोई दरसर की वाट न दख, न दसर
क किए खडा रह । ।
जस मिशरी की डी पानी म पडकर उसक साय मिल जाती ह, उसी
तरह तम भी अपना मन नारायण को अरपण करक उसक साय तदरप हो जाओ ।
कगाल लोग धनिया का नादा चाहत ह ; मख पडितो की मौत चाहत
ह । माई त दसरो का खयाल छोडकर दव की शरण मजा।
ह मनषयो, तम जरा भी चिनता नही करना ओर लश-मातर भी भय नही
रखना । कारण कि नारायण अपन भकतो का हमशा सहायक होता ह ओर
उनका रकषण करता ह । उसस कछ कहना हौ तो शबदो की योजना करक
सनदर भाषण तयार करन कौ भी जररत नही पडती । निरभय भौर निःशबद
रहो । ~
ए मर मन, त अनय कोई सकलप-विकलय न करक कवर भगवान का ही
, चिनतन करना । वहा अपार सख-भडार ह । वहा कलपना कौ गति कटठित
हो जाती ह । वहा हदय को विशराति मिर जाती ह ओर तषणाए शानत हो
जाती ह । र
८४ तकाराम-गायः-सार
दरजनो क साय कभी मितरता नही करना, उनका कभी ससग भी न होन दना ; कयोकि उसस बार-बार चितत का भग हमा करता ह । दरजनो स तो हरर ही रहना मौर उनक साय बोलन तक का परसग न आन दना ।
नारायण कौ एकविध ओौर एकनिषठ होकर उपासना करना, कयोकि विषय-माव स उस कषट होता ह । तदविषयक भावना म तनिक भी अनतर न पडन दनाः। विकषप का नाश करना ओर नितात एकाक रहकर आननदकनद `
शरीहरि म अननयभाव रखना । आलस ओर निदरा का तयाग करना, धय धारण ` करना ओर जागरतावसथा म रहकर हरिसवरप का दढ आकगिन करना । र
अर जर जाय यहजञान मौर यह चतराई ! भगवान क चरणो म मरा भाव बना रह, मञञ इतना ही बहत ह । य आचार जौर य विचार भी जल
` जाय ! भरा मन पर म सथिर हो जाय यहौ बहत ह । दभ, मान ओौर लौकिक वयवहार म आग लग । मरा मन परमातमा क वयान मः मरन रह मञञ इतना ही चाहिए । यह शरीर जर जाय ओर इसक समबनधी भी जल जाय । मर कठ | म निरनतर परमाननद शरीहरि का वास हो यही बहत ह । मर मन ! जिसस सबकछ सिदध हो जाता ह एस शरौ विटठल क चरणो का आशरय छ ।
चितत म विवक का उदय होन पर वरागय धारण करना चाहिए । उसस पहक वरागय छन स रोगो म बडाई मिरती ह पर उदधतता भी मा जाती ह । अनतर क आदशानसार माचरण करना ही उततम ह ।
` जितना बोलन स तमहारा हिततहो उततना ही बोलो । वयथ बडबड करक , “ यखी जीवो को. कषट न दो । तम सवय शदध हो जाओ इतना ही. बहत ह । म तमहार परो पडकर कहता ह किदसरो को धिककारो मतः; अपनकोः शदध बनाो ।
अर मनषयो ! तम अपन जीवन म. चाह करोडो सपो की समपतति
उपदश ५
परापत कर लो, फिर भौ मरन पर उस समपतति म स एक क"1टो भौ तमहार
साय नही चलगी । तम इस सरमय पान चवाकर लाल मह किथ फिरत हो,
परनत आखिर म तमह फीक मह ही जाना होगा । आज तम गदो -तकिथो पर
सोत हो, पर एक दिन तमर गाय क गोबर स किपौ जमीन पर सोना होगा ।
अगर तमन रामनाम को मखा दिया तो निदिचत जानना कि जनम वया
गवा दिया । 4
किसी का सकोच करना ह तो अपन चितत का करो । सब सल मिल,
बही काम करना । मतमातर क परति समदषटि रखना ही दव को सचची पजा .
ह । मतसर रखन स दःख होता, ह । किपीस रषट होना हो अयवा मह चढाना
हो, तो अपनी जात पर ही; कयोकि शोष सब तो हरिखप ह । सवका पराण हो
जाना ही सतन ह । . ~ १
त दवताओ क पजन क कट म न पड । जप, तप ओौर धयान करन कौ
मायापचचौ न कर । परमातमा क रासत मड । उसको भकति क आननद का
अनभव करन लग । वहा 'जो सहज गहय ततव ह व तरा निजसवरप ही
ह । इस त सवानभव स दख छ । मव त.सावधान होकर इस एक ही जनम म `
ससार-बवनो को तोडकर मकत हौ जा । |
त हर समथ खान-पीन की ही चिनता करता रहता ह । अपन कलयाण
का त तनिक भी विचार नही करता । शरदधा रल, ईइवर तरी कभी उपकषा
नही करन वाला ह । ॥
मह स 'राम', "हरि नामोचवार का सवन वडा सरल ह । इसस अकमय
लाम तमहारा घर पकता-पकता चला आया । इसक सिवा कोई कषी भी
अजन सवन करन की चषटा करना ही नही । तप, तीरथाटन, महादान ङ
आकर की जरत नदी ह । सिफ मन को एकोगर करक नामचिनतन करन
2 तकाराम-गाथा-सार
| स तमह हरिपरापति हो जायगी । कवर नाम की सहायता स ही तमह नारायण ` की परापतिहो जायगी ।
जिसकी सगत करन स मन को सख होता हो उसीकी सगति करनी चाहिए 1 जितक ससग स चितत को कषोभ होता रहता हो .उनस दर रहना चाहिए । जिनका सवभाव अपनस परतिक हो उनक साथ समबनसः नही रखना चाहिए, चाह व कोई हो ।
जिस दरवय क अनदर पनदरह परकार का अनय भरा ह, उस त दर फक द । जिसम तरा कलयाण ह, जिसस तरा सचचा सवाय सिदध हो, उस त सिदध करल। ,. 2
जवतक मन म स काम का नाश न हो गया हो तबतक सवी-बचचो का ^ तयाग करना योगय नही ह ।
अनक परकार की वासनाओो स परित होकर सकलप करना ओर उनक . पीछ पडना, इसको अपकषा त सकलयो जर उनक परिणामो को ही छोड द । इस भकार दःख का सरलता.स अजनत आ जायगा ॥ सवपन क जसमो पर त वयय रोता ह । जितनी जलदी हो सक त मलदव कौ शरण जा । वहा तञ सब फलो क परापति हो जायगी । ॥ स
सार कटमब का तयाग करन पर भी अगर ततसमबनधी वासना रह गई । तो पनः कटमब की परापति हए बिना न रहगी । तो फिर तयागी होन काढोग करन काकया परयोजन ह ? -
` जो जिसका धयान करता ह उसक साय तदरप हो जातोह । इसकिए तम जिस परपच का फलाव किय बड हो उसका कषय कर डालो, भौर खब दढ मनस
उपदशा ८७
विकवगधापो भगवान का समरण करन लगो । वह आकाशस भी घडा ह सौर
अण-रण म भी समा सकता ह।
अर ! त पन मन को सकचित करक छोटा कयो बन जाया करता ह ?
दव को अपन हदय म समा छ ओर बरहमाणड को एक ही गरास म निगल जा।
"म दह ह' इस भावनास व छटसषरमधिरगयाह।
गरनथो का अधययन ओर पारायण ही करता बठा न रह । जितनी जलदी
हो सक एक बरत का जारसम कर-दवकीही इचछा की शरण होकर ओर
दहाभिमान छोडकर दव का ही भजन करन लग । भगवान एसह किनाम
समरण करनवाल को तरनत ससार-सरिता क पार उतार दत ह
मिलन का सख कनाहो तो पहल सर हथरी पर कना होगा । अपन
हायो
अपन ससार म आग लगानी होगी ओर मडकर दखना न होगा । जिस तरह
पकतगा जान जोखिम म डालकर दीपशिखा पर टट पडता ह, उसी तरह
तमह भी निरभय हो जाना चादिए ।
मन म एक भाव ओौर जवान पर दसरा भाव यहत करतातो
ह, परनत
अनतरयामी परमातमा तर दोनो भावो को जानता द ।
इस भपकर ओर पराणघातक घन-समपतति म लभाकरत कयो मलावि म
पडा ह ? त रामनाम गा; कोई गाता हो तो सन । राजा आद
ि दसर रोगो
को त अपना मानता ह । परनत जब काल आयगा तब कोई काम नदी
आयगा। १ =
मर राम क सिवा साररप सख ओर किसम ह, यह त मङष बताए तो
म तरा दास हो जाऊ । कीति ओर नाम क किए चाह जितनी
दोड-धप करो,
~ परनत एक दिन उसका नाश इए बिना नही रहनवाला ह ॥
सचार का तयाग करन स पहल मन को शदध करलना चादिए । काम-
८८ तकाराम-गाया-सार
करोधादिक वततियो को आशरय दन कानामही ससार ह । जिसन अपन दह समबनधी लोम को छोड दिया, वही सचचा सनयासी ह ।
यदि तरा अनतःकरण भगवा रग स रग नही गया तो बाहर स भगवा वसतर पहनकर त कया करनवाला ह ? अपन बहिरग को त मरत दमतक धोया कर तो भी उसस तर अनतःकरण का मल दर. नही होनवाला ।
जिसक ससग म आन स परम-सख दना हो जाय उसकी सगति करनी; मौर जिसकी सगति स अपन मल परम म भी कभी हो जाय, उस कलमहा दजन समकनना । अगर मिलना ही हो तो मन-को-मन क साय मिला दना ही उततम ह ।
सारा जगत दवरप ह, यही एक मखय उपदशा मञञ. करना ह । पहल तो तम जो भ-पना' ह उसका तयाग कर दो । इतना करोग तो कसौटी पर खर उतर जागोग । प एक ही वचन म बरहमजञान का मणडार ह, यह निशचयपवक मान लो ।
भरापचिक काम करत समय उनम आसबत मत हो । ममतव-रहित एव निरिपत रहना चाहिए । सव परकार की लजजा छोड दनी चाहिए । नाना परकार को उपाधियो क बनधन को तोड डालो ओौर एकतव म रहन- वाल एक अदवितीय परमातमा का साकषातकार करो । समसत परकार क दहा- दिक परपच की माया स अलग हो जान पर सासारिक कामो मभी वासतविक सख मिलता ह । एसी सथिति परापत करन क किए पहल सदविचार करक दहादि का समबनध.तोड डाखना चाहिए । तमम ओर मञम दोनो म एक सामानय आतम-सवरप भाव ह । उस सथिति म अवसथान करक तम मदशनय ओर सरवोचच सवरपावसया को परापत कर लो ।
पचमतो मौर सपत धातगो स बनी हई दह को जीतकर जो त अपन अधीन नही करगा तो इस खल भ कस टिकगा ?
उपदश ८९
भगवान का एक कषण क लिए भी विसमरण न होन दो। सवक जीवन
को सरर बना दनवाला यही एक उपाय ह । गर करन की ओर उसस
कान फकवान की कोई दरकार नही ह ।
जो त एकयभाव स करीडा करन लगगा तो त इस ससार क शिकज म
नही पडगा । दवत भावना रखी तो फसा ही समञलना । त ससाररपौ सल
खलत समय अपनी आतम-सथिति म सथिर रहकर ससार क
खल स अलिपत रहना ओर विषयो का समबनध काट डालना । इस
परकार ससार-करीडा करता हमा त एक दिन दव बन जायगा ।
एक भगवान क सिवा तमह कछ जानना ही नही ह । स विषयम जरा
भी सशय रखोग तो तमह निररथक शरम करना पडगा । जिसस परम उतयनन
हो, एस साधन का असयास हमशा करत रहो ।
जो तरारायण.का समरण कराव, उस ही सचचा दाता समजञो ।
. दव क ऊपर खब बलपरवक विरवास रखना, यही गपत रहसय ह । जञानी
पत का जितना ढोग करोग, वयथ जायगा । सगमातर का परितयाग करक
एक दव क ऊपर क भाव को दढ करो ।
, नारायण समपण जगत म वयापत ह । इसीलिए उस जनादन कहत ह ।
तम उस नारायण का समरण करोग तो सब दव-दविया तमहार परो पडती
चरी आवगी ।
जस हो पर-वय ओर परसतरी की इचछाए तोमनस निकारहीदो।
फिर भक ही इस परप म सखपरवक रहो । अपन वयवहार म दभ को सथान
न दो 1 अतयनत शात रहो ओर रामनाम-रस का सवन करो। स विषय
म आरस न करो । सार जगत क मितर बनकर रहो । वाणी स अशम
बचन न बोलो । दजन क सहवास म न रहो । परमा की साधना क
लिए जसा भरयल सतो न किया ˆ वसा तम भौ करो ।
९० ४ तकाराम-गाया-सार
एक दव क सिवा दसरी हर वसत ओौर हर वयवित की आशा वयथ ह ।
तषणा को अतयनत बढा डालन स कभी सख का सवाद नही . मिलनवाखा ।
सव धयपवक भगवान क ऊपर विरवास रख ओर सबका करता-हरता एक
दव ही ह, ठसा भाव मन म दद रकखो । दव तमहारा योगकषम निभाता
रहगा, उसम जरा भी चरटि न आन दगा ।
हरि का नाम ओढो पर रखन क समान ही मन म भी रखत रहो ।
इसस समसत जगत तमहार ठिए मधमय बन जायगा, तमहारी समपण
इचछाए खरत-खरत पण हो जायमी । सचच अनतःकरण स किया हज काम
` दीपत हो उलता ह ।
हि
^ गी ताण
२.८ >
अजञानी जीव ओर दजन जो कछ काम होत ह व सब भगवान की ही सतता ओौर पररणा स होत
ह । मगर अविवकी जीव को इस मम की परतीति नही होती । वह "मन किया"
, की ~त भावना रखता ह 1 इसीस उसक पीछ "भत रग हए ह । यानी पच-
महामतातमक दह उसको खोजती हई आती ह । यदयपि काल न इस मख का
.गला दबा रखा ह, फिर भी लगातार “म-म" चिललाता रहता ह
, वतति, भमि, दरवय, राजय चाहनवालो को परम की परापति हरगिज नही
होनवाली ह । भाड क कोभ स वोकषा टोनवाठ कली को बोज क अनदर कौ
सार वसत का लाभ नही होता । किसी एक विषय का रोम चितत म रखकर
, दवपजा पर मन लगानवाला आदमी पतथर ह ओर पतथर की ही पजा कर
रहाह | अनक परकार क कम करक वड चाव स उसकी फलचछा करनवालो
का तमाम कौल वशया क आचार को तरह ह 1
ससार क पाक षड हए जीवो को विशति नही । उनम निरनतर अरजन .
वः विषय-सवन का गन होता रहता ह । कटभबियो का समाधान करन क
` लिए.उनको रात-दिन काफी नही होत । इसकिए उनको दव-दशन दरभ
हो गया ह । एस रोग आतम-हतयार ह ।
. जिस गाव क रोग सवा-भकतिहीन ह वह समशान' ह गौरव रोग परत
ह । ब वतत की तरह पट भरत ह । उनदन अपन घरो म यमदत को बसा
रखा ह ।
. भविति-भाव स जिनक नतर नही छलकत ओर अनतर ` नही उमडता,
उनक सार बोल थोथ ठ जर लोगो का लोखला रजन करन क कएिह।
९२ , -काराम-गाया-सार
काम-करोघ दषट विकारो को जस-क तस रहन दकर तिल-चावलो की त कयो आहतिया दता ह ? भगवान को भजन क बजाय यह कषट कयो वथा
उठाता ह ? जिसन अकषरजञान परापत किया, मान-दम क किए तप ओर
तीयीटल करक अभिमान बढाया, दान दकर मातर अहता का रकषणः
किया, एसा वयकति आतम-पति क माग स भटक या, जौर उसन जो कछ
किया मघम ही किया । `
जिसक कणठ म कषण नाम की मणि नही, उसकी वाणी अशम ह, चाह
वह परष हो या सतरी । जिसक हाथ म दानवीरता का ककण नही ह, सत
उसकी फजीहत करत ह । , ^
घम-खग लोग माया को बरहम कहत ह। व अपनी. तरह रोगो को मी
शराति म डालत ह । . दह का पालन करलवालो को नारायण नही मिलत ।
मखो को यह नही सङञता कि किस समय कया करना ओर कया न `
करना । व दष ओर छख कौ एक हौ कीमत करतह।. ,
सोन क थार को दष स भरकर कतत क सामन रखन स, मोतियो का
हार गष क गल म डालन स, सअर कौ नाक म करतरी लगान स ओर बहर
को जञान सनान स कया लाभ ? सचचा मम कोई विरला ही जानता ह;
मकति की महिमा साघ ही जानत ह ।
जनमानव को सारी दनिया अनधी कगती ह, कयोकि उसकी सवय क - आखो म दषटि नही होती । रोगी क मिषटानन विषतलय लगता ह, कयोकि उसक मह म सवाद नही होता । जो सवय सदध नही ह, उसको तरिमवन अशदध लगता ह ।
जो सतरी क अधीन ह, उसक जीन को यिककार ह । उसका इहलोक ` या परलोक म कही मान नही ह । जिसका मन लोभी ह'जिसक यहा अतियि- अभयागत पज नही जात, उसक जीन को धिककार ह । जिसम आलस मोर
अजञानी जोव ओर दरजन ९
, निदरा अधिक ह, जो अमित-आहारी अघोरी ह, उसक जीन को धिवकार ह।
जिसम विवक वरागय नही ह, मगर जो साध कहलान क लिए तिलमिलाता
रहता ह, उसक जीन को धिवकार ह । निनदक ओर विवादी वथा जनम ककर
आय; व नरकः जत ह
जो मह स बरहाजञान बोलता ह ओर मन म घन ओर मान की इचछा
` रखता ह; एस की सवा करन स जीव को कया सल होगा ?
समर मज स विषटा खाता ह । उस मिषटानन कौ लजजत का कया पता !
उसी तरह अभवतो को पाखड परिय रगता ह 1 उनह परमा मधर नही `
लगता । कतत को पचामत खिलागो तो भौ उसका चितत हडडी पर रहता ह।
सापको दष पिलादःतो भी उसक मह स वह विष होकर ही निकलता ह ।
र गघ को महातीथ म घोया तो भी वह शयामकण घोडा नही हौ जाता ।
‹ उसी, तरह दजन को उपदश दना फिजर ह; कयोकि उसका मन श नही
` ह। साप को शकर डालकर पीयष पिलाया, तो भी उसका आनतरि विष .
नही जाता ।
जिसका शरीर नवजवर स तपत ह, उस दध विष जसा रगता ह1 उसी
तरह जिसन परमाथ का तयाम कर रखा ह, उस सचमच सननिपात हौ गया ह।
. भिसको पीलिया हो गया ह उस चनदरमा पीला दिखाई दता ह ! जिस शराब `
पीन का शौक ह, उस मकखन का सवाद नही भाता । ।
` ह परभो, परमा रस इन दजलो की सगति स नषट हो जाता । जो
` “ भरषट जीव ह व मह स नरकतलय गनद शबद निकालत ह । अचछ मीठ. अनन
को कतत मह डालकर भरषट कर दत ह । जौ सतो कौ मरयादा नही रखत,
| व निदयह। ५
जो दरागरह ह, उनका जकाव अमगल कौ ओर ह । चितत क सकोच स
९४ तकषाराम-गाया-सार
कछ काम नही होता । चितत की अपरसननता स क करना पागरपन ह । योगय
काल क बिना कोई बात मानय नही होती, एसा करता न नियम कर रला ह । |
म आशा क भवर म पडा हजा था । मिथया-अभिमान ककर म सब षो
का पातर बना था। इतन म मरी आख खल गई नही तो म वडा दःखी होता 1 >
दस मिथया दहाभिमान की चषटा स ही सब जग आकरोश करता ह 1 मरन की
सध नही 1 लोभ की ओर वदधि परवतत रहती ह । उसस वह पीछ हट नही
पाती † धन जोडकर मर जात ह । लडक उस धन क लिए कत ह । व
जीद-जी नारायण को याद नही करत 1
एत पमरग म आग रग, जिसम पतगा दीपरिखा पर पागल होकर
अपन पराण गवाता ह । सास क लिए बह रोती ह, मगर अनतर का भाव भिनन
होता ह । कपटी मह स चछा बोलता ह मगर अनतर करा भाव ओर ही
होता ह । वनदावन फल बाहर स अतयनत कातिवान मगर अनदर स कडवा
होता ह, इसलिए हाय न ङगाओो 1 बगखा धयान का गग करक मछलिया
मारता ह । बासरी क वजन पर जस साप डोरता ह, उसी तरह ढोगी लोग `
हरिकया म ऊपरी तौर पर तललीन टौ जात ह ।
सतय की परतीति हौ जान पर भी लोग अपना हित न सावकर चरमक
-चवकर म कयो पठत ह ? सतय को जानन पर भी सवय अपना अहित करत
ह । ह परभो, यह हारत दखो । मछली मास की आचया स अपना गा फसाती
ह । उसी तरह आदमी धन की इचछा स फस जाता ह । कम वडा बलवान ह ४
उसक दवारा बरा होनवाला हो तो होता ही ह 1
नाटक-तमाश म सवियो का वष धारण करनवाड नटो को न दखो ।
“ जो स दकर दखत ह, व दोष खरीदत द । नाटकौ लोग ङषण व गोपी क वव
बनाकर चीरहरण का खल करत ह, इसम मात-गमन सरीखा पाप ह ।
दखो, इन सवा-मकतिहीन रोगो को विषय-रस का कसा चसका रगा ह ॥
| ॥ ।
। ।
कक.
अजञानी जीव ओौर दन . .. ९५ |
कितन ही शबद जञानी मनपसनद भोजन करत ह ओर बतात ह कि
नारायण न ही यह भोग किया, ; सव दव 'ही ह, उसस अरग कया ह--
आदि । मगर सपतति क किए ओरो का सिर फोडन पर उतार हौ जात
ह । तयागियो क-त वसतर, कमणडल ओौर थगडयो की गदडौ रखत हए उनक
बरहमजञान को लजजा लगती ह । (सव नरवर ह--एसा मह स बोलत ह, मगर
शाल-दशाक, चादी-सोना, भोग-उपभोग सामगरी परापत करन की इचछा
रखत ह । एस जञानियो की, करोडो जनम लन पर भी, दव स भट नही हौन-
वाली ॥
अर हीन, त अपनको हरि का दास कहलवाता ह ओर दीनो को 'महा-
^ राज कहता ह । तक हम नही आती ? विषयी-जनो को समभा म जाकर
कहह मटकाता ह ] इसक बिना कया तरा पट नही भरता ? पट न आदमी
, की एसी विडमबना की ह कि वह दीन बनकर लोगो की खशामद करता ह ।
घर-घर सब बरहमजञानी हो गए ह । मगर उनका बरहयजञान आशा
षणा, माया स मिधित होन स दाभिक हौ गया ह । कामः करोच-खोभ क विष
स मिर होन स बह बहत बलर दता ह ; निनदा-अहकार दष स वह बहत मला
हो'गया ह! एस जञानस कछ भी हाथ न लगकर मलयवान आय वयथ
जाती ह ।
जस कोई पारस दकर काच ज उसी तरह लोग अलप रोम स परमाथ
की विकरी करत ह ।.इन रोमियो न सवगरोक म जाकर वहा दिवय भोग
भोगकर अपन पणय नषट कर डल ।
बड-बड कवीरवरो स हम दर ही रहत ह, नरयोकि व परासादिक
कविताओ म स अश ककर अपनी कविता म घसाकर सवय कवि होन का
दावा करत ह । उनह कीति की चाह होती ह; एस अनधो क मह आखिर स
काल होग ।
९६ तकताराम-गाथा-सार
जो भत, भविषय, वतमान क शकन बतात ह, उन लोगो स मञचको तक-
ली होती ह, मञञ उनह आखो स दखना भी अचछा नही लगता । कछ रोग
ऋदि-सिटि क. साधक होति ह, कड वाचा-सिदधि कर तह, मगरय रोग
पणय-कषय हो जान पर अधोगति को जात ह ।
जिसको "पडित कह जान पर खशी हो, उस निपट मस समजञो । सव
जो समबरहम नही दखता, वह वद क अथ क अनसार नही चकरता, इसलिए
दराचारी ह । वदो क अधययन स जीव ओर शिव को एकरप दखना आना
चारिए 1 <
जो मदोनमतत ह, उस योगय कततवय नही सञलता । जो नही कना चाहिए
उस वह गरहण करता ह भौर जो अगीकार करना चाहिए, उसका परितयाग
करता ह 1 अनधकार म पडा हआ दीवार की जगह दरवाज की कलपना करक
अपना सिर टकराता ह । `
गागरभर दष म अगर शराब कौ एक बद पड गई, तो फिर वह शदध
नदी रहता । उसी परकार जिसका मन अहकार स गदा ह, उस.खक की वाणी
` शरवण न करो । सनदरता क वततीस लकषण ह, परनत यदि नाक नही हतो
सब गर ह । मकखी जस अपन ससरग स अनन को कभी नही पचन दती, उसी
परकार ब की वाणी हितकर नही होती ।
जस धीवर मछलिया को, शिकारी हिरनो को बिना अपराध मारत ह,
, उसी परकार दषट लोग सतो को विना कारण सतात ह । उनह चाणडाल
समञो । विष स अमत की, अहकार स परकाश की, पतथर स हीर की, दषटो स
सतो की शरषठता परमाणित होती ह ।
निदक दरजन खव हो, कारण कि उनका हमपर वडा उपकार ह। व
सावन या मजदर लिय बगर हमार सव पापो का कषालन करत ह । य हमार
मफत क मजदर ह । व हमारा बोकञा ढोत ह । व हम पार उतारकर अप
अजञान जोव ओर दरजन ९७
नरक म चर जात ह ।
जो सिदधो न सवन किया, वही अधम भी सवन करता ह, परनत फल
अधिकार क अनसार मिलता ह । सवाति नकषतर का जल सीप म मोती वन
जाता ह, कपास पर पडन स कपास का नाश हौ जाता ह,सप क मह म पडन
सि विष हय जाता ह । जो जसा करता ह, वसा फल पाता ह 1
चनदन क वकष क पास सप रहत ह, परस ध का छाम अनय दरसथ लोग
हत ह। बोजञा कोई ढोता ह, खाभ कोई ओरही लता ह । गायक थन का
करीडा (चिचडी) अशदध रत का पान करता रहता ह, दष अनय लोग ही
पीति ह । ह भगवान, सप ओर चिचडी जस जडबदधियो स पतयर होना
, अचछा ।
कामातर को भय, लजजा ओौर विचार नही होता । काम साधन क
सामन वह शरीर को असार तण-तलय गिनता ह । कपण का लोभ कवल दरवय
की ओर होता ह, ओर किसीकी उस परवाह नही होती । बभकषित अचछा-
बरा दख बिना जो पाता ह, वही खाता ह ।
शराब पीकर उनमतत होनवाला नगा नाचता ह ओर अनचित बात
बकरता ह । उसक दसतर कम उस धषट बना दत ह; मव समञञाए किसको ?
शारीर की सथिति बडी बवान होती ह, पागल को घरमनीति सनान स कया
फायदा ? यमदतो क डड पडन पर होश म आ जायगा 1
जिस परकार कौमा गगा म सनान करक जानवरो क जसमो म चोच
भारता ह, उसी परकार दरजन को यदि उपदश दिया तो भी वह अपना
सवभाव नही छोडता 1"
विषटा-भकषी को अमत अचछा नही लगता 1 दजन का सखा दरजन ।
सत लोग दजन का सग भलकर भी न कर! उसका दशन भी दःखदाई ह 1
९८ तकाराम-गाया-सार
जिसक घर दनिया की छी-ी', ध की ही दौलत ह उसस अपना वया पाम निकलनवाला ह ?
दषट पर आवरण पड होन क कारण जीवो को अपना घम नही सल
रहा ह । विषय-कामना स सब लोग मरा हौ गए ह, अतः सचचा मम व कस
समक ? दलो तो, माया उनह कस नचा रही ह ?
पागल क कितन ही सखोपचार करो, उस उनस कया आननद आयगा ?
अनध क आग दीपक-नतय का कया उपयोग ? भकतिभाव क बिना भकति
वसीहीह।
करनी क बिना कथनी-पठनी वयथ ह । वाणी स अमत की मिठास का
वणन करता ह गौर सवतः भखा तडपता ह ।
जिसका जीना सतरी क अषीन ह, उस दखकर मक बडी पीडा होती ह । उस जनत को म किसकी उपमा द ? उसकी हालत मदारी क बनदर की-सी ह । उसकी सारी जिनदगी गष या कतत क जीवन की तरह समजञनी चाहिए ।
मकली जिस परकार सगनधित पदायो को छोडकर दरगधित पदारथो पर खदी स बठती ह, उसी परकार अभागो को अधम कामो म ही रस भिता . ह।
एक सवरी न अपन पट पर साडी का डचा बाधः, ओौर सबस कहन छगी, “मजञ दिन रह ह ।' गभषारण करन का सब ढोग वह करन लगी 1 उसक पट म बनना नही ओर सतन म दष की बद नही । वह सतरी आखिरकार बिलकल वाजञ साबित हई मोर रोगो म उसकी बहत हसी हई । अनभव बिना कवल शाबदिक जञान की चरचा करनवाल पडितजन भौ उस सतरी सरीख ही ह ।
कड वी तलसौ क पततो को चाह जितन गड स चषड, तो भी कड व-क- कड.व ही रग । नीच जातिवाा हमशा नीच ही रहता ह 1 उस उपदश दना
न ॥,
अजञानी जीव ओर दरजन श
वय शरम ह । विचछ पर खव परम स हाय फरिय तो भी परम कौ कदर न करक वह डक ही मारग। । पतथर को चाह जितना उवारो, नरम न होगा । सअर को विषटा खाना अतयत परिय ह । दन का भी सभर सरीखा सवभाव होता
ह।
कततो क भोकन स हाथी को सताप नही होता, मोकनवाल कततौ को
ही कषट होता ह । जो दषट रोग सत-साधमो को सतात ह, व अपना मह अपन
हाय स काला करत ह ।
जिनम दहाभिमान होता ह उनका जब छोग सनमान करत ह, तव उनह
मख होता ह । उनकी पणय सामगरी को मान, दभ, आदि चोर चरा र जात ह।
नीम को शककर स सीच तो भी उसका फल मीठा नही होनवाला ।
उसी परकारः दरजनो को कितना ही सदपदश दीजिय, सव निषफल ह ।
मल तो कवर भार ढोनवा वल ह, चतर कोग ही अनदर की सार-
वसत का उपभोग कर सकत ह ।
तर शरीर क माता-पिताओ को इस वात का जञान नही ह कि तरा
सचचा हित किसम ह ? इसकएि व तजञ परापचिक वयवहार की शिकषा दत ह ।
जञान बोजञ स जिनका कलजा दब गया ह, व कवल शबदो की ही माथा-
पचची किया करत ह ओर उनक स काम का अनतही नही आता । अनभव-
रहित शबद रसहीन होत ह ।
पहल बीज बोना, फिर सीचना, फिर ईरवर पर भरोसा ,रखकर जो
फल मिल, उस लना । एसा न करक जो कोई फल कौ आशा रलकर ईरवरः
की मिलत करत रहत ह, व आखिरकार ग जायग ओर क न पायग ।
जो मनषय हाय म माला लकर गोमखी म हाय डालकर, जप करत क
१०० तकाराम-गाणा-सार
बहान कवल ढी ही हिलाता रहता ह ओर मन म दसर लोगो की निनदा
का विचार करता रहता ह, वह कवर माला क मनकर टपकाता जौर गोमखी
को हिलाता ही रहता ह । उस यम की सजा भोगनी ही पडगी ।
यह शरीरःसयल वडा बाधा-पण ह, फिर भी यहा जो फसल चाह पदा
कर सकत ह । ठसा होत हए भी जो कोई सकोच-वतति' रखकर पड रह तो
ममञचना कि व अपनी जौव दशा स चिपट रहना चाहत ह ।
अपन पास ही सवरप सख होत हए भी कषदर लोग अजञान क कारण भराति म पड रहकर दःख भोगत ह । दिशा-भरमित गत रासत च पडता ह । मरा
यह कथन निणयाटमक ओौर सवानभव गमय ह ।
दहाभिमानवालो म धय, शाति ओर निमरता नही होती 1 एस जौव निबल ही होत ह । व छोग तरिविध ताप स तपत रहत ह ।
म हरि का दास ह" यह कहन क किए जीभ नही हिलती ओर वयथ
बकवास की दगघ फलाया करती ह 1
अपनी परशसा अपन मह स करना शोभा नही दता । फिर भी बहतर जपना बडपपन लोगो को दिखात फिरत ह ।
पराणियो क परति ` ष-बदधि रखना, मन म निषठर माव रखना, ओर अधिक वाद-विवाद करना-य तीन अपलकषण जिसम हो उस अभकत जानना 1
वस क छिए जो हरिकथा करता ह, उसस भ पता ह किए पापी, पट मरन क किए तजञ हरिकया करन क सिवाय जौर कोई धधा हीन मिखा?
अपनी दह का पालन-पोषण करता जाय ओर मह स जञानकी वात
म ०
कमकमर भकना क 441१
अजञानी जीव ओर दजन १०१
छटता जाय, एस की सरत भ स भी दिखाई न पड तो अचछा । जिसक
सवभाव म सत क लकषण परकट न हए हो, एस लोग कया ओौरो को उपदश
दन योगय कह जा सकत ह ?
जो अपनी इदविधो का नियमन न कर मौर मह स नामोचवार कर, इसस उनका कया लाभ होगा ? कीततन करत समय जसा मह स बो, वसा आचरण भी करना चाहिए ।
जसा अपना जीव इ, वसा दसर पराणियो का भी जीव ह 1 पापी छोग यह वात नही जानत ओर दसरो क गलो पर छरी चकत ह । सव पराणियो क हदय म जीवरप स नारायण रहत ह । पशओ क हदयो म भी नारायण का वास ह 1 हतया करनवाङ अवोगति म ही जायग ओौर दारण दःख
भोगग।
कोई अपना करता फाडकर उसका कबर बनाय, वह जसा हासयासपद
ह, वसा ही दसर की कविताओ म स करता का नाम निकालकर उसकी
जगह अपना नाम घसड दनवाला ह ।
दडित रोग अपनी विदया को विकाऊ मार गिनकर उसक दवारा लोगो
का कवर मनोरजन करन की चषटा करग तो उनको परमाथ-सबधी कछ
भी फठ नही भिरगा ; परःत जो अपन मन स सव परकार का अभिमान दर
कर दत हः ओर अपनी बटियो की ओर धयान दकर नमर वन रहत ह,
व ही परमारथ-फल का सवाद चखत ह ।
जो चितत क साथ चितत मिक गया तो सबकछ मिक गया समञचना ।
एसान हो तो किसीकी भी सगत करना वयय ह। पानी ओर पतथर का
योग हो तो भी पतयर का अतरग पानी स न भीगता ह न नरम होता ह ।
बीवी-वचचो को छोडकर मड मडाकर सनयासी तो हमा, परनत यौद
१०२ तकाराम-गाया-षार
अनतःकरण स तषणा का कषय न हजा, तो सनयासी हो जान स कया सधणा ?
जो तषणा-रहित हो गया ह, वह ससार म रहत ए भी अलिपत रह सकता ह 1
जो भरपच का भार ढोता फिरता ह, वह दव को पहचान ही नहौ सकना ।
जिसकी बदधि सथिर न हई वह चिनता म दब-मरता ह । जो तषणा का दास
जौर लोभी होता ह नारायण उसकी बदधि को सथिर नही होन दता ।
शरदधा बिना दव का मम समञच म ही नही आता । भकति-रहित आर चय
रहित लोग जस-कतस ही रहत ह ।
म * &
भगवान स परारथना
जो सतो क दास हौ, उनक दासो का मद दास बना दो। ह हरि, फिर
चाह कलप-पयत मक गरभवास करना पड, नीच कम करन का भी परसग माया
तोम करगा, मगर मख म तमहारा नाम रह । तमहारी सवामही मर सकलप
समा जाय । 44
जिसका चितत सदा दहकता रहता ह गौर जिसका जी हमशा कषनध
रहता ह, उसक मङञ दन न हयो । वह जीता भी मतक क समान ह । दवचनो
की गदगी स उसरकी; वाणी अमगल हो गई ह । परतततव ञओौर परोपकार
को
वह नही जानता ।
ह दव, म ससारताप स तप गया ह 1 कटमब की सवा कर-करक मी तप
गया ह । मन बहत-स जनमो का बोजञा ढोया ह । सस चटन का मद मम नही
सता । म अनदर ओर बाहर क चोरो स धिर गया ह ।
बर समय क चककर म फसकर बरवान मी बदी हो जाता ह; कभी
दाता को भी याचको की शरण जाकर दान मागना पडतो ह । ह भगवा
न 1
कया आप यह नही जानत ? मडो भी आपको कहना पडगा ?
मनञमान नही चाहिए । उसस मञञ जरा भी सल नही मिलता । दह
क
सलोपचार स मरा शरीर आरामतलब बनता जाता ह । मिषटा मजञ विष
की तरह कड.वा रगता ह । कोई मरी परशसा करता ह तो मञषस वह सनी
नही जाती । त मजञ एसा जञान द जिसस म तञको पा सक ।
आजतक आय वयय गई । यह बडी हानि हई ह । ह हरि, अब तो षड
१०४ दकाराम-गाया-सार
कर या । बठा हआ कया दखता ह ? मरा-तरा करत-करत उगर बीत जायगी -
ओौर मासिर मह म मिदरी पडनवारी ह । मन कषण कौ भी रसत नही लन
दता; वह भव नदी म बाता ह । विषय-लपी लटरो न मक लट लिया ह । ह परभो, म तमहारी शरण माया ह, गब तम मञञपर कपा करो ।
दम स कीति मिलती ह, पट भरता ह, मान मिलता ह; मगर यह
सवहित का कोई कारण नही ह । जञान का अभिमान रखन स तर चरण मञषस दर हो जात ह । दह का पालन-पोषण करन स विकार तीनर होत ह । लोक- लाज या लोगो का लिहाज रखकर म अपना बात सवय कस करल ? ह भरमो, मञष एसा सरल उपाय बता कि आख तर चरणारविनद दख ।
पहल क ऋषि कया अजञानी थ ? उनहोन इस जग का तयाग किया । आठो सिदधिया उनकी सवा म ततपर रहती थी, फिर भी ससारी जनो की बदधि क अनसार नही चङ । जिनहोन कद, मर, पतत खाकर शरीर का पोषण किया ओौर निरनतर बन म वास किया, वहा मौन ल, आख बनद कर शात होकर वठ । ह अननत, एषी ही मर चितत की सथिति कर द ओर लोगो को मकषस दर रख ।
मरी एषी बदधि म माग लग जाय कि म तञम समा जाऊ । इस एकय- वदधि का निषव ही अचछा ह । त सवामी म सवकः; तर ऊचा म नीचा । यही कौतक करना । इस टटन मत दना; कारण कि जल जल को नही पीता, वकष जपन फल को नही लाता; मोकता अलग होता ह, वही उसकी मिठास का अन- मव लता ह । हीरा कनदन म शोभा दता ह, गहन क रप को सोना शोभता ह । गरमी म छाया सख दती ह । बचचो क मिलन स मा क सतनो स दध की धार छटती ह । एक-स-एक ही मिर तो उस समय कया सख होगा ? अरग रहन म ही भरा यह चितत हित मानता ह । म मकत नही होऊगा, एसा मन निचय करलिया ह ।
त बडा उदार ह, कपाल ह, अनाथो का नाथ ह । जो तरी शरण भ जाता
भगवान स परारथना १०५
` ह उसकी बात सनता ह । उसका सारा वौजञ त अपन सिर पर ऊकर चरता ह । जो मन, वचन ओौर काया स तञलस अननय रप हौ गए ह, उनक आवाज दत 'ही त उनक नजदीक आकर खडा हो जाता ह, ओौर उनकी हर इचछा पण -करताह । व माग पर चरत ह तब त उनकी सभाल करता ह ओौर कही कटि- ककर सामन आय तो त अपन हाो स उनह दर करता ह । तर दासो को चिनता
। नही ह ; कयोकि सब तरह स रकषण करनवाला त उनक घर म रहता ह ।
ह दव, म कीतति, लोक, दभ, मान ककर कया कर ? त मञज अपन चरण दिखा । जञान क बडपपन का मार लकर तो म तर चरणो स मलग जा "पड गा ।
भर परमो, मस लघता दो । चीटी को चीनी क दान गौर एरावत रतन को 'कश की मार ! जिसम वडापन ह उस कठिन यातनाए भोगनी पडती ह । 'इसकिए छट स भी छोटा होना अचछा ह ।
ह दव, यदि आप वद-परष ह, तो वदो न आपक विषय म नति" शबद
का परयोग करक आपको भिनन कयो बताया ? ह अननत, तम सवगत, सरव- वयापी होकर किस कारण मसस विग रहत हो ? यजञ क भोकता आप ह
तो वह सफल कयो नही होता ? उसम कछ कमी रह जान स कषोभ कयो होता ह ? सब भतो क अनदर अगर आप ही ह तो यह बाहरी भद कयो दिलाया ?
तप, तीरयाटन, दान क आप ही मतिमनत सवरप ह, तो इसस अभिमान कयो
होता ह ? आपक दरवाज पर खडा होकर य आवाजञ लगा रहा ह, कषमा करना ।
रवि का परका हीः रातरि का नाश करता ह । बह न हो तो बहत-त दीपक
जान स रातरि का नाडा हो जायग। कया ? उसी परकार सरववषठ हरि ही मर पराणो म वस । इसस अनभव म न आनवाली बातो का अभी अनभव होन लगगा । राजा क साथ होन स कोई वाधा नही आती ओर विभिनन मोधका-
१०६ तकाराम-गाथा-सार
सिमो स रारथनाए नही करनी पडती । इसस जनम आदि बनधनो का नाश
होगा, कयोकि निकटवरती हरि पर परीति ह । |
ह परमो, एसा करो कि किसीस बोलन का परसग न आय, कयोकि यह सब उपाधि ह । एक तमहार नाम विना सब शरम वयथ ह । मन क अनय सकलप होन स पाप-पणय पदा होता ह । इसछिए वाणी नारायण क ही निकट
॥िघरातिल1
ह परभो, मरी एक विनती सनो । मजञ मकति नही चाहिए; मङञ बङणठ
का वास नही चाहिए; उसस सख का नाश ह । कीततन क समय हरिनाम-चितन
का रस अम ह । ह मषरयाम, अपन नाम की महिमा का तमको पता नही ह, मह ह ; इसीकिए कना मञ परिय लगता ह '
आजतक जो हमा सो हमा । भविषय म म अचछा मधर भाषण करगा। अब मर अपराघो को आप मन म न लाइय। आपक नाम का चिनतन करन
म तनिक भी वाघा न पडन †जिए।
ह कषावत; तरी माया मरा समजञ म नही आती । जनम दनवारा कौन मौर जनम लनवाखा कौन ? दाता कौन ओर मागनवाला कौन ? भोकता कौन ओर मगतानवाला कौन ? रपवान कौन ओौर करप कौन ? सव जगह कवल त-ही-त वयापत ह । तर सिवा कछ नही ह ।
ह मगवान, मक यही दो कि मर मख म नाम हो गौर सतसगति मिक ॥ ` मञस वहिरग सवा न लकर मरी भावशदधिरपी अनतरग सवा छ । ,
ह दातार, अगर सारी दनिया मिल जाय तो भी मञच परयापत नही लगगी ॥ आदि-स-अनततक मकषस मर हई, यह परतीति मजञ नही होती ।
ह दव, मञञम गौर तश कोई मद नही ह । जो क ह वह त भौर त-दी- तर ह । म पणरपण तर सवरप क अनदर ह । मरा समसत बर तरा ही ह ।
भगवान स पराथना १०७
ह दातार, नरसतति ओर कथा-विकरय मर दारान होन दो 1 परसतरी
ओर पर-घन की इचछा मर मन म न आन दो । लोगो का मतसर ओर सतो कौ
निनदा मञस न होन दो । दहाभिमान न होन दो । अपन चरणो कौ विसमति
बार-बार न होन दो ।
ह दव,यदि म मायाजाख म पड गया, तो तमको मल जाऊगा, इसछए
जञ सतान न दो । मक वय जौर भागय न दो, इसस जी का उदवग बढता ह।
मघ फकरीर सरीला करो जिसस रात-दिन जीभ पर हरि का नाम रह ।
भरनतर परसतरी को माता-समान न दख तो आखो कौ मङञ जररत नही
। ह। मर कान यदि किषीकी भी सतति या निनदा सनन म कषट न मानतोत
उनह बहरा कर द । तरा विसमरण हो जाय तो पराणो क रहन स कया लाम ?
बीज क पट म वकष रहता ह ओर वकष क पट म जस वीज रहता ह, उसी
परकारःह दव, हम दोनो एक-दसर क अनदर समा जात ह । पानी म तरग उतपनन
ोती ह गौर फिर व तरग पानी म ही समा जाती ह । बिमब ओर परतिबिमब
दोनो ही एक सथान म रय हो जात ह ; उसी परकार ह दव, आप ओौरम भी
एक दसर म लय हो जात ह ।
ह दव ! त कलपवकष ह, म जो इचछाए करता ह, उनह त परी करता द ।
ह दव ! आपक सिवा म किसीका आशरय नही कतवाला । मत भय,
लजजा ओर शका का तयाग कर दिया ह ।
ह दव ! वद ओर शासतर स तकष कोई नही समङ सकता, परत भाव ओर
भवति रा त निकट ही खडा दीलता ह । शरणागत भकतो क त आग-आग
चलता हआ उनह सचचा रासता दिखलाता ह ओर उनह भटक नही दता ।
त एक होत हए मी अपन माननद क लिए नाम रपातमक जगत का विसतार
करता ह ओर उसम आननद स लीला करता ह।
१०८ तकाराम-गाषा-सार
ह राम ! तर परमाननद सवरप ह, त परम परषोततम ह, त मचयत ह,
अननत ह, उपाधियो का हरण करनवाला ह, अविनाशी ह, अलकषय ह, पर- बरहम ह, लकषमी का सवामी ह, मगल-सवरप ह, शभदाता ह ।
ह परमो, तञषस यही मागता ` कि त मजञ सतो क हवा कर द । त उदार हो जा जीर मजञ सतो क चरणो क आग छ जाकर रख द ।
: १० :
विचार-मोकितिक विवकपवक भोग भोगन स तयाग होता ह । अविचार स भोग का तयाग `
तयाग न रहकर भोग बन जाता ह । जिन करमो स दव-मिलन म अनतराल हो, व पाप कम ह ।
टटा हदय नही जडता ।
परवोपाजित पाप हमार हित म बाधक होत ह ।
अनन मिलना, मान होना, दरवय मिलना-सव परारबध क अधीन ह ।
अभयास स असाधय भी साधय हो जाता ह ।
मखय घम ह दव-चिनतन; आदि-स-अनततक शर रणागण म अपना ` ` पराकरम दिखाता ह, मीर अपन घर बठा कापिता रहता ह ।
जब सचमच दह म दवी रावित का सचार होगा, तव कया कमी रहगी ?
समाघान ही पजा ह 1
जबतक रणभमि नही दीख पडती, तभीतक यदध कौ बात करना आसान ह ।
मिषटानन आदि विास क भोगो स अपनी दह पषट करना अवमो को ही माता ह । दह-रकषण जीव क हाथ म ह कया ? मालम भी न हीगा ओर यह
सषण-भगर शरीर एक दिन चरा जायगा ।
| बरहम करमाकम स निरपत रहती ह 1 सहज बरहय भान की जगह पाप-पणय
११० वकाराम-गाथा-सार
को सथान नही ह ।
आशा क निरसन म ही हित ह ।
अनताप स दोष निमिष-मातर म चङ जात ह, मगर वह अनताप आदि-
स-अनततक रहना चाहिए । अनताप म नितय सनान करना ही परायरिचतत ह । अनताप स पाप सपश नही करता 1
बड-छोट का मद-भाव दया-धम का नाशक ह ।
जान दिय विना लाम मत म नही हो जाता । रण म शर क जान दन स दना लाभ होता ह ।
आघार क विना बोलना मानो दादी-मा की कहानी ह । जबतक भग- वान की पहिचान तही होती, तबतक सब वयथ ह ।
शीशा अगर हीर कौ तरह चमक भी तो भी वह हीरा नही हो जाता । उसी तरह दसर को दखकर, सीखकर डौर दिखाया भी तो वह सचचा नही होता ।
परम बहत बडा ह, मगर भकतो क भाव क कारण छोटा होकर उनक दिलो म रहता ह । भवित क जोर स जसा कराय वसा करक मवतो की इचछा परी करता ह । जगत का दान करनवाला महान दवभकतो स तलसी क पतत , ओर पानी मागता ह ।
६. वाणी बोलती ह मगर अनभव दकभ ह ।
यथाय बात न कहकर अचछ लगन क लिए जो ओौपचारिक भाषण करत ह, व अघोर नरक भोगत ह ।
सचचा शर हौ मान पाता ह । अनय सनिक कवर वोला दोत ह ।
१ कक
विचार-मौकितिक १११
जिस दिन सत घर आय, वही हमार दिवाली-दशहरा ह ।
इस भवसागर स मन ही पार उतारता ह, ओर मन ही चौरासी लाख योनियो क वन म डाखता ह ।
सतो की महिमा बहत दखभ ह । हम सवय सत हो जाय, तभी उनक माहातमय का पता ग सकता ह ।
जीवन को हरि क अरपण करन स सत-पद मिरता ह ।
सवका ल सचमच मिरता ह, उस पान क लिए किसीको वल-परयोग की आवशयकता नही होती ।
छाया की अभिराषा म कया ह ? जल म पड तारो क परतिबिमब को मोतो
समञचकर हस चोच मार-मार कर जान गवाता ह ।
सब आगमो (शासम) का मथन करक निकाला आ सचचा नवनीत
भगवान ह ।
जो सतो को परिय ह वह काल काभी काल ह]
अभयास स सब काय सिदध होत ह । कोई एसा का न काम नही ह जो
अभयास स सिदध न हो जाय, मगर जबतक अभयास करन वा निङचय नही
-किया जाता, तबतक कठिन ह । रससी को रगड स पतथर तक कट जाता ह ।
अभयास स वि तक को खाकर पचाया जा सकता ह । मा क पट म } महीन
क बालक क रहन योगयः जगह शर म होती ह कछ ? लकिन धीर धीर उसक
“रहन योगय जगह हो जाती ह ।
जबतक विरवमभर कौ पहचान नही हई, तभीतक मितरो ओर भाई-
जनदो का परम ह। नारायण, विरवमभर, विशवपिता का अनभव होत ही जगत
११२ तकाराम-गाया-सार
मिथया दीखन लगगा । सरज जवतक उगा नही तबतक ही दीपक का कामः
ह 1 सय क परकाश म वह यो ही निसतज हो जाता ह । दह सबध तो परारबधः
स होता ह, अपना काम तो नारायण स ही रहता ह ।
लघता अचछी, कयोकि उस हालत म कोई नर नही धरता ।
भोजन दखन, कहन ओर खान म अनतर, बडा अनतर ह । हीर का मलय पारखी ही जानता ह, मढ को तो वह चकमक पतथर सरीखा लगता ह 1
योगियो की सपदा तयाग ओर शाति ह । इसस दोनो लोको म कीति ओर मान की परापति हो जाती ह । तषणा स जीव (कषटी' होता ह । सव
कततवय बदधि का तयाग करन स जीव शिवपद को भोगता ह ।
= मन म धय ओर कषमा न हो तो जटा रखाना ओर भसम गाना एसीः
दह विडमबना ह, जस मद का शयगार करना ।
चितत म शाति रखन स सव सखो की परापति होती ह }
सतय बोलन क लिए हरि कौ परापति वयथ ह । एक सतय बोलन स ही' अतयत परोपकार होता ह । कवासना का मल छोड दन स मन शात हो जाता ह ॥
जो गर शिषय स सवा न लकर उस दव समान मानता ह, उसीका उपदश फलता ह, रोष क उपदशा स दोष मातर गता ह । जो दह-भाव स उदासीन ह. उसीको सचचा बरहयजञान ह ।
आशा, तषणा, माया य अपमान क बीज ह, इनका नारा करन स आदमी लोकपजय हौ जाता ह ।
जो जस धयावगा, मगवान वश ही रप म दकषन दगा । जीव जोकः
क
व~ 7,
| ॥
विचार-मौकतिक ११३
सवन करता ह, वह सवकर हरि भोगता ह 1
` किसी परकार का सशय रखना ही गष ह । मन क भल-बर सकलपो स ही पणय-पाप होता ह, इसलिए उततम सकलप ही शम ह । चितत शदध करन म ही कलयाण ह ।
दव का कपा करक बोलना ही परसाद ह । इस आननद स आननद की वदधि
करली चाहिए । .
जिसन आशा का अनत कर दिया, दव उसीक अनदर निवास करता ह ।
जिसक दिर म आशका नही ह, वही मबत ह ; भौर जिसक चितत म लजजा, चिनता, मोह ह, वह बदध ह । जो एकात सधन करता ह, वह सख-शाति
पाता ह ओर जो रोक म दभी बना फिरता ह, वह दखी रहता ह । दःख स छटकर सख परापत करन का उपाय छोटा-सा ही ह, मगर यह जीवउसन
जानकर इधर-उधर भटककर दखी होता ह ।
जो सब जीवो क परति नमर हो गया ह, उसन अननत परमातमा को अपन
हदय म बनद कर लिया ह । इस परकार शरीरग को जीतन म ही सचची शरता
ह । सबक परति नमर होना ही पणतव का कारण ह । पानी पतला होन स तक
तक जाता ह ।
जो अनियमित ह, उस दःख व कषट होता ह ।
नमरता ही भवसागर पार करन का सारभत साषन ह । बडपपन का
भार सिर पर कगा तो सागर म इव जायगा ।
जो आदा स बधा हआ ह उस सार जगत का दास समञलना चाहिए 1
जो उदासीन ह, वह सब लोगो का पजय ह । जानकार क पीछ उपाधिया
रगती हः गौर अनजान को पका-पकाया खाना मिलता ह ।
श६४ बकाराम-पाथा-सार
मन षर अशा चाहिए \ नितय नया दिन जागति का होना चाहिए 1
जो जस बर वस चक, वह मनषय अमोल ह । .
जिसका रखवाला दव ह, उस कौन मारगा ? काटो स भर जगर म वह
घम, तो मी उसक पर म काटा नही लग सकता । न उस अगनि जला सकती
-ह, न पानी डवा सकता ह । विष उसक लिए अमतःहो जाता ह.। त धह रासता
रता ह न किसक फ म पडता ह । उस कभौ यम-बाघा नही होती । उस-
पर आनवाली गोलियो भौर बाणो स उस नारायण बचत ह ।
दव न जव कछ करना ठान लिया, तो फिर वहा किसीका क बस नही
(चर सकता । हरिखवनदर गौर तारा रानी.स डोम क घर पानी. भरवाया ।
भगवान पाडवो क सहायक थ फिरःभौ उनकाःराजय नषट करा दिया। इसलिए
{निरचल रहकर दखिय कि सहज ही कया-कया होता'ह । <
बाहरी वष धरन स पट भरा जा सकता ह ; परलत अनतःकरण शदध करक
कमाई किय बिना परमाथ नही होता ।, .
तीरथयातरा, बरतादिक फलाला क करन स मति नही मिलती । मगवान
-की.शरण गण ^ ग सब साघन वयथ ह ।
. वयभिचार क निषववाचक शबद सनकर पतिवरता को आननद होता ह, परनत उनहीस वयभिचारिणी क मन को घकका रगता ह 1 अबदध आचरण म
माग लग; जग म शदधपन स रहना ही मला ह । घरमाचार सनकर सदा-
'वारियो करो आननद होता ह, दराचारियो को दःख । यदध स शर को उललास
होता ह, नामद का. मानो वह मरण-परसग ही होता ह । आग स शदध
सोना.अधिक उजजवल होता ह, हीन काला पड जाता ह । जो घन की मार
सन टट, चही हीरा ह ।
सवय कमा म जाकर दसर को समाग दिखाय, उसका जो उपकार `
आ न? ०८; 05 + १०५९. ऋणा र,
विचार-माकतक ११५
न मान वह अदवितीय मख ह । जो सवय विष-सवन करक जान की अवसथाम दसर को विष-सवन न करन का उपदश दता ह; जो सवय बता हआ अगाध पानी कौ सचना दता ह, उसका उपकार मानना चहिए कहनतराल क अवगण छोडकर गण गरहण करन च,हिए ।
धीरो म जाकर तन कया किया ? ऊपर-ऊपर स चमका परकषालन । जस कट-वनदावन फल को या करल को शवकर म धोकन स भी उसकी कटता नही जाती, उती परकार तीययातरा स अनतःकरण क मल नषट नही होत ।
सवक को सवामी की आजञा का पालन परणोतसग होन तक करना चाहिए।
सवामी स भर होन पर समय दखकर व वजरभदक उपदश स भी उप सनाना चाहिए । वही सवक कहकान योगय ह । एस ही सवक को सवामी का अनन खान का अधिकार ह।
सातविक रोग अलपभाषी होत ह ओर मककार बड-बड करनवाछ ।
दव को सबका पालन-पोषण करना पडता ह, ओर हम तो अपन खान
कौ भी चिनता नही करनी पडती । दव को लोयो क पाप-पषयो का विचार करना पडता ह, हमार लिए सब लोग भल ह । दव क पीछ जग का उतपतति-
सहार रगा हआ ह, हम थोडा-बहत भी काम नही करना पडता ; दव क
पीछ बडा काम-घघा लगा हम ह, हम हमशा खारी ह--विचार करर तौ
हम सब परकार स दव स अचछह। ;
गो को ङषणापण करक भोगन स भोग तयाग सवरप.हो जाता ह । इन भोगो का भोकता दव ह । यह निरिचत रप स जानकर आपक अलग
हो जान स इसी दह म भगवान की परापति हो जाती ह ।
दव उदार ह । वह थोड का बदला बहत दता ह ।
दव अपन दासो का सवक बनता ह ।
११६ तकाराम-गाया सार
पानी सजजन, दरजन सबकी तषणा शात करता ह । वह किसीको बखान
नही जाता, न किसीको अपन गण सनाता ह ।
भितन-भिनन अलकारो म रहत हए मी सोना एक ही ह 1 सवपन कौ लाभ-
हानि जागन पर मिथया हो जाती ह ।
कौआ मत जानवरो का मास खाता ह । तीतर ककर ओर हस मोती
खाता ह । जिसकी जसी पसद ह, जिसका जसा माव ह, नारायण उस वसा
ही दता ह ।
जहा भकतराज रहता ह, वहा सवय भगवान रहता ह । इसम कोई
सदह नही 1
परमा का सवा मम पाडरग क विना कोई नही जान सकता 1
-कोई भी कला सिखाई जा सकती ह, परनत परम किसीक भी हाय म नही ह ।
जसी बदध, वसी सिदि।
जिसक पर म जता तक नही ह ओर राजा स बर करता ह, उस धिककार
: ह। वीटी क महम हाथी का आहार डालन स उसका भार वह उठा नही
, सकगी गौर . मर जायगी.।. दइसकिए अपनी शकति का विचार करक शरता स
तीर छोडना चाहिए ।
पातरापातर का विचार किय विना भख को अनन दना चाहिए ।
अपना जीव दवापण करन का नाम ह दव-पजा । इसक बिना सब बकार ह । जसा बीज, वसा फर; जसा कारण, वसा काय । जो जितना नमबहोगा,
. ईङवर इतना ही उस मान दता ह ।
मकत गौर मगवान म भद नही ह । अगनि क ससग स खकदी मभति हो `
विचार-मौकतिक ११७
जाती ह ।
पराणिमातर क परति हम निरवर होना चाहिए । यही सरवोतकषट साघन
ह । नारायण तभी अगीकार करगा । इसक विना सारी वडबड वय ह ।
चितत क निमल होन पर ही सब काम होत ह ।
जबतक घी म छाछ ह, तबतक` वह कड-कड आवाज करता ह, शदध होन पर निदचक शात हो जाता ह ।
ताथयातरा की अपकषा जहा रहत हो वही अधिक पणय किस परकार सपादन
किया जाता ह, इस रहसय को जानना चाहिए । जिनकी एक घडी भी वयथ
नही जाती, एस मकत की सगति अतयततम ह । जो नाम-चिनतन करत ह
ओर करात ह, व इस मव-नद को पार करन कौ नौका ह । एस परोपकारियो
क चरणो पर मरा मसतक ह ।
सोना ही सतय ह, अरकार मिथया ह ।
यदि हमारा अहकार नषट हौ जाय तो नारायण हमार घर आकर
रहत ह 1
सार जग को विषणमय मानना वषणवो का घम ह, परनत व उस नहौ
जानत ।
विषयो स मन परावत हमा कि शदध आतमजयोति दिखाई दन
रगती ह ।
अचछा ओौरनरा बदधि को कलपना ह" मल आकति म मद नही ह, एक
पालकी उठाता ह, एक उसम बठता ह, सबको कदम-कदमपर अपन-अपन
कम मोगन पडत ह । एक क समान दसरा नही ह ; भिननता परकति का
सवरप ह ।
१२१८ तकाराम-गाया-सार
उदासीन का दह बरहमरप ह । उस पणय-पाप नही लगत । उसक अनदर
अनतापरपी अगनि की जवाला जलती रहती ह 1 अहभाव न ही अनतःकरण को गनदा कर रखा ह । जबतक आकलता नषट नही हई तबतक चितत वदधा- वसथा मह ।
आशा छोडकर हम बनधन का पाश तोड दग । अनय बातो का बोञच
सिर पर लन स निज पथ दर पड जाता ह । उस जीन स कया लाभ, जिसस
ईश-परापति म बाघा पड जाय ?
जिसकी सगति स दःख होता ह, उसस परीति कस हो सकती ह ?
` बदधिहीन को उपदश दना अमत को विष बनाना ह । आकसी वयति का हदय खराब होता ह, जस कोई शव कामनाओ स अकिमत हो ।
भगवान क चरणो म परीति रखन स सबकछ परापत होता ह । एक-दसर की मदद करक हम सव उचछा माग अपनाय ।
ससार असार ह, भगवान ही सार ह । ईश-चिनतन क अतिरिकत सब शरम वयथ ह ।
सव भतो म शरौ नारायण साकषी रप रहत ह, फिर भी अवगणी का दडन मौर गणी का पजन होता ह ।
जिसस अपन चितत को समाघान हो, एसा सवहित हम सवय ही जान । बहत-स रग-रपो म माया फर हई ह । उसकी इचछा करित करनाही अचछा । विशवमभर को अननय मवित स चितत समपण करक निःशबद रहन स ही उसकौ पजा ठोती ह ।
आमिष कौ जाशा स मछली काटा निगलती ह ओर मरती ह । शा न ही उसक पराण छिय । अर दलो ! बकरा कसाई स कसा मोह रखता ह !
4
विचार-मोकतिक १९९
काम-करोध को शात करक सब जीव-जनतमो को नमसकार करन का
नाम ही मवित ह ।
सरवभोकता नारायण ह, म नही, एसा जिसकी वाणी बोलती ह, उसक
सब भोग नारायण को अरपण होतह । भोजन करत समय अथवा ओौर काय
करत समय “सबक भगवान क अपण हो' एसा कहना चाहिए । इसम कछ
खच नही होता, परनत य शबद दव कोभरिय ह । `
सजजनो का सवहित इसीम ह कि लोगो क लिए कलयाणकर नीति,
जसी .सवय को परतीत हो, कह ।
.(परमाथ का) अपार भडार भरा ह, कितना भी खच करन पर खाली
नही होता ।
जो मान चाहता ह, उस अपमान मिलता ह । यह सिदध ह कि आखा अनत
म नाा.-करती ह । इचछानसार फल मिलता कहा ह ? फिर भी वासना ही
भिखारी बनाती ह । किसी ढोर का नाम राजहस रख दन स कया होता ह ?
दष म मकखन ह, यह सब जानत ह, परनत जो मयन जानत ह! वही उस
अलग कर पात ह । लोग जानत ह कि काठ म अगनि ह, परनत धिस.विना वह
जलान का काय कस करगी ? मलिन दरपण को साफ किथ.बिना मह कत
दखा जा सकता ह ? र
जो दव हो गया हस सव जगदव सवरप रगता ह । यहा अनमव चारहिए,
कोरा शबद-गौरव नही ।
छनी स छील-छीरकर तयार हई दवमति दवपन कौ परापत होती ह,
परनत यदि वह बीच म ही टट-फट जाय, तो कोई उसकी धन नही
-करता ।
१२० तकाराम-गाथा-सार
सय जचछ-बर सब रसो का शोषण करता तो ह, परनत उनका कोई गण-दोष उस नही लगता । वह सवय सबस अकिपत रहता ह । बरहमजञान भी एसा ही होता ह ।
अगनि किसीको बलान नही जाती कि मर पास आकर अपनी ठड दर कर रो । पानी भी किसीस नही कहता कि सन पीगो' । भगवान भी नही कहत कि मरा समरण करो; परनत जिस अपना उदधार करन की पडी होगी वह उसका समरण करन लगगा । .
सखरप जीवातमा ओर सखरप परमातमा, इन दोनो का तातविक योग हो जाय तो फिर इनका सबष तोड नही टटता । जिसक परति परन हो वह दर मी होतो पास लगता ह; कारण कि परम तो इतना विराल ह कि आकार का गरास वना क!
पसवाक को दनिया मान दती ह ; परनत दरवय स उतपनन होनवाला मवा दरवय क ऊपर आघार रखनवाला सौभागय नादवत ह।
सव सख क सग ह मौर उनह कछ दिया जाय तभी व काम आत ह| दःख क समय या अत समय कोईकाम नही आनवाठ । मर शकतिहीन हो जान पर नाक गौर अख बहन लगगी भौर जोर तथा बाल-बचच मजञ छोड कर चल जायग । मरी अपनी सतरी मी कहगी, सजा, मरता भी तो नही ह । साराघर थक-धक कर खराव कर दिया ।' ह भभो, अनतकाल म तर सिवा भरा कोई सगी नही ह ।
पडित जौर कथावाचक बड जञानी तो होत ह, परनत परम-भवित क सवाद स व अनजान होत ह ।
ब की पीठ पर शवकर कौ बोरिया हो तो भी उस कडबी ही खानी पडती ह । कीमती चीजो की पविया ऊट कौ पीठ पर छादी जाती ह, पर उस
विचार-मोकतिक * १२१
तो भख कगन पर काट ही चवान पडत ह । उसी तरह बडी-बडी आशाओ
स नाना परकार की परवततियो दवारा परापत कौ हई दौरत यहा-की-यही
रह जाती ह ओर उस कमानवाठ को उसक सग-सवधी वाध-जकडकर यम
क हवाल कर दत ह ।
ससार क सामन नाचनवाठ भाड क बदर किस काम क ? जव यम
उनक काम का हिसाब मागगा तो उनह दात निकालकर खडा रहना पडगा ।
` भमि तो सारी पवितर ह; वासना ही अपवितर ह ।
एक ही गह स विविध परकार क खादय पदारथ तयार होत ह ओौर उनह
खान कलिए जीभ रकचाया करती ह । भोग भोगन स उनक परति राग उतपनन
होता ह ओर उनह बार-बार मोगन का मन होता ह । भोगय पदाथ जो अपन
सामन स खिसक जाय, तो उनक परति नितयाकषण अधिक परबल होतो
जाता ह । समदर क अनदर एक-क-बाद-एक लहर उतपनन होती रहती ह वस
ही विषयो का आकषण ह । अपन बालक को खिलान क वाद भी उसकी मा
उस बारबार हाथ म ककर लिलाती ह ओर खिलात नही रकती । छोट
बालक की बोली म जो भिठास ह, उसीका ऊपरी सवाद चखन स वह माता
एसी विवश हो जाती ह कि उसका सवन करत-करत उस कदापि तपति
नही होती ।
एक म जिसकी वदधि सथिर नही हई, उसम धय नही ह । +
अपन चितत को दव क साय वाघ रकख तो वह उसक पास रहता ह ।
एसा होन स ईदवर क भका स अनतःकरण हमशा परकाशित रहता ह ।
हदय क अनदर दव का परकाश होना अति उततम ओौर मर ह । ईरवर का
समरण करन स सारा बरहमाणड पट म समा जाता ह ! ईरवर क साथ यदि हम
अपना परम-सबध अखड रख तो सव परकार क साभ हम आकर घर बठ
मिलत ह ।
१२२ तकाराम-गाया-सार
पानी म पानी मिल जान .पर कौन कह सकता ह कि यह पहक का पानी ह ओर यह बाद का ?
दह तो मतय कौ सराक ह । फिर भी लोग दहिक परपच का लोभ क 7. करत ह ओर उस सारवसत कस मान ठत ह ?
सचित कम अपन-अपन विविघ भोग भोगन क लिए यह ररीररपी सम सथान सवय तयार कर जत ह ।
मञञ हीनता स जीना पड तो जीन स कया फायदा ?
जो सकलप-विकलप क वशीमत ह, वह पराधीन ह । काम तो सहखमखः राकषस ह जिसकी कभी तपति नही होती । अतः हदय क अनदर उस लय कर दन स सख की परापति होती ह ।
सबस बडा विघनकरता दहाभिमान ह । इस अभिमान का जिस सपदा भी नही हमा वह कदीपक पदा हमा ह एसा समजञो ।
ससार अपवितर ह एसा विचार मन म लानवाला ही अपवितर ह । भतमातर क परति दया रखना ही मखय घम ह ओर यही स त-काय कहलाता ह 1
किसीको अजीण हो गौर उस सिर भौर डादी मडान की सलाह दी जाय, तौ यह उसका उचित इलाज नही ह । अपन योगय आवदयक करमो को विधिवत करना चाहिए भौर व भी उतन ही करन चाहिए जितन जञावदयक हो ।, ८
दव-पीत बचच कौ मा जिन-जिन पदारथो का सवन करती ह उनका सदततिम माग दष म आ जान स वाखक क पट म ही जाता ह । यह सब ऋणानवनय का सबष ह, यह म सरल भाव स सवस कहता ह ।
विचार-मौकतिक १२३
चावल पक जान पर उस पनः चलह पर रखना वयथ ह । योगय समय योगय काम करन का नाम ही धम ह 1 हर काम क किए यथोचित समय
होता ह ।
मन को जस विचारो क गम रग, वस विचारो का रग उसपर चद
जाता ह ओर फिर उस उसी बात की धन लग जाती ह
भगवान क ऊपर जिसका दढ विदवाकष जम जाता ह उसका हदय तो
अनायास बरहमरस स भरपर बन जाता ह ।
पतथर क अनदर भतित-भाव स दव की कलपना करन स अपनी भावना
क जोर पर भाविक भवत तर जायग, परनत बह पतथर तो पतथर ही रहगा ।
कोर सतरी अपनी अचछी घोती फाड डाल ओौर नग-घडग हौकर खडी
रह, तो हम जानत ह कि वह सचमच पागल होगई ह । परनत मन म तौ पागल-
पन न हो ओौर कोई पागल होन का पाखड कर, ओर दध व दही दोनो म पर
रखकर बडी-बडी बात कर, उसस कया होता ह ? मगजल को दखन स ओर
उसका सवन करन स पयास नही बञचती । जो अपनी कायसिदधि क लिए जात
समय दसरो की बाट जोहता नही खडा रहता, उस ही सचचा शरवीर
समञजना ।
दरागरह काही नाम पाप ह ।
अपना सन वश म करन का उपाय यदि हाथ म आ गया तो फिर कया
दलभ ह ?
कोई पतथर क साथ अपना सिर फोड तो उसका सिर फट जायगा,
परनत पतथर.नरम न होगा ।
अवसर का खाभ उठानवाल म यवित, बल, सवक चाहिए । कन
१२ तकाराम-गाया-सार
लाम होगा ओौर कव हानि, इसका कोई नियम नही ह । य अकसमात होत ह । जो काम करना हो, तदविषयक पण विचार कर लन क बाद योजना- नसार काय करना चाहिए, जस फसक की तयारी म ।
सवरप का जञान होन पर सवकछ शदध हो जाता ह । दरागरह नही रहता । वहा हष-शोक का नाश हो जाता ह । सवरप सविति म आकर वयवितत दसर स निराला बोलन लगता ह ।
भगवान को सब कम अरपण कर दन पर मन निरदिचत हो जाता ह । एसा न करन स वयथ भरम उतपतनहोता ह मौर करम-बनधन म वध जाना पडता. ह । एक मखय.दव की सवाः किय विना सव निरक ह ।
परमाथ क माग म वाघा डालनवार हमार पाप-पणय ह; ओर पाप- पणय का कारण दह-बदधि ह । शरवीर इस शिकज स एक तडक म छटकर मकत हो जात ह ।
बरहमसस का भोजन करन स परतयक परास पर परमदधि होती ह । मन म सचची लगन हो तो राकति भी आ जाती ह । मन उदार हो जाय तो किस बात का अभाव रह ?
शोक करना वथा ह । उसम स खराब कमाई की दगघ आती ह । जिसक अनतःकरण म जो दोष होता ह वही उस पीडा पहचाता ह।
विचार-मोकतिक १२५
अनतःकरण क अनदर जसा सवभाव होता ह, वसा बाहर परकट हौ जाता
ह ओर उसस मनषय की पहचान अपन-माप हौ जाती ह ।
निङचित रहन स मन समाधान अवसथा म रहता ह ।
निनदा ओर सतति दोनो मिथया ह ।
को करन स पणय का नाश हौ जाता ह ।
` यकत आहार करना, नीति क रासत चलना, वरागय, आदि गणो को
घारण करना- य ही तर क मखय साघन ह ।
अनतःकरण को शदध करना ही मखय काय ह ।
कषमास ही सबका कलयाण होता ह ।
मन क सकलपो स पाप अथवा पणय हए विना रहता ही नही । जो-कछ
होता ह उस सबका मर कारण मन ह । मन का सवभाव एसा ह कि जिस
रस भ (विषय म) मिला.द उसक साथ मिल जाता ह ।
करोध का उदय होन पर मह स जो शबद निकलत ह, व नरक-स रीख
हत ह! परचातताप-रपी तीय म सनान करक आतम-बोघ रपीसय क दन
कर तमी शदधि होती ह 1
उपकार करना पणय ह मौर सताना पाप । इसक अतिरिवत ओौर न कछ
पणय ह, न पाप । सतय भाषण ओर सतय आचरण ही मखय धरम ह; मिथया-
भाषण ओर मिथया माचरण ही पाप को बदढानवल ह । पापपणय का यही
एक मरम ह, अनय नही । शरीहरि का नाम-समरण ही मखय गति ह ओर उसस
विमख होना ही नरकवास ह । सतो की सगति ही सवमवास ह । सतो क
८
१२६ तकाराम-गाथा-सार
परति उदासीन माव रखना या उनह धिककारना ही घोर नरक ह ।
दव की परापति का सचचा मम यह ह कि चितत म उपरति होनी चाहिए - ओौर रोम-रोम म हरिगरम वयापत हो जाना चादिए ।
= नवाल कामन क बड को खाना न मिक, कलपवकष क नीच वठनवाल को
मखो मरना पड--यह कभी हो सकता ह ?
" कभी कोरर मा किसी वसत को फकन का ठग करक बगल म छिपा लती ह, वसा ही खर दव भी तर साय लाड लडाता हआ खर रहा ह 1
एक बार जो इस जीव को उततम परष क सख का अनभव हो जाय तो
फिर वह कभी दःख का सपश न होन दगा, कभी वियोग न होन दगा 1 दव सरव -एरशवय-समपनन ह ।
सवय तर जान म कया बडपपन ह ? दसर जडबदधि लोगो को भी हरि- नाम परमी कर दना चाहिए } पथवी इतना बोजञा उटाती ह, इसस उस सवय कया लाम ? गाय अपना दष दसरो को द दती ह, सवय एक बद भी नही चखती । वरषा वषटि करती ह उसस उसक हाय कया आता.हौ ? सर, चनदर विशराम लिय विना परकाशदान करत रहत ह । कयो ? परोपकारारथ । य सव काम राम ही करत ह
सतय क विना कावय म रसनही आता । अनभवरहित कविता लिखन का पाप कौन कर ? थोथ अनभवहीन सकलप लजजासपद ह ।
गर क वचन सनकर जो उनदर अनतःकरण म धारण कर सकता ह, उस सरक जनतःकरणवाला कहना चाहिए; ओर जो धय क अभाव स हाय ! मरा कया होगा ? ' एसा रोना रोता फिर, उस हीनवदधि समदमना ।
जो अपना जौवभाव दव क चरणो भ समपित कर दता ह ओौर जो ससार
स
विचार-मौषतिक ` १२७
करीः उपाधि म पडता ह, वह कपण हौ ।`
जिसकी बदधि सवाधीन हो गई ह, वह जो क करता ह वह साधनरप ही हो जाता ह । जो दसर की बदधि का अनसरण करक काम करता ह, उस बडी हानि होती ह ।
जो अपनी इनदरियो को वश म रखता ह, -वह सब जगह उततम सममान पाता रह । `
जो सारी बात का सार जान ठता ह, उस जञाना समञलना ओर जो दसर क साथ वादविवाद करन म भपना भषण मानता ह, उस तचछ समञचन ।
जो गाय को ओौर अतिथि का भाग निकालकर जीमता ह, उस शदध आचरणवाका, ओर जो पगत म बठ हए दसर लोगो को.न दकर अकला ही खाता ह, उस अनाचारी कहना चादिए ।
दव भावानसौर फल दता ह । सब अपन-अपन भावानसार फल भोगत ह । सचित कमो क सिवा ओर कर साय नही जाता ।
वासना को जड स उखाड विना भवजार नही टट सकता ।
शरारनब म लिखा होगा सो होगा एसा कोई न कह । परयतन किय
विना दव की परापति नही होती । परारनधानसार परिणाम आयगा, एसा
विचार करक कया कोई काटो पर भी चरता ह ? अथवा जीवित साप पकडन की हिममत रखता ह ? इसकिए आतमोननति क काय भ परारनध विघन नही कर सकता" एसा विचार करऊ हरकोई अपना हित साध सकता ह ।
दव को पस-टक की कोई गरज नही होती 1 उसतो एकमातर मकति-
भाव की ही सपहा होती ह ।
१२८ तकाराम-गाथा-सार
सारी फजीहत का कारण यह ह कि लोग जीभ ओौर जनननदिय क गखाम हो गए ह ।
यदि अपना मन शदध होगा,तो जपना शतर भौ मितर हो जायगा ओौर बाघ,
सरप, आदि तक हमको दःख न द सकग । मन की निरमखता स विष भी अमत
हो जायगा । कोर हमपर परहार करगा तो वह भी हमको काभकरता होगा ।
घघकती अगनि भी शीतरता परदायिनी हो जायगी । जो वयकति मनषयमातर
को अपन जीव क समान मानकर उनक ऊपर परम रखता ह, उसक परति
पराणीमातर क मन म भी वसा ही भाव उतपनन होगा । जिस सा अनभव होन
लग उसपर नारायण की समपण कपा हई ह, एसा समञलना ।
(. १51८ # ५ एद € ८ १6 1
मडल का
आधयातमिक साहितय {10
गीता माता
भगवदगीता
गीता की महिमा
अनासकति-योग
गीता बोघ
गीता पदा कोश
विषण सहसरनाम
बदधवाणी
शरी भररविनद का जीवन-दशन
भागवत कथा
सत सघासार आतम-चितन
तकाराम गाथा सार
{110}