SHRUTSAGAR RNI : GUJMUL/2014/66126 · इनकी सगितं जेकरै,...

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  • 3SHRUTSAGAR January-2019

    आचायर् ी कैलाससागरसिूर ज्ञानमंिदर का मुखपत्र ISSN 2454-3705RNI : GUJMUL/2014/66126

    Year-5, Issue-8, Total Issue-56, January-2019

    वािषर्क सद यता शु क - . १५०/- Yearly Subscription - Rs.150/-अकं शु क - . १५/- Price per copy Rs. 15/-

    आशीवार्दरा ट्रसतं प. पू. आचायर् ी पद्मसागरसरूी रजी म. सा.

    संपादक सह संपादक संपादन सहयोगी िहरेन िकशोरभाई दोशी रामप्रकाश झा राहुल आर. ित्रवेदी

    एवंज्ञानमंिदर पिरवार

    १५ जनवरी, २०१९, िव. सं. २०७५, पौष शुक्ल-९

    प्रकाशक

    आचायर् ी कैलाससागरसिूर ज्ञानमंिदर(जैन व प्रा यिवद्या शोध-सं थान एवं ग्र थालय)

    श्री महावीर जनै आराधना केन्द्र कोबा, गाधंीनगर-३८२००७फोन नं. (079) 23276204, 205, 252 फैक्स : (079) 23276249, वॉटस्-एप 7575001081Website : www.kobatirth.org Email : [email protected]

    श्रुतसागर ુતસાગરSHRUTSAGAR (Monthly)

    वषर्-५, अकं-८, कुल अकं-५६, जनवरी-२०१९

  • जनवरी-२०१९4श्रतुसागर

    प्रािप्त थान आचायर् ी कैलाससागरसिूर ज्ञानमंिदर

    तीन बंगला, टोलकनगर, होटल हेरीटेज़ की गली मेंडॉ. प्रणव नाणावटी क्लीनीक के पास, पालडी

    अहमदाबाद - ३८०००७, फोन नं. (०७९) २६५८२३५५

    अनकु्रम

    ोमाया छाया एक है, घटै वधइ िछनमांिह ।इनकी सगंित जे करै, ितनहीकु सखु नािह ।।

    ह तप्रत ८४५३१भावाथर् - माया और छाया एक समान है, जो क्षण में बढती है और क्षण

    में घटती है, जो व्यिक्त इनकी संगित करता है, उसे कभी सुख प्राप्त नही ंहोता ह।ै

    1. संपादकीय रामप्रकाश झा 5

    2. आध्याित्मक पदो आचायर् श्री बिुद्धसागरसूिरजी 6

    3. Awakening Acharya Padmasagarsuri 8

    4. बारह भावना संिध आयर् मेहुलप्रभसागर 105. वरतीपुरमंडन श्रीमिल्लिजन स्तवन गजेन्द्र शाह 226. सोळमा शतकनी गुजराती भाषा मधसूुदन िचमनलाल मोदी 267. पुस्तक समीक्षा राहुल आर.ित्रवेदी 328. समाचार सार 34

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    संपादकीयरामप्रकाश झा

    श्रतुसागर का यह अंक आपके करकमलो ंमें समिर्पत करते हुए हमें अत्यन्त प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है।

    प्रस्ततु अकं में गुरुवाणी शीषर्क के अन्तगर्त योगिनष्ठ आचायर्देव श्रीमद ्बिुद्धसागरसूरीश्वरजी म. सा. की कृित “आध्याित्मक पदो” की गाथा ९३ से १०४ तक प्रकािशत की जा रही है। इस कृित के माध्यम से साधारण जीवो ंको आध्याित्मक उपदेश देत ेहुए अिहसंा, सत्यपालन, आहारािद से संबंिधत प्रितबोध कराने का प्रयत्न िकया गया ह।ै िद्वतीय लेख राष्ट्रसंत आचायर् भगवंत श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. के प्रवचनो ंकी पुस्तक ‘Awakening’ से क्रमबद्ध शे्रणी के अतंगर्त संकिलत िकया गया ह,ै िजसके अन्तगर्त जीवनोपयोगी प्रसंगो ंका िववेचन िकया गया ह।ै

    अप्रकािशत कृित प्रकाशन के क्रम में इस अंक में सवर्प्रथम आयर् मेहुलप्रभसागरजी म. सा. के द्वारा सम्पािदत “१२ भावना सिन्ध” प्रकािशत की जा रही है। श्री जयसोम गिण ने कुल ७२ गाथाओ ंकी इस कृित में मन को एकाग्र करने हेत ुअिनत्यािद बारह भावनाओ ंका पिरचय प्रस्ततु िकया ह।ै िद्वतीय कृित के रूप में आचायर् श्री कैलाससागरसूिर ज्ञानमिन्दर के सुज्ञ पंिडतप्रवर श्री गजने्द्र शाह के द्वारा सम्पािदत “वरतीपुरमंडन श्रीमल्लीिजन स्तवन” प्रकािशत िकया जा रहा है। श्री कीिर्त्तउदय गिण ने कुल १४ गाथाओ ंकी इस लघु कृित के माध्यम से १९वें तीथर्ंकर श्री मिल्लनाथजी की स्तवना की है।

    पुस्तक समीक्षा के अन्तगर्त इस अंक में श्रतुभवन संशोधन केन्द्र, पूण ेसे ई. २०१५ में प्रकािशत तथा मुिन श्री वैराग्यरितिवजयजी म. सा. के द्वारा सम्पािदत उपाध्याय श्रीचािरत्रनन्दी की स्वोपज्ञ किलकाप्रकाश विृत्त से िवभूिषत “स्याद्वादपुष्पकिलका” की समीक्षा प्रस्ततु की जा रही है।

    पुनःप्रकाशन शे्रणी के अन्तगर्त बिुद्धप्रकाश, पुस्तक ८२ के प्रथम अकं में प्रकािशत “सोलमा शतकनी गुजराती भाषा” नामक लेख का गताकं से आगे का भाग प्रकािशत िकया जा रहा ह।ै इस लेख के माध्यम से सोलहवी ंसदी की रचनाओ ंमें प्रचिलत गुजराती भाषा के स्वरूप तथा उच्चारणभेद का वणर्न िकया गया है। श्रतुसागर के प्रस्ततु अकं में इस लेख का पुनः प्रकाशन िकया जा रहा है।

    हम यह आशा करते हैं िक इस अंक में संकिलत सामिग्रयो ंके द्वारा हमारे वाचक अवश्य लाभािन्वत होगें व अपने महत्त्वपूणर् सुझावो ंसे हमें अवगत कराने की कृपा करेंगे, िजससे आगामी अकं को और भी पिरषृ्कत िकया जा सके।

    o O o

  • जनवरी-२०१९6श्रतुसागरआ याि मक पदो

    आचायर् श्री बुिद्धसागरसूिरजी(गताकं से आगे)

    (हिरगीत छंद)यवहार िन य वेदना मम लह ेकै ज्ञानीओ,गु गम िवना कूटाय छे झघडा करी अिभमानीओ;अ तर ्करेली खोज तेने वेदिवद्याओ मळी,एवी अमारी वेदनी छे मा यता िन य खरी. 93अ या म ज्ञानज वेद छे सहु वेदना पण अग्रणी,द्र यानयुोग ज वेद छे यवहार वेद िशरोमिण;समजाय साचु ंते ग्रहो कंकास ममता पिरहरी, एवी अमारी वेदनी छे मा यता िन य खरी. 94िव ो नितशांित प्रदा रा ट्रीय जे जे कायदा,यवहारथी ते वेद छे जेथी थता जग फायदा;वातं य मळतुं सवर्ने यां वेद िवद्याओ फळी,एवी अमारी वेदनी छे मा यता िन य खरी. 95वा यपणु ंते वेद छे शभु इ छवुं ते वेद छे,धिृतकीितर् काि त वेद छे ए पामतां निह खदे छे;ममता कदाग्रह यागीने साचािवष ेजावुं भळी,एवी अमारी वेदनी छे मा यता िन य खरी. 96यसनोिवष ेनिह वेद छे वाथ िवष ेपण जाणवुं,यां याय साचो वतर्तो यां वेद छे मन मानवुं;यां याय यां सहु वेद छे समजो दयमां संचरी,एवी अमारी वेदनी छे मा यता िन य खरी. 97जे जे प्रमािणक मानवो ते वेद छे जग चालता,जे जीवता जगमां रहीने, िव जीव जीवाडता;

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    जे लांच लेता निह किद, उ म जीवनने आचरी,एवी अमारी वेदनी छे मा यता िन य खरी. 98िनद ष मनडंु वेद छे सवेर् जीवोनुं िहत चह,ेपरमाथर् माटे प्राण द ेते वेद साचो जग कह;ेप्राणो पडे पण जठू पक्षोमां न जातो जे भळी,एवी अमारी वेदनी छे, मा यता िन य खरी. 99जे भदे भाव धरे नहीं ने सवर्नुं िहत आदरे,मतभदे िन दािदक सही अपकारीनुं िहत आचरे;ते वेदमिूतर् जीवती जे जागती जग िहतकरी,एवी अमारी वेदनी छे मा यता िन य खरी. 100साचा अमारा वेद अनभुव िशक्षणो जे जे मळे,साचा अमारा वेद ते छे दःुखडां जेथी टळे;साची अमारी वेदमिू िव मांिह केवळी,एवी अमारी वेदनी छे मा यता िन य खरी. 101यां राग निह यां द्वषे निह यां वेद क ार् ते खरो,ते वेदनो प्रभ ुछे खरो एवा प्रभओु अवतरो;ते स यना सागर प्रभ,ु अहर्न ्िवभ ुब्र ा बळी,एवी अमारी वेदनी छे, मा यता िन य खरी. 102सामाजीकी प्रगित करे क याण करवा सवर्नुं,तेना दयमां वेद छे, यां नाम निह छे गवर्नुं;सहु जीवना क याणमां विृ मझानी िहत भळी,एवी अमारी वेदनी छे मा यता िन य खरी. 103िनरवद्य प्रभनुी भिक्तमां फुरणा उठे जे िशवकरी;ते भाव वेदो छे सही अ या मभावे जयकरी,शिक्त अनंित खीलवे िनज आ मनी वेगे वळी,एवी अमारी वेदनी छे मा यता िन य खरी. 104

    (क्रमशः)

  • जनवरी-२०१९8श्रतुसागरAwakening

    Acharya Padmasagarsuri

    “क्षमा वीर य भूषणम”्Kshama veerasya bhushanam(Forgiveness is an ornament to a hero)Patience enhances the glory of a heroic man; not of a cow-

    ard.Only when you live in the midst of society and worldly life,

    your virtues are tested like gold on the touchstone. When you are living in solitude, in a cave, there is no opportunity for you to show your anger; hence, in that situation, it will not be possi-ble to fi nd out whether you are patient or peaceful or forgiving. Life is the mirror that refl ects your true nature and reveals it.

    The tongue does not become soft and smooth whatever quantity of butter we eat; similarly an enlightened man does not develop attachment for worldly life though he may be living in the (Samsar) worldly life. He will remain untouched by life just as a lotus remains untouched by water. Such a man attains spiritual elevation by means of penance and self-conquest.

    सजंमेण तवसा अ पाण भावेमाणे िवहराइ Sanjamena tavasa appana bhavemane viharayi(Man attains spiritual excellence by means of penance and

    self-control.)Man has to taste in his enlightened state the bitter fruit of

    his sinful actions committed in his state of ignorance. Thriprus-ta Vasudev gave orders to his servants: “Stop the music when I sleep”. But the servants out of forget fulness did not carry out this order. So, angered by their indiff erence to his order, Thriprusta Vasudeva ordered that molten lead should be poured into their ears. This was an action which Lord Mahavira com-

    (from past issue...)

  • 9SHRUTSAGAR January-2019mitted in an earlier life (Poorva Janma). When a cowherd drove into Lord Mahavira’s ears wooden bolts he bore with the pain calmly remembering what he had done in his Poorva Janma (an earlier life).

    The Flowering of LifeA great acharya (preceptor) has said;

    मा सयुह जिग्गअ वं पलाियय वि म कीस वीसमह ।िति ण जणा अणुलग्गा रोगो य जरा य म चू य ॥

    Ma suyah Jaggiavvam, Palayiyavvammi kisa visamaha,Tinni jana anulagga, Rogo ya jara ya machchu yaDo not sleep. Be awake; when you have got to run how can

    you take rest. Disease, old age and death are chasing you.If one wicked man is chasing us we run to escape from him.

    When that is so how can we commit the error of taking rest when three wicked men are chasing us?

    But this is what is actually happening in life. Gurudev (the preceptor) gives us a knowledge of this error. He awakens peo-ple from their spiritual stupor and gives suggestions to them to enable them to achieve their objectives (purusharthas).

    All creatures, that are born, easily attain the stage of life or existence. Of course, they get existence and life but it is not an easy task to make life fl ower forth and develop by means of renunciation, and self-control. It does not matter if the boat sails on water; but water should not enter the boat. If such a thing happens, the boat sinks;

    (Continue...)

  • जनवरी-२०१९10श्रतुसागरपूज्य गिणश्री जयसोम रिचता

    बारह भावना संिध

    आयर् मेहुलप्रभसागर

    कृित पिरचयजनै दशर्न में मोक्ष के चार मागर् बताए गए हैं यथा- दान, शील, तप और भाव।

    इनमें अिंतम मागर् भाव ह।ै चतथुर् मागर् अितशय महत्वपूणर् है। भाव के िबना दान, शील, तप आिद अल्प फलदायक होत ेहैं। अथार्त ्दान के साथ दान देने की सद्भावना होगी, शील के पालन की सच्ची भावना होगी एवं तप करने के संुदर भाव होगें तभी वे मोक्ष के हेत ुबनेंगे।

    भावना यािन िकसी भी िवषय पर मनोयोग पूवर्क िवचार करना, िवचारो ं के द्वारा जसैी भावना होती है वैसा ही फल िमलता है। शास्त्रकार भगवंतो ंने भावना के संबंध में बड़ा ही गहरा एवं व्यापक िवशे्लषण िकया ह।ै आचायर् श्री हिरभद्रसूिरजी महाराज ने भावना की पिरभाषा देत ेहुए कहा है िक ‘भाव्यत ेअनेनेित भावना’ अथार्त ्िजसके द्वारा मन को भािवत िकया जाए, संस्कािरत िकया जाए, उसे भावना कहत ेहैं। श्री मलयिगिरजी भगवंत ने भावना को पिरकमर् अथार्त ्िवचारो ंकी साज-सज्जा कहा है। जैसे शरीर को तले, इत्र आिद से बार-बार सजाया जाता ह,ै वैसे ही िवचारो ंको िविशष्ट भावो ंके साथ पुनः पुनः जोड़ा जाता है। इसका कारण यह है िक मन की चंचलता से शरीर और वाक् संयम प्रभािवत होता रहता है। मन को एकाग्र करने की बहुत सारी प्रिक्रयाओ ंमें से एक है भावना।

    साधक को मोक्षमागर् की प्रािप्त के िलए बारह भावनाओ ंका िचन्तन करने का िनदेर्श िदया गया है- १. अिनत्य भावना, २. अशरण भावना, ३. संसार भावना, ४. एकत्व भावना, ५. अन्यत्व भावना, ६. अशुिच भावना, ७. आस्रव भावना, ८. संवर भावना, ९. िनजर्रा भावना, १०. धमर् भावना, ११. लोकस्वरूप भावना तथा १२. बोिधदलुर्भ भावना।

    इन बारह भावनाओ ंका संिक्षप्त पिरचय इस प्रकार है-१. अिनत्य भावना- जगत में िजतने भी पौद्गिलक पदाथर् हैं वे सभी अिनत्य हैं। घास

    की नोकं पर रहे हुए ओस की बूँ द की तरह जीवन भी आयषु्य की नोकं पर िटका

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    हुआ है। आयषु्य की पित्तया ँिहलेंगी और जीवन का ओस सूख जाएगा। इसिलए व्यिक्त को क्षणभर भी प्रमाद नही ंकरना चािहए। वषार्काल में बालक क्रीडा हेत ुरेत से घर बनाता है। बरसात होत ेही घर ध्वस्त हो जाते हैं। उसी प्रकार यह शरीर अिनत्य है। ऐसा िचन्तन करना अिनत्य भावना है।

    २. अशरण भावना- जसेै िसहं िहरण को पकड़कर ले जाता है, वैसे ही मृतु्य मनुष्य को ले जाती है। तब माता-िपता व भाई आिद कोई भी बचा नही ंसकते। जीव को अनाथी मुिन और सगर राजा की तरह िचन्तन करना चािहए िक संसार की कोई भी वस्त ुशरणभूत नही ंहै। एक धमर् ही शरणरूप है। जो अनेक प्रकार के दःुखो ंसे प्राणी की रक्षा करता है।

    ३. संसार भावना- जन्म-मरण के चक्र को संसार कहते हैं। जो प्राणी जन्म लेता ह ैवह अवश्य मरता है। इस तरह जीव चार गित के चौरासी लाख योिनयो ंमें भ्रमण करता ह।ै अरहट माला के न्याय से वाय ुके द्वारा प्रिेरत पत्त ेिजस प्रकार ऊपर-नीचे होते है वैसे ही सभी प्राणी कीट-पतंग, िनधर्न-धनी, सौभागी-दभुार्गी, भूपित-िभखारी आिद िविवध भव करत ेहैं। पिरभ्रमण के दौरान भोगे हुए कष्टो ंऔर िविचत्रताओ ंका तटस्थता से अवलोकन कर जंबसू्वामी और वज्रकुमार की तरह मन को प्रितबोिधत करें िक इस संसार-चक्र से मुक्त कैसे होऊँ? शुद्ध मागर् पर कैसे चलँू?

    ४. एकत्व भावना- आत्मा की दृिष्ट से प्रते्यक प्राणी पूवर्भव से अकेला आया ह ैऔर अकेला जाएगा। जन्म-मरण एवं रोगािद का कष्ट भी स्वयं को अकेले ही सहन करना पडता है। स्वयं के द्वारा िकए गए कृत्यो ंका फल भी स्वयं को ही भोगना पड़ता है। इन सभी में माता-िपता, पुत्र-पत्नी आिद कोई भी शरण नही ंदेता ह।ै ‘एगोहं’ अथार्त ्मैं अकेला हँू, और ‘नित्थ मे कोइ’ मेरा कोई नही ंहै। यह सुदृढ िवचार कर निम राजिर्षवत ्एकत्व भावना को पुष्ट करना चािहए।

    ५. अन्यत्व भावना- यह शरीर, पिरजन, बाहरी पदाथर् आिद अन्य हैं। मेरे नही ंहैं। सभी मुझसे िभन्न हैं, पर हैं। पर वस्त ुमें अगर मैं अपनत्व का आक्षपेण करँूगा तो वह कष्टदायी होगा। िजस प्रकार संध्या के समय वकृ्षो ंपर पक्षी एकित्रत हो क्रीडा करत ेहै, वे सभी सूयोर्दय होत ेही दसो ंिदशाओ ंमें पहंुच जात ेहै, उसी प्रकार पिरजन भी इस भव में िमले हैं, मृतु्य होते ही यहा ँसे अकेले जाना है। अतः मात्र आत्मा को स्व मानत ेहुए आत्मगुणो ंको पहचानना एकत्व भावना है।

  • जनवरी-२०१९12श्रतुसागर६. अशुिच भावना- यह शरीर मासं, रुिधर आिद से पूिरत अशुिचमय होने के साथ

    व्यािधग्रस्त एवं रोग-शोक का मूल कारण ह।ै नाखुन, नसें, मेद, चमडी आिद स्वरूप वाले देह में शुिच कैसे संभव ह?ै उस सुन्दर चमर् के भीतर ये दगुर्न्धपूणर् अशुिच पदाथोर्ं पर प्रीित कैसे हो सकती है? पुरुष के शरीर से नौ द्वारो ंएवं स्त्री के ग्यारह द्वारो ंसे िनरंतर अशुिच प्रवािहत होती रहती है। अनेक स्वािदष्ट वं्यजन एवं िमष्टान्न जहा ँदगुर्न्धमय बन जात ेहैं। ऐसे इस देह को िजनेश्वर परमात्मा ने िमट्टी के भाडं के समान अिस्थर कहा है। इस देह से सुकृत कर शाश्वत सुख को प्राप्त कर सकत ेहैं। इस प्रकार िचन्तन करना अशुिच भावना ह।ै

    ७. आस्रव भावना- पुण्य-पापरूपी कमोर्ं के आगमन के मागर् को आस्रव कहते ह।ै िजसके द्वारा शुभाशुभ कमर् आत्मा के साथ बँधत े है। आस्रव भाव संसार पिरभ्रमण का कारण ह।ै पाचँो ंइिन्द्रयो ंके िवषय में िनरत रहकर जीव प्रमादी बनता है। प्रमाद एवं कषायो ंका फल दगुर्ितरूप िकंपाक फल के समान है। आस्रव के रहत ेहुए प्राणी सद-्असद ्के िववेक से शून्य रहता है। इस भावना के िचन्तन से जीव कमोर्ं से मुक्त होकर अक्षय अव्याबाध सुख को प्राप्त करता ह।ै

    ८. संवर भावना- द्वार के बंद हो जाने पर िजस प्रकार िकसी का प्रवेश नही ंहोता वैसे ही आत्मा के पिरणामो ंमें िस्थरता होने पर अथार्त ्आस्रव के िनरोध होने पर आत्मा में शुभाशुभ कमोर्ं का आगमन नही ंहोता। आत्मशुिद्ध हेत ुकमोर्ं को रोकने के िलए पाचँ सिमित, तीन गुिप्त, पच्चक्खाण, िनयम, व्रत आिद द्वारा संवर को धारण करना ही संवर भावना ह।ै क्षमािद दस यित धमर् को धारण करने वाला संवर रस का अनुभव कर जन्म-मृतु्य के भय को समाप्त कर सकता है। कमोर्ं के उदय में आगत परीषहो ंको जो जीतता है वह गजसुकुमाल मुिन की तरह दीिप्तमान बनता है।

    ९. िनजर्रा भावना- तप आिद के द्वारा आत्मा से कमोर्ं को दूर करना िनजर्रा ह।ै िनजर्रा के दो प्रकार बताए गए हैं १. सकाम िनजर्रा और २. अकाम िनजर्रा। अज्ञानतापूवर्क दःुखो ं का सहन करना अकाम िनजर्रा ह ै जबिक ज्ञानपूवर्क तपस्यािद के द्वारा कमोर्ं का क्षय करना सकाम िनजर्रा ह।ै इस भावना में दषु्ट वचन, परीषह, क्रोध, मानापमान आिद को समभाव से सहन करना, इिन्द्रयो ंको वश में करना आिद शुद्ध कायर् करना इष्ट है। िनजर्रा के िलए शास्त्रो ंमें अनेक प्रकार के तप का वणर्न है यथा- रत्नावली, कनकावली, िसहंिनष्क्रीिडत आिद िविवध तप के

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    द्वारा आत्मा िनमर्ल भाव को धारणकर यथषे्ट स्थान प्राप्त कर सकती है।१०. धमर् भावना- डूबत ेका सहारा, अनाथो ंका नाथ, सच्चा िमत्र एवं परभव में साथ

    चलने वाला यह धमर् सच्चा संबन्धी ह।ै जो उसे धारण करता ह ैउसके सारे संताप दूर हो जाते हैं। उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार इस संसार में एकमात्र शरण धमर् है, इसके अितिरक्त जीव की रक्षा कोई और नही ंकर सकता है। जरा-मरण-काम-तषृ्णा आिद के प्रवाह में डूबत ेहुए प्रािणयो ंके िलए धमर् द्वीप का काम करता ह।ै इसी धमर्रूपी द्वीप का जीव शरण लेता है। धमर् में दृढ श्रद्धा और आचरण में धमर् को साकार करत ेहुए आत्मा को इहलोक एवं परलोक में सुखी बनाने का प्रयत्न करना चािहए।

    ११. लोकस्वरूप भावना- लोक अथार्त ्जीवसमूह और उनके रहने का स्थान। यह लोक चौदह रज्ज ुप्रमाण है। इस लोक में भव-भ्रमण करत ेहुए जीव कमर्वश माता-िपता-पुत्र बनता है। पुनः यदा-कदा वैरवश शत्र ुभी बन जाता है। साध ुसुकोशल को देखकर बािघन के भव में वैरवश पूवर् भव के पुत्र अथार्त ् साध ुसुकोशल का मासंभक्षण करती है। इस प्रकार इस लोक में स्वाथर् के कारण सभी स्वजन हैं और स्वाथर् न होने पर सभी दूर हो जाते हैं। लोक के ऐसे स्वरूप का िचन्तन कर उपशम रस में िनमग्न होकर लोक के अग्रभाग पर पहँुचने की भावना करना लोकस्वरूप भावना ह।ै

    १२. बोिधदलुर्भ भावना- इस संसार में अनेक दलुर्भ वस्तओु ंमें से कोई जीव उन दलुर्भ वस्तओु ंको आसानी से प्राप्त कर ले, परंत ुबोिध अथार्त ्सम्यग्ज्ञान दशर्न चािरत्र की प्रािप्त अतं्यत किठन है। बोिध अथार्त रत्नत्रय जो जीव का स्वभाव ह।ै स्वभाव की प्रािप्त दलुर्भ नही ंमानी जा सकती। परंत ुजीव जब तक अपने स्वरूप को नही ंजानता है और कमर् के अधीन रहता है, तब तक बोिधस्वभाव पाना दलुर्भ ह ैऔर कमर्कृत सभी पदाथर् सुलभ हैं। अनन्त काल से ८४ लाख योिनयो ंमें भ्रमण करत ेहुए यह मनुष्य भव िमला है। अनेक बार चक्रवतीर् के समान ऋिद्ध प्राप्त की ह।ै उत्तम कुल और आयर्क्षते्र भी पाया ह,ै पर िचन्तामिण के समान सम्यक्त्व रत्न प्राप्त करना अतं्यत दलुर्भ है, इस प्रकार िचन्तन करना बोिधदलुर्भ भावना है।

    प्रस्ततु संिध में सरलता के साथ सरसता और कथा िववरण के साथ मािर्मकता का गंुफन कर कतार् ने काव्य की गिरमा में विृद्ध की है।

    खरतरगच्छ सािहत्य कोश में यह क्रमाकं ८७६ पर उिल्लिखत है।

  • जनवरी-२०१९14श्रतुसागरकतार् पिरचय

    महोपाध्याय श्री जयसोम के िशष्य गिण श्री गुणिवनय ने दमयन्तीकथाचमू्प टीका की प्रशिस्त में गुरुपरंपरा का पिरचय िदया ह ैतदनुसार श्री िजनमािणक्यसूिरजी के पट्टधर गच्छनायक यगुप्रधान पदधारक श्री िजनचन्द्रसूिरजी िवद्यमान थ।े उसी समय खरतरगच्छ की क्षमेशाखा के उपाध्याय प्रमोदमािणक्य के िशष्य उपाध्याय जयसोमजी हुए।

    प्रस्ततु कृित के कतार् महोपाध्याय जयसोमजी की अन्य १४ िजतनी कृितया ँप्राप्त होती हैं। जयसोमजी महाराज के िशष्यो ंमें उपाध्याय गुणिवनयजी, िवजयितलकजी, सुयशकीिर्त्त आिद कई िवद्वान िशष्य थे। इनमें उपाध्याय श्री गुणिवनयजी सत्रहवी ंशताब्दी के नामािंकत िवद्वान थ।े श्री गुणिवनयजी की ७० से अिधक कृितया ँप्राप्त होती हैं।प्रित पिरचय

    प्रितलेखक वाचक िवमलकीिर्त खरतरगच्छीय उपाध्याय साधकुीिर्त के प्रिशष्य तथा वाचक िवमलितलक के िशष्य थ।े ऐितहािसक जैन काव्य संग्रह की पृष्ठसंख्या २०९ के आधार पर आपकी दीक्षा िव.१६५४ में हुई थी। वाचक पदवीयकु्त आपका स्वगर्वास िसनु्ध देशिस्थत किहरोर में अनशनपूवर्क हुआ था। आपने सत्रहवी ंशताब्दी के उत्तराधर् में मारुगुजर्र भाषा में गद्य और पद्य रचनाएँ कर सािहत्य की अमूल्य सेवा की ह।ै

    उपलब्ध रचनाओ ंमें यशोधर रास िव.१६६५, आवश्यक बालावबोध िव.१६७१, गणधर साधर्शतक टब्बा िव.१६८०, प्रितक्रमणिविध स्तवन िव.१६९०, उपदेशभाषा टब्बा सिहत २५ कृितया ँप्रमुख हैं। आपके िशष्य िवमलरत्न भी अचे्छ सािहत्यकार थ।े

    प्रत का लेखन वषर् िव.सं.१६८४ ह।ै प्रितलेखक मारुगुजर्र भाषा के िवद्वान होने से प्रस्ततु प्रित नं. ४९५५० में स्खलना प्रायः नही ंहै। अक्षर सुन्दर और सुवाच्य हैं। प्रित की िस्थित प्रायः जीणर् है। रक्तवणीर्य मिस से गाथा संख्या एवं ढालािद का िनदेर्श िकया गया ह।ै पिडमात्रा यकु्त िलिप है तथा तीन पत्रो ंकी प्रित के प्रते्यक पृष्ठ के मध्य में वािपका का िचत्राकंन है और प्रथम पत्र पर वािपका का िचत्रण इस प्रकार िकया गया है िक मध्य में गज का िचत्र नजर आता है एवं अिंतम पत्र पर अश्व का िचत्र बनाया गया ह।ै

  • 15SHRUTSAGAR January-2019

    प्रित उपलब्ध करवाने हेत ु आचायर् श्री कैलाससागरसूिर ज्ञानमंिदर कोबा के संचालको ंका सादर आभार। इस प्रकार शोधािर्थयो ंको िविशष्ट सहयोग प्रदानकर समस्त संस्थाओ ंमें अपना अग्रगण्य स्थान सुशोिभत कर रहे हैं। यह संस्था शोधािर्थयो ंकी इसी प्रकार संुदर सहयोग प्रदान करती रहे, यही शुभकामना।

    बारह भावना संिध

    दूहा

    आदीसर िजणवर तणा, पद पंकज पणमिेव ।भिण युं बारह भावना, सािनिध किर तुदवेी ।।१।।दान दया तप जप िक्रया, भाव पक्षइ अप्रमाण ।लणू िवणा िजम रसवती, ए ी िजनवर वािण ।।२।।दान सील तप दोिहला, करतां दसूमकािल ।भावन भावउ भिवकजन, पु य सरोवर पािल ।।३।।अिन य पणउ१ असरण पणउ२, भवस प३ एक व४ ।अ य पणउ५ विल असिुच पण६ आ व७ संवर त व८ ।।४।।नवमी िन जर्र भावना९, ध मर्१० स ुलोक सभाव११ ।बोिधदलुभ१२ परभिव इसी, बारह भावन भािव ।।५।।

    ढाल १

    पिहली भावन भावीयइजी, अिन य पणउ संसािर ।सं या राग समउ सहूजी, िनरखइ नहीय गमार ।।६।।भिवकजन पिरहिर िवषय िवरोध ।िहतकारिण क णा करीजी, ीगु द्यइ प्रितबोध भिवक०।।७।।वरषाकालइ िजम करइजी, बालक रामित कािज ।रेण ुतणा घर कािरमाजी, ितम धन संपित राज भिवक०।।८।।अतलुी बल िजनवर क ाजी, चक्रवि र् सबल सरीर ।अिनतपणइ िथर निव र ाजी, डाभ अणी िजम नीर भिवक०।।९।।

  • जनवरी-२०१९16श्रतुसागरइम जिग सवर् असासतउजी, जाणी म किर कुक मर् ।इह भिव परभिव सखु भणीजी, साचउ किर िजनध मर् भिवक०।।१०।।

    ढाल २

    धरम पक्षइ कुण जीवनइ रे, सरणइ राखणहार ।मात िपता सतु सिव िमली रे, किर न सकइ उपकारो रे ।।११।।धरम हीयइ धरउ, असरण जािण संसारो रे ।जीव जतन करउ, िजम पामउ सखु सारो रे धरम०।।१२।।िमिथला नगरीनउ धणी रे, राजा निम इण नािम ।अतेंउर धन तेहनइ रे, कोइ न आ यउ कािम रे धरम०।।१३।।सािठ सहस सतु सगरना रे, नंद तणी धनरािस ।राखी न सक्या तेहनइ रे, भोला िहयइ िवमासी धरम०।।१४।।एक सरण िजणवर तणउ रे, सधूउ धरम संसािर ।आतमिहत किर ितण भणी रे, मानव जनम म हािर धरम०।।१५।।

    ढाल ३

    इिण संसारइ जीवडा रे, अरहट माला यायइ रे ।वाउिल पे्रयार् पान युं, अध ऊरध विल थायइ रे ।।१६।। इम जाणी हो प्राणी िवषय िनवारीयइ हो ।सखुकारण हो ी िजनध मर् संभारीयइ रे ।।१७।। कीड पतंग पणउ भजइ रे, िनरधननइ धनधारी रे ।सोहागी दोहागीयउ रे, भपूित नइ भीखारी रे इम०।।१८।।इम नटनी पिर भिव भ यउ रे, िवध िवध वेस िवणाणइ रे ।सखु दखु जे ितहां भोग यां रे, णाणी िवण कुण जाणइ रे इम०।।१९।।जइ भव भमतां ऊभगा रे, तउ प्रमाद तिज जागउ रे ।जंब ूवयर तणी परइ रे, इिण िविध मारिग लागउ रे इम०।।२०।।

  • 17SHRUTSAGAR January-2019

    ढाल ४

    एक पणउ जिग जीवनइ, जोवउ हीयइ िवमािस ।धरम पक्षइ सिव जीवडा, पिरभमइ उदास एक०।।२१।।परभव थी चिव एकलउ, आवइ विल जाइ ।जनम मरण पिुण एकलउ, कोई सरणइ न थाइ एक०।।२२।।मात िपता सतु कािमनी, पिरजननइ मािह ।असभु करिम जीव एकलउ, लीजइ दरुगित सािह एक०।।२३।।पाप किर धन मलेवइ, अित चचंल िच ।परभिव जातां सिव िमली, वांटी यइ िव एक०।।२४।।रोगािदक दखु एकलउ, वेदइ िनरधार ।वांटी न सकइ कोइ सगउ, जा यउ सयणाचार एक०।।२५।।जीव अनाथीनी परइ, जागउ िजनवािण ।परमारथ जा यां पषइ, िकम कहीयइ जाण एक०।।२६।।

    ढाल ५

    जीवहां थकी ए जजूआू, धण सयण पिरयण जोइ ।आपणइ साजण तूं िगण,े इक िजनध्रम हो िजहां थी सखु होइ ।।२७।।आप सवारथ जग सहू रे, परकारण रे तूं कांइ गमार ।पाप करी रोतउ भरइ रे, सखुकारण रे धरम संभािर आप०।।२८।।सं या समइ िजम त वरइ, पंखीया िमिल िवलसंित ।परभाित पहुचइ दह िदसइ, इम पिरजन रे िनज मन तूं िचिंत आप०।।२९।।िजम चरण वेला गो िमलइ, गोवालीयइनइ पािस ।पािछलइ िदिन िनज िनज घरइ, विल पहुचइ रे ितम ए घरवािस आप०।।३०।।पंथीया पंथइ िजम िमलइ, सं या समय इक गािम ।जजूआू जायइ प्रहसमइ, ितम सयणां हो संगम इक ठािम आप०।।३१।।धन तेह जे िनज सखु भणी, िगिण सवर् संग असार ।संवेग रस मांिह झीलता, मन रंगइ रे यइ संजम भार आप०।।३२।।

  • जनवरी-२०१९18श्रतुसागरढाल- ६

    दहे असिुच किर परूीयउ हो, असिुच करी उतप न ।इम जाणी जे प्राणीया हो, धरम करइ ते ध न ।।३३।।सिुवचार रे प्राणी, िनज मन िथर किर जोइ ।इिण संसारइ सखु भणी हो, धरम पक्षइ कुण होइ सिुवचार०।।३४।।मसं िहर नख नइ नसा हो, मदे चरम वस केस ।ए स प इिण दहेनउ हो, िकहां इहां सिुच लवलेस सिुवचार०।।३५।।ोत्र वहइ नव अहिनसइ हो, पु ष सरीिर असार ।

    सोत्र इग्यारह नािर नइ हो, असिुच तणा भडंार सिुवचार०।।३६।।नाना यंजन रसवती हो, िजहां थी िवणसी जाइ ।चोवा चदंन विल सवे हो, जस ुसंगिम मल थाइ सिुवचार०।।३७।।दहे अिथर िजनवर क उ हो, माटी भडं समान ।एक सकृुत किर सासतउ हो, िजम सखु लहइ प्रधान सिुवचार०।।३८।।

    ढाल ७

    आ व कारिण ए जिग जाणीयइ, पिरहिर एहना संग ।दरुगित जातां एहिज साथीया, ितिण ध्रम युं धिर रंग आ व०।।३९।।पंच ेइिंद्रय सिव जिगनइ नडइ, िव यां िवषय सवाद ।एकइ एकइ इिंद्रयनइ वसइ, पामइ जीव प्रमाद आ व०।।४०।।नादइ मगृलउ रस विस माछलउ, पइ दिेख पतंग ।वासइ भमरउ फरसइ हाथीयउ, पामइ रंग िवरंग आ व०।।४१।।यािर कषाय िनवारउ मन थकी, भवत नउ ए मलू ।फल िकंपाक समा रस जेहना, दरुगितनइ अनकूुल आ व०।।४२।।पांचइ आ व दखु कारण िगणउ, जोग िक्रया विल तेह ।करम तणा िथित रस कारण वली, आ व भावन एह आ व०।।४३।।

  • 19SHRUTSAGAR January-2019

    ढाल ८

    पंच सिमित िनरती िवधइ ंरे, पालइ आदर आणी रे ।ित्रि ह गपुित गपुतां सदा जी, तु परमारथ जाणी रे ।।४४।।संवर भावन भावीयइजी, मिन समािध धिर प्राणी रे ।आगम माह ेएहनाजी, फल िहत प्रमखु वखाणी रे संवर०।।४५।।खिंत प्रमखु दसिवध सदाजी, साध ुधरम जे धारइ जी ।ते संवर रस अनभुवीजी, जनम मरण भय वारइ जी संवर०।।४६।।करम उदय किर आवीयाजी, जेह परीसह जीपइ जी ।गयसकुुमाल तणी परइजी, ते िदिन िदिन अित दीपइजी संवर०।।४७।।संयम बारह भावना जी, मिेल सतावन भदेइजी ।संवर त व िवचारतां जी, असभु करम बल भदेइ जी संवर०।।४८।।

    ढाल- ९

    यान िवनय काउसग धरउ रे, वेयाव च िसझाय ।पायिछ करउ खरउ रे, दसिवध धिर िनरमाय ।।४९।।रे प्राणी धिर संवेग िवचािर, सदगु वचन संभािर रे प्राणी ।तप अणसण उूणोदरी रे, विृ प्रिमित रस याग ।काम िकलेस संलीनता रे, ए तप युं धिर राग रे प्राणी०।।५०।।रतनाविल कनकावली रे, एकावली गणु रयण ।िसंघिनक्रीिडत िबहु ंपरइ रे, तप किर धिर गु वयण रे प्राणी०।।५१।।तप िवण िकम िनज आतमा रे, पामइ िनरमल भाव ।नवमी िन जर्र भावनाजी, मन मिह भावन भािव रे प्राणी०।।५२।।

    ढाल- १०

    धन धन गु मिुख तु सणुी, जे पालइ गु सीख ूए ।साध ए िसद्ध तणा घणा, सखु मीठा िजम ईख ूए ।।५३।।भावन भावउ भावीया, धरम तणी इिण रीत ूए ।भरत इलापतु्र नी परइ, थायइ ित्रजग वदीत ुए भावन०।।५४।।

  • जनवरी-२०१९20श्रतुसागरजे िनज आतम विस करी, इिंद्रय िवषय िवर ूए ।मोह तणा दल िनरदली, सील धरइ सपुिव ूए भावन०।।५५।।मात िपता सतु कािमनी, प्रमखु तजी भव पास ूए ।जेह िनसंग पणउ धरइ, ते धन सगुणु िनवास ूए भावन०।।५६।।त ण पणइ जे तप तपइ, िवषम परीसह जीत ूए ।उपसम रस किर परूीया, सम ितण मिण अिर मीत ूए भावन०।।५७।।इम गणुवंत तणा सदा, गणु ग्रहतां गणु होई ए ।फूल तणइ पिरमल गणुइ, तेल तणउ गणु जोई रे भावन०।।५८।।

    ढाल- ११

    ी िजनसासिन लोक स प वखाणीयइ रे, चवदह राज प्रमाण ।जनम मरण किर वार अनंती फरसीयउ रे, जाणइ ते जगभाण ।।५९।।लोकस प िवचारउ आतमिहत भणी रे, िनज मन तन िथर रािख ।धमर् यान ए ीमिुख जगगु उपिदसइ रे, तीजइ अगंइ सािख लोक०।।६०।।भिव भिव भमतां जीव करम विस आपणइ रे, मात िपता सतु होइ ।तेहिज वयर िवसेषइ शत्रपुणउ भजइ रे, पंचम अगंइ जोइ लोक०।।६१।।वािघिण भिव सतु दखेी साध ुसकुोसलउ रे, जोवउ भव पिरणाम ।वयर तणइ विस माता सतु आिमष भखइ रे, सारइ ते िसवकाम लोक०।।६२।।वारथ कारिण जीव तणइ सहूयइ सगउ रे, वारथ िवण सिव दिूर ।लोगस प इसउ मन माह ेचींतवइ रे, धिर उपसम रस परू लोक०।।६३।।

    ढाल- १२

    लिह मानव भव दोिहलउ, विल सरीर नीरोग ।उ म कुिल उतपित लही, दवे सगुु संजोग ।।६४।। संवेग रस आणीयइ रे, जाणी ी गु वािण ।।आकंणी।।आलस प्रमखु तणइ उदइ, आगम वण दलंुभ ।स हणा पिुण दोिहली, िजम जल काचइ कंुिभ संवेग०।।६५।।

  • 21SHRUTSAGAR January-2019

    कउडी काज न हारीयइ, जेम कनक नी कोिड ।ितम भोगारिथ कांइ गमइ, लाधी धरम नी जोिड संवेग०।।६६।।िजम समदु्र मािह पाडीयउ, रतन न लाभइ तेह ।ितम प्रमाद विस हारीयउ, धरम दहुलेउ एह संवेग०।।६७।।पा यउ धरम अछइ इहां, वली लही यइ केम ।ितिण किर लाधइ रांकध्रउ, िजम पामइ सखु खमे संवेग०।।६८।।सरु नर िरिद्ध कुसमु िजहां, िसवसखु फल सम जास ु।धरम कलपत सेवंतां, पजूइ वंिछत आस संवेग०।।६९।।

    कलश

    इिण पिर बारह भावन जाणी, आणा िजिणदं तणी मिन आणी ।अहिनिस जेह धरइ मन माहइ, ते ी िजनवर ध मर् आराहइ ।।७०।।रस वािरिध रस सिसहर वरसइ १६४६, बीकानयर नयिर मन हरसइ ।ीिजनचदं्रसिूर गु राजइ, एह िवचार भ यउ िहतकाजइ ।।७१।।

    प्रमोदमािणक गिण सहुगु सीस, गिण जयसोम कहइ सजुगीस ।आदीसर सरुत सपुसायइ, एह भणतंां सिव सखु थायइ ।।७२।।

    इित श्री बारह भावना संिधः समाप्तः(ता)।।छ।। संवत ्१६८४ वषेर् जेठ सुिद १० िदने िलिखतयंे प्रितः वा० िवमलकीिर्त्तगिणिभः। श्रािवका पुण्यप्रभािवका धारा पठनाथर्ं। श्रीरस्त ुश्रीः।।

    o O o

    ो धामधूम म िदन गए, सोवत हो गई सांझ ।आगम सु यौ न प्रभु भ यो, िजनगी हो गई वांझ ।।

    ह तप्रत १२१३८३भावाथर् - काम-काज में भाग-दौड़ करत े हुए िदन बीत गए और

    शाम(रात) तो सोने में ही बीत गई। न आगम सुना (ज्ञान की बातें सुनी)ं और न प्रभु का भजन िकया, इस प्रकार िजन्दगी िनष्फल हो गई।

  • जनवरी-२०१९22श्रतुसागरगिण श्रीकीिर्तउदय कृत

    वरतीपरुमंडन श्रीमि लिजन तवन

    गजेन्द्र शाह अनंत जीवरािश से भरे इस संसार में मोक्ष में जाने वाले जीवो ंकी संख्या

    शास्त्रो ंमें अनंतवें भाग मात्र ही कही है। वह अनंतवा ँभाग भी ऐसा की सुनत ेही हृदय थम जाए। कहा गया है िक एक सूई की नोकं के बराबर आलु के बारीक अशं में ज्ञािनयो ंने अनंत जीव कहे हैं। उसके भी अनंतवें भाग मात्र ही जीव आज तक मोक्ष में गए हैं। बात यहा ँतक ही सीिमत नही ंहै। आज से अनंत चौबीसी के बाद भी यिद िकसी केवली भगवंत को पूछा जाए तब भी यही उत्तर िमलेगा। कभी भी ऐसा उत्तर नही ंिमलेगा िक एक समू्पणर् आलु िजतने जीव मोक्ष में गए हैं। उसमें भी गणधरािद पद पर रहकर मोक्ष में जाने वाले जीव बहुत ही कम होत ेहैं। तीथर्ंकर पद पर रहकर मोक्ष में जाने वाले जीव तो अतं्यत ही कम होते हैं। १० कोडाकोडी सागर की एक अवसिर्पणी िजतने लंब ेकाल में मात्र २४ तीथर्ंकर होत ेहैं। तीथर्ंकर पदवी िवश्व की सवोर्च्च पदवी ह।ै प्रकृष्ट पुण्य के धनी ही इसे प्राप्त कर पात ेहैं। ऐसे पुण्य की प्रािप्त भी ‘सिव जीव करंु शासन रसी’ जैसी उच्च भावना एवं िविशष्ट तपािद से ही संभव ह।ै

    तीथर्ंकर नाम कमोर्पाजर्न करने वाले अनंत पुन्यरािश के धनी जीव को तीथर्ंकरत्व के अिंतम जन्म में भी कई बार अघिटत प्रतीत होनेवाले एवं आश्चयोर्त्पादक पूवर्जन्मकृत कमोर्ं के फल का भुगतान करना पड़ता है। जैसे भगवान महावीर ने तीसरे भव में उपािर्जत नीचगोत्रकमर् को कई भवो ंमें भुगता है, िफर भी कुछ शेष रह ेकमर् ने उन्हें देवानंदा की कुिक्ष में डाल िदया और िफर गभर्हरण करना पडा, जो कभी न होने वाली एक आश्चयर्रूप घटना का िनमार्ण हो गया। इस अवसिर्पणी के १० आश्चयोर्ं में दूसरी भी एक घटना घिटत हुई िक तीथर्ंकर कभी भी स्त्री के रूप में जन्म नही ंलेत।े १९वें तीथर्ंकर मिल्लनाथ, पूवर् भव में माया यकु्त तप करने के पिरणाम स्वरूप स्त्रीत्व को प्राप्त हुए। अनंत अवसिर्पिणयो ंके बाद आनेवाली हंुडा अवसिर्पणी में कमोर्ं ने तीथर्ंकरो ंतक को नही ंछोड़ा। वे तो उन कमोर्ं से मुक्त होकर िसद्धत्व को प्राप्त हो गए। परन्त ुहम अभी भी इस संसार में भटक रहे हैं। हमारे भी अनािदकालीन िक्लष्ट कमर् नष्ट हो ं एतदथर् १९वें तीथर्ंकर श्रीमिल्लनाथजी की स्तवनारूप प्रायः अप्रकािशत एक कृित का यहा ँप्रकाशन िकया जा रहा है।

  • 23SHRUTSAGAR January-2019

    ‘वरतीपुरमंडणो मिल्लदेवो’ कहकर कतार् ने प्रभु की स्तवना की है, इससे प्रतीत होता है िक वरतीपुर नाम से मिल्लनाथजी का कोई तीथर् होना चािहए। वतर्मान में मिल्लनाथजी के तीथर् में गुजरात िस्थत भोयणी सुप्रिसद्ध है। वरतीपुर के बारे में अभी तक हमें कोई िववरण प्राप्त नही ंहो पाया है। वाचको ं से नम्र िनवेदन है िक यिद आपके पास इस संदभर् में िवशेष िववरण उपलब्ध हो तो हमें ज्ञात कराने का कष्ट करें। कृित पिरचय

    कृित की भाषा मारुगुजर्र है। पद्यबद्ध इस कृित में १४ गाथाएँ, २ ढाल एवं कलश िदया गया है। प्रथम ढाल में श्रीमिल्लनाथजी की स्तवना की है। दूसरी ढाल में कतार् ने अपनी गुरु परंपरा का उले्लख िकया ह ैऔर कलश में फलश्रिुत देत ेहुए कहा है िक मोहाधंकार के िनवारक, अचे्छ िदन देने वाले, सूयर् के समान उत्तम ऐसे ये िजनेश्वर यिद िमल जाएँ तो दगुर्ित के भय व सारे कष्ट दूर हो जाएँ। मनोवािंछत फल की प्रािप्त हो जाए और हृदय हषर् से भर जाए।

    कृित का रचना वषर् ‘वेदसायकरसचंद’ िव.सं. १६५४ है। कृित के रचना स्थल के बारे में कोई िववरण उपलब्ध नही ंहै। ‘वरतीपुरमंडणो मिल्लदेवो’ के नाम से स्तवना की ह ैतो संभव ह ैिक रचना भी उसी स्थल पर की हो। गाथा ७, ८, १० के अतं में एक अितिरक्त पद भी िदया गया ह।ै इस भावपूणर् कृित की शब्दरचना वाचक को िवशेष प्रभािवत करती ह।ै कृित में कतार् ने प्रभु के माता-िपता के नाम, लंछन और वणर् को समािवष्ट करत ेहुए एवं िमथ्यादेवो ंको छोड़कर मिल्लिजन को भजने का िनदेर्श देत ेहुए स्तवना की है। प्रारंभ में िदया गया पद ‘सुखसागरीया रे, तोिन वीनवुं वारोवार’ आकंणी का पद दूध में रही शक्कर की तरह कृित की मधरुता में अिभविृद्ध करता है।कतार् पिरचय

    प्रस्ततु कृित के कतार् श्रीकीिर्तउदय गिण तपागच्छीय िवद्वान हैं। उनके गुरु का नाम चािरत्रोदय गिण और गच्छनायक श्रीिवजयसेनसूिर महाराज थ।े कतार् का समय कृित के रचनावषर् के आधार पर िव.१६५४ माना जाता ह।ै आचायर् श्री कैलाससागरसूिर ज्ञानमंिदर, कोबा में संग्रिहत सूचनाओ ं के आधार पर कतार् की अन्य एक कृित ‘महवीरिजन स्तवन’ है। यह कृित भी प्रस्ततु कृित के साथ एक ही प्रत में उिल्लिखत है एवं यह भी प्रायः अप्रकािशत है। कतार् की अन्य कृितया ँतथा िशष्यपरंपरािद के बारे में िवशेष जानकारी अनुपलब्ध ह।ै

  • जनवरी-२०१९24श्रतुसागरप्रत पिरचय

    प्रस्ततु कृित का संपादन आचायर् श्रीकैलाससागरसूिर ज्ञानमंिदर, कोबा की एक मात्र प्रत क्र. ४०७८८ के आधार पर िकया गया ह।ै एक ही पन्न ेकी इस संपूणर् प्रत में दो कृितया ँहैं। दोनो ंही कृितया ँएक ही कतार् की हैं और उनमें से ‘मिल्लिजन स्तवन’ कृित प्रथम क्रमाकं पर है। प्रत की िलखावट सामान्य व सुवाच्य है, लेिकन अिधक मात्रा में पानी से िववणर् होने के कारण अक्षरो ंकी स्याही फैल गयी है अतः ध्यान से पढने पर पाठ ग्राह्य हो पाता है। प्रत की िस्थित मध्यम है। प्रत की लंबाई-चौडाई २६×११ ह।ै पंिक्त संख्या १६ से १७ एवं प्रित पंिक्त अक्षर संख्या लगभग ५१ है। श्याम पाश्वर्íरेखाओ ंसे यकु्त एवं गेरु लाल रंग से अिंकत िवशेष पाठो ंवाली इस प्रत का समय िव.१८वी ंहोना संभव ह।ै प्रत के अतं में प्रितलेखन पुिष्पका न होने से लेखकािद की सूचनाएँ अप्राप्य हैं।

    वरतीपरुमंडन श्रीमि लिजन तवन

    सर व यै नमः॥सखुसागरीया रे, तोिन वीनवुं वारोवार ।तोिन भटेवा हरख अपार, ता ं दरसण िद एक वार ॥सखुसागरीया रे तोिन वीनवुं वारोवार ॥१॥कंुभ नरेसर कंुय रे, शभु गणुरयण भडंार ।ित्रभवुन ितलक समाणडउ रे, उ जयउ जगदाधार सखु०॥२॥धन धन दवेी प्रभावती रे, जस कुिख तझु अवतार ।कंभ(कंुभ) लंछण िलयामणउ रे, तीन भवुन िसणगार सखु०॥३॥दवेपण ुधन ताह ं रे, सयल जीव िहतकार ।एकमना आरािहउ रे, मगुित दीइ िनरधार सखु०॥४॥ज्ञान अनंत प्रभ ुताह ं रे, बल अनंत उदार ।समया संकट तुं दलइ रे, आपइ भवन ुपार सखु०॥५॥हिरहर ब्र ािदक घणा रे, दवे हूया नामधार ।िवषय कषाय िवलािदया रे, खलेइ खले हजार सखु०॥६॥

  • 25SHRUTSAGAR January-2019

    एहवां दवे न मानीय रे, ज ुहोइ अकल िलगार ।ते िकम भगतिन उद्धरइ रे, जे धरइ नवा अवतार ।दवे िज लीइ ंनवां अवतार सखु०॥७॥मगुित तणा जे अरथीआ रे, ते सणुउ एह िवचार ।दवे ित कोई ज सेवीइ रे, जे तरीय ुसंसार ।दवे जे न पडइ संसार सखु०॥८॥मि ल िजिणदं वालउ मझु िम य ुरे, अनंत सखु दातार ।प्रह ऊठीिन जे नमइ ंरे, ते तरसी संसार सखु०॥९॥नीलवरण तन ुअित भलुं रे, तेज तणो अबंार ।दरसण द्य ुप्रभ ुआपणु ंरे, िवनतडी अवधार ।हारी वीनतडी अवधार सखु०॥१०॥

    ॥ राग- ध यासी ॥

    िचरं जयउ िचरंजयउ सयल मिुननायको, ीतपगछनुं एह राजा ।ीिवजयसेनसिूर परम भट्टारको, िदन िदन दीपता बहू िदवाजा िचरंं०॥११॥

    प्रचरु पंिडत तारा गण सािरसा, तेहमािह चदंसमपु िवराजइ ।प्रवर पंिडत चािरत्रउदय गिण, भिूर भिवकिन ए िनवाजइ िचरं०॥१२॥वेदसायकरसचदं संवछरो वरतीपरुमडंणो मि लदवेो ।कीि र्उदय थु य ुसरुत सम ग य,ु मगुितगामी तु ह ेिन य सेवो िचरं०॥१३॥

    ॥ कलस ॥

    मइ ंभगित आणी केवलनाणी, गायुं मि ल िजणसेरो ।मोहितिमर वारण सिुदन कारण, उ म एह िदणसेरो ।मनवांिछत परूइ दःुख चरूइ, कुगितना भयना िनरदलीइ ।हीउं हरख भरीइ ंभविनिध तरीइ, एवां सािहब ज ुिमलइ ॥१४॥

    ॥ इित ीमि लदेव सं तवं सपूं णर्िमित ॥

    o O o

  • जनवरी-२०१९26श्रतुसागरसोळमा शतकनी गजुराती भाषा

    मधसूुदन िचमनलाल मोदीरा. केशवराम शास्त्रीए सं. १४५९नंु जे खत छपावंु्य छे तनेी वास्तिवकता पूरवार

    करवा तमेण ेसं. १४७४ना पावळीआना लेखनो टेको लीधो छे। स्वरयगु्म अउ=ओ थयानो तमेा ंपूरावो रज ुकयोर् छे। पाविळया सामान्य रीत ेमाणसना मरण पछी ऊभा करवामा ं आवे छे; एटले व्यिक्तना मरणनो सालिदवस एज पाविळया लखाणनो सालिदवस होय एम मानवाथी आपण ेप्रमाणाभासमा ंपडीए छीए सं. १४५९ वाळा खत संबंध ेमारे एटलंु ज पूछवानुं के त ेकाले प्रवतर्मान िवभिक्तना अनुषंगी शब्दो जवेा के रहइ, तउ, थउ (ज ेमुग्धावबोध-औिक्तकमा ंिनिर्दष्ट छे) तनेा प्रयोग तेमा ंमालूम पडे छे? जो ए तेमा ं मालम न पडता होय तो दस्तावेज अने पावळीआनो समय संिदग्ध ठरे छे। लेखनप्रकार आतंिरक भाषा-घडतरना अनुवादात्मक पूरावा तरीके होइ शके; निह के स्वतन्त्र पूरावा तरीके. अत्यारसुधीना ंबधा ंिववेचनोमा ंआ लेखनप्रकारना पूरावा (स्वरयगु्म अइ=ए अने अउ=ओ)नो स्वतन्त्र पूरावा तरीके उपयोग थयो छे। पंदरमा अने सोळमा ंसैकामा ं ‘जालहुर’-मारवाडथी माडंी प्रभास पाटण अने जूनागढ तरफ पिश्चममा ंअने नवसारी सुधी दिक्षणमा ंघडतरमा ंसरखी ज गुजराती भाषा प्रवतर्मान हती। सोळमा सैकाना आिदमा ं आ अनुषंगी शब्दो वपराशमा ंओछा थवा लाग्या। त ेकाळना गद्यना ंअवतरणो सालवारी प्रमाण ेउपर टाकं्या ंछे त ेउपरथी आ िवधाननी यथाथर्ता समजी शकाशे।

    उपर जमे गद्यनी चचार् करी तवेीज रीत े सोळमा सैकानी किवताना पूरावा उपरनंु िववेचन अनुपूिर्त तरीके आपवुं सयिुक्तक छे। लेखनप्रकारनी बाबतमा ंबहु सावचेतीथी पूरावा आपवानी जरूर छे। श्री नरिसहंरावे Gujarati Language and Literature Vol ll P. 205-207 पर आपेला िनयमो सामान्य रीत ेहाथप्रतोनी भाषा पारखवा काज ेस्वीकायार् छे। त ेकाळना किवओनी भाषा चचार् माटे नीचेनो कोठो ठीक थई पडशे:-

    किव गं्रथनाम रचना साल हाथप्रतनी सा.जयशेखरसूिर ित्रभुवनदीपक प्रबंध पंदरमो सैको आशरे १४६२ xशािलसूिर िवराटपवर् ” सं.१६०४? वसंतिवलास ” सं.१५०८

  • 27SHRUTSAGAR January-2019वछ मृगाङ्कलेखा रास सं. १५२०नी ंआसपास सं.१५८२” ” ” सं.१६५७पद्मनाभ कान्हडदेप्रबंध सं.१५१२ Xभीम हिरलीला सं.१५४१ सं.१५७४भालण कादंबरी सं.१५५० आशरे सं.१६७२हषर्कुल वसुदेवचुपइ सं.१५५७ सं.१६०६कमर्ण सीताहरण सं.१५२६ सं.१६०५जनादर्न उषाहरण सं.१५४८ सं.१६७३लावण्यसमय िवमलप्रबंध सं.१५६८ सं.१५८४

    जयशेखरना ित्र. दी मा ंरहइ तमेज बीजा अनुषंगी शब्दोना प्रयोग मालूम पडे छे; जो के आ गं्रथनी प्रतो मोडा समयनी मळे छेः दा. त. पं. लालचंदनी आविृत्त; पा. १४.

    सकूां तृणां चरई वनवास ुन करइ ंकिहनउ िकिसउ िवणास ु।ते मृग ऊपिर आयुध वहइ ंअ हरहइ ंिविविजर्ऊं मूरख भणइ ं।।

    शािलसूिरना िवराटपवर्माथंी नीचेनो भाग टाकंुं छंु. वाचके ध्यानमा ंलेवानुं छे के हाथप्रतनो लखाया संवत जो के १६०४ छे पण िवक्रमना पंदरमा शतकना पूवार्धर्नंु आ काव्य होवुं जोईए। आ काव्य अप्रिसद्ध छे अने गायकवाड ओरीएन्टल सीरीझमा ंप्रो. बळवंतराय ठाकोर, श्री. मोहनलाल दलीचंद देशाई अने मधसूुदन िचमनलाल मोदीथी संपािदत थवाना पंदरमा अने सोळमा ंशतकना गुजरातीना काव्यसंग्रहमा ंतनंुे स्थान छे। शरूआतनो भाग टाकंुं छुः-कासमीरमुखमंडण माडी तंू समी जिग न कोइ िभराडीगीतनािद िजम कोइल कूजइ तंू पसाइ सिव कुितग पूजइ ।।भारती भगवती एक मागंू िच पांडव तणे गुिण लागउंआिप मंू वचन तंू रसवांणी हंू करउं िजिस ंप्राकृत वाणी ।पंच पंडिव वनंतिर िवमािसउं तेिरमंू वरस केिम गमेिसउंबुिद्ध नारिद महािरिष आपी म यदेश रिहयो तुि यापी ।।षेजडीिसिहिर श िनयंु या देह प विल मंत्र प्रयंु यादु्रपदीरहइ ंते मित आली ग्या िवराट नपृमंिदिर चाली ।।

  • जनवरी-२०१९28श्रतुसागरपंिक्त ३. तणे अने पं. ६. रिहयो आ पाछळनी लेखन प्रकारनी असर जणाय

    छे; पं. ८मा ंरहइं अनुषंगी शब्दनो प्रयोग छे। आखा य काव्यमा ंअजाण्य ेसमकालीन लेखनप्रकार कोक कोक वार देखा दइ दे छे।

    आ पछी सं. १५०८मा ंलखायेलंु वसंतिवलासमाथंी दाखलो लउं छंु। आ काव्य गू.व. सो. तरफथी िद. बा. के. ह. ध्रवु संपािदत प्राचीनगुजर्रकाव्यमा ंलेवामा ंआवंु्य छे:

    रहइनो प्रयोग श्री नरिसहंरावना ंLectutes ll P 122 प्रमाणेःवालंभ रहइं सुिवचार। (st 72);ज्यारे िद. बा. के. ह. ध्रवुनी वाचना प्रमाण ेप्राचीन गुजर्र काव्य पा. २२कडी. ७०)

    एिक रे िदइ बाली ताली छि दिहं रासएक िदइ उपाल भ रे वाल भिर सिवलास

    ए ज प्रमाण ेकडी ३० :बउलिवलूधला महुअर बहु अ रचइ ंझणकारमयणर हइ आण दण व दण करइ कइ वार ।।

    बीजी पंिक्तमा-ंमयणर हइं आमन्दण ए वाचना ठीक होय; अथवा तो मयणिर हइआणन्दण एम होवुं जोईए रहइं, िर छट्ठी िवभिक्तमा ंप्रयकु्त।

    आखंु काव्य तत्कालीन भाषािवशेषोथी भरपूर छे। स्वरयगु्म अइ=अइ, इ, ए(दा.त. ए ए जवले्लज कडी ३२ के=िक) अउ=अउ अने उ. सोळमा ंसैकानी

    शरुआतमा ंिछए त ेदश्यमान थाय छे।त ेज प्रमाणे सं. १५१२नो कान्हडदेप्रबंध. लगइ= ‘थी’ ‘साथ’ेना अथर्मा ं

    तहीं लगई जिग जालहुर जण ज पइ इिण कािल ।।(देरासरी. आव.ृ १. पा. २ कडी ७)

    ितिण अवगिणउ माधव ब भ तांिह लगइिवग्रह आरम्भ (सदर. पा. २. कडी ७)

    रहइं=री छट्ठीना प्रयोगे कोइ कहेशे के आ तो मारवाडीनी असर छे। पण ते

  • 29SHRUTSAGAR January-2019

    मनातुं नथी कारण के जो एम होय तो रो, रा, रुना प्रयोयो साथे होय ते नथीःरंग िबरंगी मूहगइ मूिल पिहरइ एक कणयरी झूिल।

    (सदर. पा. ७५. कडी ४८)स्वरयगु्म संबंध ेअने जोडणी चचार् िवषे जुओश्री नरिसहंराव Lectures LL P 30-31. अइना ए थयाना ंसोळेक स�