sahitya

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इट्स अ साहित्य defination.

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साहि�त्य शब्द को परि�भाहि�त क�ना कठि�न �ै। जैसे पानी की आकृहित न�ीं, जिजस साँचे में डालो व�ढ़ल जाता �ै, उसी त�� का त�ल �ै य� शब्द। कहिवताा, क�ानी, नाटक, हिनबंध, रि�पोता-ज, जीवनी,�ेखाचिचत्र, यात्रा-वृतांत, समालोचना बहुत से साँचे �ैं। परि�भा�ा इस चिलये भी कठि�न �ो जाती �ै हिकधम-, �ाजनीहित, समाज, समसमयियक आलेखों, भूगोल, हिवज्ञान जैसे हिव�यों प� जो लेखन �ै उसकीक्या शे्रणी �ो? क्या साहि�त्य की परि�यिध इतनी व्यापक �ै?

संस्कृत में एक शब्द �ै वांड्मय। भा�ा के माध्यम से जो कुछ भी क�ा गया, व� वांड्मय �ै।साहि�त्य के संदभ- में संस्कृत की इस परि�भा�ा में मम- �ै – शब्दार्थोD सहि�तौ काव्यम। य�ा ँशब्द औ�अर्थो- के सार्थो भाव की आवश्यकता मानी गयी �ै। इसी परि�भा�ा को व्यापक क�ते हुए संस्कृत के �ीएक आचाय- हिवश्वनार्थो म�ापात्र नें “साहि�त्य दप-ण” नामक ग्रंर्थो चिलख क� “साहि�त्य” शब्द कोव्यव�ा� में प्रचचिलत हिकया। संस्कृत के �ी एक आचाय- कंुतक व्याख्या क�ते �ैं हिक जब शब्द औ�अर्थो- के बीच सुन्द�ता के चिलये स्पधा- या �ोड लगी �ो, तो साहि�त्य की सृयिO �ोती �ै। केवलसंस्कृतहिनष्ठ या क्लिक्लO चिलखना �ी साहि�त्य न�ीं �ै न �ी अनर्थो-क तुकबंदी साहि�त्य क�ी जा सकेगी।व� भावहिव�ीन �चना जो छंद औ� मीट� के अनुमापों में शतप्रहितशत स�ी भी बै�ती �ो, वैसी �ीकांहित�ीन �ैं जैसे अप�ान्� में जुगनू। अर्थोा-त, भाव हिकसी सृजन को व� ग��ायी प्रदान क�ते �ैं जोहिकसी �चना को साहि�त्य की परि�यिध में लाता �ै। हिकतनी सादगी से हिनदा फ़ाज़ली क� जाते �ैं

मैं �ोया प�देस में, भीगा माँ का प्या�दुख नें दुख से बात की, हिबन चिचट्ठी हिबन ता�।

य�ाँ शब्द औ� अर्थो- के बीच सादगी की स्पर्थोा- �ै किकंतु भाव इतने ग��े हिक �ोम �ोम से इस सृजनको म�सूस हिकया जा सकता �ै। य�ी साहि�त्य �ै। साहि�त्य शब्द की ची�-फाड क�ने प� एक औ�छुपा हुआ आयाम दीख पडता �ै व� �ै इसका सामाजिजक आयाम। बहुत जो� दे क� एक परि�भा�ाकी जाती �ै हिक “साहि�त्य समाज का दप-ण �ै”। �चनाका� अपने सामाजिजक स�ोका�ों से हिवमुक्त न�ीं�ो सकता, य�ी का�ण �ै हिक साहि�त्य अपने समय का इहित�ास बनता चला जाता �ै। अपने समय प� तीखे �ो क� दुष्यंत कुमा� चिलखते �ैं:

क�ा ँतो तय र्थोा च�ाग़ाँ �� एक घ� के चिलयेक�ा ँच�ाग़ मयस्स� न�ीं श�� के चिलये।

न �ो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगेये लोग हिकतने मुनाचिसब �ैं इस सफ़� के चिलये।

�ामधा�ी सिसं� ‘ठिदनक�’ की हिनम्नचिलखिखत अम� पंचिक्तयाँ, साहि�त्य के इस आयाम का अनुपम उदा��ण �ैं:

आ�ती चिलये तू हिकसे ढंूढता �ै मू�ख,मजिन्द�ों, �ाजप्रासादों में, त�खानों में?देवता क�ीं सड़कों प� हिगट्टी तोड़ ��े,देवता यिमलेंगे खेतों में, खचिल�ानों में।फावडे़ औ� �ल �ाजदण्ड बनने को �ैं,धूस�ता सोने से शंृ्रगा� सजाती �ै;दो �ा�,समय के �र्थो का घघ-�-नाद सुनो,सिसं�ासन खाली क�ो हिक जनता आती �ै

संक्षेप में “साहि�त्य” - शब्द, अर्थो- औ� भावनाओं की व� हित्रवेणी �ै जो जनहि�त की धा�ा के सार्थो उच्चादशj की ठिदशा में प्रवाहि�त �ै।साहि�त्य शब्द को परि�भाहि�त क�ना कठि�न �ै। जैसे पानी की आकृहित न�ीं, जिजस साँचे में डालो व�ढ़ल जाता �ै, उसी त�� का त�ल �ै य� शब्द। कहिवताा, क�ानी, नाटक, हिनबंध, रि�पोता-ज, जीवनी,�ेखाचिचत्र, यात्रा-वृतांत, समालोचना बहुत से साँचे �ैं। परि�भा�ा इस चिलये भी कठि�न �ो जाती �ै हिकधम-, �ाजनीहित, समाज, समसमयियक आलेखों, भूगोल, हिवज्ञान जैसे हिव�यों प� जो लेखन �ै उसकीक्या शे्रणी �ो? क्या साहि�त्य की परि�यिध इतनी व्यापक �ै?

संस्कृत में एक शब्द �ै वांड्मय। भा�ा के माध्यम से जो कुछ भी क�ा गया, व� वांड्मय �ै।साहि�त्य के संदभ- में संस्कृत की इस परि�भा�ा में मम- �ै – शब्दार्थोD सहि�तौ काव्यम। य�ा ँशब्द औ�अर्थो- के सार्थो भाव की आवश्यकता मानी गयी �ै। इसी परि�भा�ा को व्यापक क�ते हुए संस्कृत के �ीएक आचाय- हिवश्वनार्थो म�ापात्र नें “साहि�त्य दप-ण” नामक ग्रंर्थो चिलख क� “साहि�त्य” शब्द कोव्यव�ा� में प्रचचिलत हिकया। संस्कृत के �ी एक आचाय- कंुतक व्याख्या क�ते �ैं हिक जब शब्द औ�अर्थो- के बीच सुन्द�ता के चिलये स्पधा- या �ोड लगी �ो, तो साहि�त्य की सृयिO �ोती �ै। केवलसंस्कृतहिनष्ठ या क्लिक्लO चिलखना �ी साहि�त्य न�ीं �ै न �ी अनर्थो-क तुकबंदी साहि�त्य क�ी जा सकेगी।व� भावहिव�ीन �चना जो छंद औ� मीट� के अनुमापों में शतप्रहितशत स�ी भी बै�ती �ो, वैसी �ीकांहित�ीन �ैं जैसे अप�ान्� में जुगनू। अर्थोा-त, भाव हिकसी सृजन को व� ग��ायी प्रदान क�ते �ैं जोहिकसी �चना को साहि�त्य की परि�यिध में लाता �ै। हिकतनी सादगी से हिनदा फ़ाज़ली क� जाते �ैं

Page 2: sahitya

मैं �ोया प�देस में, भीगा माँ का प्या�दुख नें दुख से बात की, हिबन चिचट्ठी हिबन ता�।

य�ाँ शब्द औ� अर्थो- के बीच सादगी की स्पर्थोा- �ै किकंतु भाव इतने ग��े हिक �ोम �ोम से इस सृजनको म�सूस हिकया जा सकता �ै। य�ी साहि�त्य �ै। साहि�त्य शब्द की ची�-फाड क�ने प� एक औ�छुपा हुआ आयाम दीख पडता �ै व� �ै इसका सामाजिजक आयाम। बहुत जो� दे क� एक परि�भा�ाकी जाती �ै हिक “साहि�त्य समाज का दप-ण �ै”। �चनाका� अपने सामाजिजक स�ोका�ों से हिवमुक्त न�ीं�ो सकता, य�ी का�ण �ै हिक साहि�त्य अपने समय का इहित�ास बनता चला जाता �ै। अपने समय प� तीखे �ो क� दुष्यंत कुमा� चिलखते �ैं:

क�ा ँतो तय र्थोा च�ाग़ाँ �� एक घ� के चिलयेक�ा ँच�ाग़ मयस्स� न�ीं श�� के चिलये।

न �ो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगेये लोग हिकतने मुनाचिसब �ैं इस सफ़� के चिलये।

�ामधा�ी सिसं� ‘ठिदनक�’ की हिनम्नचिलखिखत अम� पंचिक्तयाँ, साहि�त्य के इस आयाम का अनुपम उदा��ण �ैं:

आ�ती चिलये तू हिकसे ढंूढता �ै मू�ख,मजिन्द�ों, �ाजप्रासादों में, त�खानों में?देवता क�ीं सड़कों प� हिगट्टी तोड़ ��े,देवता यिमलेंगे खेतों में, खचिल�ानों में।फावडे़ औ� �ल �ाजदण्ड बनने को �ैं,धूस�ता सोने से शंृ्रगा� सजाती �ै;दो �ा�,समय के �र्थो का घघ-�-नाद सुनो,सिसं�ासन खाली क�ो हिक जनता आती �ै

संक्षेप में “साहि�त्य” - शब्द, अर्थो- औ� भावनाओं की व� हित्रवेणी �ै जो जनहि�त की धा�ा के सार्थो उच्चादशj की ठिदशा में प्रवाहि�त �ै।साहि�त्य शब्द को परि�भाहि�त क�ना कठि�न �ै। जैसे पानी की आकृहित न�ीं, जिजस साँचे में डालो व�ढ़ल जाता �ै, उसी त�� का त�ल �ै य� शब्द। कहिवताा, क�ानी, नाटक, हिनबंध, रि�पोता-ज, जीवनी,�ेखाचिचत्र, यात्रा-वृतांत, समालोचना बहुत से साँचे �ैं। परि�भा�ा इस चिलये भी कठि�न �ो जाती �ै हिकधम-, �ाजनीहित, समाज, समसमयियक आलेखों, भूगोल, हिवज्ञान जैसे हिव�यों प� जो लेखन �ै उसकीक्या शे्रणी �ो? क्या साहि�त्य की परि�यिध इतनी व्यापक �ै?

संस्कृत में एक शब्द �ै वांड्मय। भा�ा के माध्यम से जो कुछ भी क�ा गया, व� वांड्मय �ै।साहि�त्य के संदभ- में संस्कृत की इस परि�भा�ा में मम- �ै – शब्दार्थोD सहि�तौ काव्यम। य�ा ँशब्द औ�अर्थो- के सार्थो भाव की आवश्यकता मानी गयी �ै। इसी परि�भा�ा को व्यापक क�ते हुए संस्कृत के �ीएक आचाय- हिवश्वनार्थो म�ापात्र नें “साहि�त्य दप-ण” नामक ग्रंर्थो चिलख क� “साहि�त्य” शब्द कोव्यव�ा� में प्रचचिलत हिकया। संस्कृत के �ी एक आचाय- कंुतक व्याख्या क�ते �ैं हिक जब शब्द औ�अर्थो- के बीच सुन्द�ता के चिलये स्पधा- या �ोड लगी �ो, तो साहि�त्य की सृयिO �ोती �ै। केवलसंस्कृतहिनष्ठ या क्लिक्लO चिलखना �ी साहि�त्य न�ीं �ै न �ी अनर्थो-क तुकबंदी साहि�त्य क�ी जा सकेगी।व� भावहिव�ीन �चना जो छंद औ� मीट� के अनुमापों में शतप्रहितशत स�ी भी बै�ती �ो, वैसी �ीकांहित�ीन �ैं जैसे अप�ान्� में जुगनू। अर्थोा-त, भाव हिकसी सृजन को व� ग��ायी प्रदान क�ते �ैं जोहिकसी �चना को साहि�त्य की परि�यिध में लाता �ै। हिकतनी सादगी से हिनदा फ़ाज़ली क� जाते �ैं

मैं �ोया प�देस में, भीगा माँ का प्या�दुख नें दुख से बात की, हिबन चिचट्ठी हिबन ता�।

य�ाँ शब्द औ� अर्थो- के बीच सादगी की स्पर्थोा- �ै किकंतु भाव इतने ग��े हिक �ोम �ोम से इस सृजनको म�सूस हिकया जा सकता �ै। य�ी साहि�त्य �ै। साहि�त्य शब्द की ची�-फाड क�ने प� एक औ�छुपा हुआ आयाम दीख पडता �ै व� �ै इसका सामाजिजक आयाम। बहुत जो� दे क� एक परि�भा�ाकी जाती �ै हिक “साहि�त्य समाज का दप-ण �ै”। �चनाका� अपने सामाजिजक स�ोका�ों से हिवमुक्त न�ीं�ो सकता, य�ी का�ण �ै हिक साहि�त्य अपने समय का इहित�ास बनता चला जाता �ै। अपने समय प� तीखे �ो क� दुष्यंत कुमा� चिलखते �ैं:

क�ा ँतो तय र्थोा च�ाग़ाँ �� एक घ� के चिलयेक�ा ँच�ाग़ मयस्स� न�ीं श�� के चिलये।

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न �ो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगेये लोग हिकतने मुनाचिसब �ैं इस सफ़� के चिलये।

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आ�ती चिलये तू हिकसे ढंूढता �ै मू�ख,मजिन्द�ों, �ाजप्रासादों में, त�खानों में?देवता क�ीं सड़कों प� हिगट्टी तोड़ ��े,देवता यिमलेंगे खेतों में, खचिल�ानों में।फावडे़ औ� �ल �ाजदण्ड बनने को �ैं,धूस�ता सोने से शंृ्रगा� सजाती �ै;दो �ा�,समय के �र्थो का घघ-�-नाद सुनो,सिसं�ासन खाली क�ो हिक जनता आती �ै

संक्षेप में “साहि�त्य” - शब्द, अर्थो- औ� भावनाओं की व� हित्रवेणी �ै जो जनहि�त की धा�ा के सार्थो उच्चादशj की ठिदशा में प्रवाहि�त �ै।साहि�त्य शब्द को परि�भाहि�त क�ना कठि�न �ै। जैसे पानी की आकृहित न�ीं, जिजस साँचे में डालो व�ढ़ल जाता �ै, उसी त�� का त�ल �ै य� शब्द। कहिवताा, क�ानी, नाटक, हिनबंध, रि�पोता-ज, जीवनी,�ेखाचिचत्र, यात्रा-वृतांत, समालोचना बहुत से साँचे �ैं। परि�भा�ा इस चिलये भी कठि�न �ो जाती �ै हिकधम-, �ाजनीहित, समाज, समसमयियक आलेखों, भूगोल, हिवज्ञान जैसे हिव�यों प� जो लेखन �ै उसकीक्या शे्रणी �ो? क्या साहि�त्य की परि�यिध इतनी व्यापक �ै?

संस्कृत में एक शब्द �ै वांड्मय। भा�ा के माध्यम से जो कुछ भी क�ा गया, व� वांड्मय �ै।साहि�त्य के संदभ- में संस्कृत की इस परि�भा�ा में मम- �ै – शब्दार्थोD सहि�तौ काव्यम। य�ा ँशब्द औ�अर्थो- के सार्थो भाव की आवश्यकता मानी गयी �ै। इसी परि�भा�ा को व्यापक क�ते हुए संस्कृत के �ीएक आचाय- हिवश्वनार्थो म�ापात्र नें “साहि�त्य दप-ण” नामक ग्रंर्थो चिलख क� “साहि�त्य” शब्द कोव्यव�ा� में प्रचचिलत हिकया। संस्कृत के �ी एक आचाय- कंुतक व्याख्या क�ते �ैं हिक जब शब्द औ�अर्थो- के बीच सुन्द�ता के चिलये स्पधा- या �ोड लगी �ो, तो साहि�त्य की सृयिO �ोती �ै। केवलसंस्कृतहिनष्ठ या क्लिक्लO चिलखना �ी साहि�त्य न�ीं �ै न �ी अनर्थो-क तुकबंदी साहि�त्य क�ी जा सकेगी।व� भावहिव�ीन �चना जो छंद औ� मीट� के अनुमापों में शतप्रहितशत स�ी भी बै�ती �ो, वैसी �ीकांहित�ीन �ैं जैसे अप�ान्� में जुगनू। अर्थोा-त, भाव हिकसी सृजन को व� ग��ायी प्रदान क�ते �ैं जोहिकसी �चना को साहि�त्य की परि�यिध में लाता �ै। हिकतनी सादगी से हिनदा फ़ाज़ली क� जाते �ैं

मैं �ोया प�देस में, भीगा माँ का प्या�दुख नें दुख से बात की, हिबन चिचट्ठी हिबन ता�।

य�ाँ शब्द औ� अर्थो- के बीच सादगी की स्पर्थोा- �ै किकंतु भाव इतने ग��े हिक �ोम �ोम से इस सृजनको म�सूस हिकया जा सकता �ै। य�ी साहि�त्य �ै। साहि�त्य शब्द की ची�-फाड क�ने प� एक औ�छुपा हुआ आयाम दीख पडता �ै व� �ै इसका सामाजिजक आयाम। बहुत जो� दे क� एक परि�भा�ाकी जाती �ै हिक “साहि�त्य समाज का दप-ण �ै”। �चनाका� अपने सामाजिजक स�ोका�ों से हिवमुक्त न�ीं�ो सकता, य�ी का�ण �ै हिक साहि�त्य अपने समय का इहित�ास बनता चला जाता �ै। अपने समय प� तीखे �ो क� दुष्यंत कुमा� चिलखते �ैं:

क�ा ँतो तय र्थोा च�ाग़ाँ �� एक घ� के चिलयेक�ा ँच�ाग़ मयस्स� न�ीं श�� के चिलये।

न �ो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगेये लोग हिकतने मुनाचिसब �ैं इस सफ़� के चिलये।

�ामधा�ी सिसं� ‘ठिदनक�’ की हिनम्नचिलखिखत अम� पंचिक्तयाँ, साहि�त्य के इस आयाम का अनुपम उदा��ण �ैं:

आ�ती चिलये तू हिकसे ढंूढता �ै मू�ख,मजिन्द�ों, �ाजप्रासादों में, त�खानों में?देवता क�ीं सड़कों प� हिगट्टी तोड़ ��े,देवता यिमलेंगे खेतों में, खचिल�ानों में।फावडे़ औ� �ल �ाजदण्ड बनने को �ैं,धूस�ता सोने से शंृ्रगा� सजाती �ै;दो �ा�,समय के �र्थो का घघ-�-नाद सुनो,

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सिसं�ासन खाली क�ो हिक जनता आती �ै

संक्षेप में “साहि�त्य” - शब्द, अर्थो- औ� भावनाओं की व� हित्रवेणी �ै जो जनहि�त की धा�ा के सार्थो उच्चादशj की ठिदशा में प्रवाहि�त �ै।साहि�त्य शब्द को परि�भाहि�त क�ना कठि�न �ै। जैसे पानी की आकृहित न�ीं, जिजस साँचे में डालो व�ढ़ल जाता �ै, उसी त�� का त�ल �ै य� शब्द। कहिवताा, क�ानी, नाटक, हिनबंध, रि�पोता-ज, जीवनी,�ेखाचिचत्र, यात्रा-वृतांत, समालोचना बहुत से साँचे �ैं। परि�भा�ा इस चिलये भी कठि�न �ो जाती �ै हिकधम-, �ाजनीहित, समाज, समसमयियक आलेखों, भूगोल, हिवज्ञान जैसे हिव�यों प� जो लेखन �ै उसकीक्या शे्रणी �ो? क्या साहि�त्य की परि�यिध इतनी व्यापक �ै?

संस्कृत में एक शब्द �ै वांड्मय। भा�ा के माध्यम से जो कुछ भी क�ा गया, व� वांड्मय �ै।साहि�त्य के संदभ- में संस्कृत की इस परि�भा�ा में मम- �ै – शब्दार्थोD सहि�तौ काव्यम। य�ा ँशब्द औ�अर्थो- के सार्थो भाव की आवश्यकता मानी गयी �ै। इसी परि�भा�ा को व्यापक क�ते हुए संस्कृत के �ीएक आचाय- हिवश्वनार्थो म�ापात्र नें “साहि�त्य दप-ण” नामक ग्रंर्थो चिलख क� “साहि�त्य” शब्द कोव्यव�ा� में प्रचचिलत हिकया। संस्कृत के �ी एक आचाय- कंुतक व्याख्या क�ते �ैं हिक जब शब्द औ�अर्थो- के बीच सुन्द�ता के चिलये स्पधा- या �ोड लगी �ो, तो साहि�त्य की सृयिO �ोती �ै। केवलसंस्कृतहिनष्ठ या क्लिक्लO चिलखना �ी साहि�त्य न�ीं �ै न �ी अनर्थो-क तुकबंदी साहि�त्य क�ी जा सकेगी।व� भावहिव�ीन �चना जो छंद औ� मीट� के अनुमापों में शतप्रहितशत स�ी भी बै�ती �ो, वैसी �ीकांहित�ीन �ैं जैसे अप�ान्� में जुगनू। अर्थोा-त, भाव हिकसी सृजन को व� ग��ायी प्रदान क�ते �ैं जोहिकसी �चना को साहि�त्य की परि�यिध में लाता �ै। हिकतनी सादगी से हिनदा फ़ाज़ली क� जाते �ैं

मैं �ोया प�देस में, भीगा माँ का प्या�दुख नें दुख से बात की, हिबन चिचट्ठी हिबन ता�।

य�ाँ शब्द औ� अर्थो- के बीच सादगी की स्पर्थोा- �ै किकंतु भाव इतने ग��े हिक �ोम �ोम से इस सृजनको म�सूस हिकया जा सकता �ै। य�ी साहि�त्य �ै। साहि�त्य शब्द की ची�-फाड क�ने प� एक औ�छुपा हुआ आयाम दीख पडता �ै व� �ै इसका सामाजिजक आयाम। बहुत जो� दे क� एक परि�भा�ाकी जाती �ै हिक “साहि�त्य समाज का दप-ण �ै”। �चनाका� अपने सामाजिजक स�ोका�ों से हिवमुक्त न�ीं�ो सकता, य�ी का�ण �ै हिक साहि�त्य अपने समय का इहित�ास बनता चला जाता �ै। अपने समय प� तीखे �ो क� दुष्यंत कुमा� चिलखते �ैं:

क�ा ँतो तय र्थोा च�ाग़ाँ �� एक घ� के चिलयेक�ा ँच�ाग़ मयस्स� न�ीं श�� के चिलये।

न �ो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगेये लोग हिकतने मुनाचिसब �ैं इस सफ़� के चिलये।

�ामधा�ी सिसं� ‘ठिदनक�’ की हिनम्नचिलखिखत अम� पंचिक्तयाँ, साहि�त्य के इस आयाम का अनुपम उदा��ण �ैं:

आ�ती चिलये तू हिकसे ढंूढता �ै मू�ख,मजिन्द�ों, �ाजप्रासादों में, त�खानों में?देवता क�ीं सड़कों प� हिगट्टी तोड़ ��े,देवता यिमलेंगे खेतों में, खचिल�ानों में।फावडे़ औ� �ल �ाजदण्ड बनने को �ैं,धूस�ता सोने से शंृ्रगा� सजाती �ै;दो �ा�,समय के �र्थो का घघ-�-नाद सुनो,सिसं�ासन खाली क�ो हिक जनता आती �ै

संक्षेप में “साहि�त्य” - शब्द, अर्थो- औ� भावनाओं की व� हित्रवेणी �ै जो जनहि�त की धा�ा के सार्थो उच्चादशj की ठिदशा में प्रवाहि�त �ै।साहि�त्य शब्द को परि�भाहि�त क�ना कठि�न �ै। जैसे पानी की आकृहित न�ीं, जिजस साँचे में डालो व�ढ़ल जाता �ै, उसी त�� का त�ल �ै य� शब्द। कहिवताा, क�ानी, नाटक, हिनबंध, रि�पोता-ज, जीवनी,�ेखाचिचत्र, यात्रा-वृतांत, समालोचना बहुत से साँचे �ैं। परि�भा�ा इस चिलये भी कठि�न �ो जाती �ै हिकधम-, �ाजनीहित, समाज, समसमयियक आलेखों, भूगोल, हिवज्ञान जैसे हिव�यों प� जो लेखन �ै उसकीक्या शे्रणी �ो? क्या साहि�त्य की परि�यिध इतनी व्यापक �ै?

संस्कृत में एक शब्द �ै वांड्मय। भा�ा के माध्यम से जो कुछ भी क�ा गया, व� वांड्मय �ै।साहि�त्य के संदभ- में संस्कृत की इस परि�भा�ा में मम- �ै – शब्दार्थोD सहि�तौ काव्यम। य�ा ँशब्द औ�अर्थो- के सार्थो भाव की आवश्यकता मानी गयी �ै। इसी परि�भा�ा को व्यापक क�ते हुए संस्कृत के �ीएक आचाय- हिवश्वनार्थो म�ापात्र नें “साहि�त्य दप-ण” नामक ग्रंर्थो चिलख क� “साहि�त्य” शब्द कोव्यव�ा� में प्रचचिलत हिकया। संस्कृत के �ी एक आचाय- कंुतक व्याख्या क�ते �ैं हिक जब शब्द औ�अर्थो- के बीच सुन्द�ता के चिलये स्पधा- या �ोड लगी �ो, तो साहि�त्य की सृयिO �ोती �ै। केवलसंस्कृतहिनष्ठ या क्लिक्लO चिलखना �ी साहि�त्य न�ीं �ै न �ी अनर्थो-क तुकबंदी साहि�त्य क�ी जा सकेगी।व� भावहिव�ीन �चना जो छंद औ� मीट� के अनुमापों में शतप्रहितशत स�ी भी बै�ती �ो, वैसी �ी

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कांहित�ीन �ैं जैसे अप�ान्� में जुगनू। अर्थोा-त, भाव हिकसी सृजन को व� ग��ायी प्रदान क�ते �ैं जोहिकसी �चना को साहि�त्य की परि�यिध में लाता �ै। हिकतनी सादगी से हिनदा फ़ाज़ली क� जाते �ैं

मैं �ोया प�देस में, भीगा माँ का प्या�दुख नें दुख से बात की, हिबन चिचट्ठी हिबन ता�।

य�ाँ शब्द औ� अर्थो- के बीच सादगी की स्पर्थोा- �ै किकंतु भाव इतने ग��े हिक �ोम �ोम से इस सृजनको म�सूस हिकया जा सकता �ै। य�ी साहि�त्य �ै। साहि�त्य शब्द की ची�-फाड क�ने प� एक औ�छुपा हुआ आयाम दीख पडता �ै व� �ै इसका सामाजिजक आयाम। बहुत जो� दे क� एक परि�भा�ाकी जाती �ै हिक “साहि�त्य समाज का दप-ण �ै”। �चनाका� अपने सामाजिजक स�ोका�ों से हिवमुक्त न�ीं�ो सकता, य�ी का�ण �ै हिक साहि�त्य अपने समय का इहित�ास बनता चला जाता �ै। अपने समय प� तीखे �ो क� दुष्यंत कुमा� चिलखते �ैं:

क�ा ँतो तय र्थोा च�ाग़ाँ �� एक घ� के चिलयेक�ा ँच�ाग़ मयस्स� न�ीं श�� के चिलये।

न �ो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगेये लोग हिकतने मुनाचिसब �ैं इस सफ़� के चिलये।

�ामधा�ी सिसं� ‘ठिदनक�’ की हिनम्नचिलखिखत अम� पंचिक्तयाँ, साहि�त्य के इस आयाम का अनुपम उदा��ण �ैं:

आ�ती चिलये तू हिकसे ढंूढता �ै मू�ख,मजिन्द�ों, �ाजप्रासादों में, त�खानों में?देवता क�ीं सड़कों प� हिगट्टी तोड़ ��े,देवता यिमलेंगे खेतों में, खचिल�ानों में।फावडे़ औ� �ल �ाजदण्ड बनने को �ैं,धूस�ता सोने से शंृ्रगा� सजाती �ै;दो �ा�,समय के �र्थो का घघ-�-नाद सुनो,सिसं�ासन खाली क�ो हिक जनता आती �ै

संक्षेप में “साहि�त्य” - शब्द, अर्थो- औ� भावनाओं की व� हित्रवेणी �ै जो जनहि�त की धा�ा के सार्थो उच्चादशj की ठिदशा में प्रवाहि�त �ै।साहि�त्य शब्द को परि�भाहि�त क�ना कठि�न �ै। जैसे पानी की आकृहित न�ीं, जिजस साँचे में डालो व�ढ़ल जाता �ै, उसी त�� का त�ल �ै य� शब्द। कहिवताा, क�ानी, नाटक, हिनबंध, रि�पोता-ज, जीवनी,�ेखाचिचत्र, यात्रा-वृतांत, समालोचना बहुत से साँचे �ैं। परि�भा�ा इस चिलये भी कठि�न �ो जाती �ै हिकधम-, �ाजनीहित, समाज, समसमयियक आलेखों, भूगोल, हिवज्ञान जैसे हिव�यों प� जो लेखन �ै उसकीक्या शे्रणी �ो? क्या साहि�त्य की परि�यिध इतनी व्यापक �ै?

संस्कृत में एक शब्द �ै वांड्मय। भा�ा के माध्यम से जो कुछ भी क�ा गया, व� वांड्मय �ै।साहि�त्य के संदभ- में संस्कृत की इस परि�भा�ा में मम- �ै – शब्दार्थोD सहि�तौ काव्यम। य�ा ँशब्द औ�अर्थो- के सार्थो भाव की आवश्यकता मानी गयी �ै। इसी परि�भा�ा को व्यापक क�ते हुए संस्कृत के �ीएक आचाय- हिवश्वनार्थो म�ापात्र नें “साहि�त्य दप-ण” नामक ग्रंर्थो चिलख क� “साहि�त्य” शब्द कोव्यव�ा� में प्रचचिलत हिकया। संस्कृत के �ी एक आचाय- कंुतक व्याख्या क�ते �ैं हिक जब शब्द औ�अर्थो- के बीच सुन्द�ता के चिलये स्पधा- या �ोड लगी �ो, तो साहि�त्य की सृयिO �ोती �ै। केवलसंस्कृतहिनष्ठ या क्लिक्लO चिलखना �ी साहि�त्य न�ीं �ै न �ी अनर्थो-क तुकबंदी साहि�त्य क�ी जा सकेगी।व� भावहिव�ीन �चना जो छंद औ� मीट� के अनुमापों में शतप्रहितशत स�ी भी बै�ती �ो, वैसी �ीकांहित�ीन �ैं जैसे अप�ान्� में जुगनू। अर्थोा-त, भाव हिकसी सृजन को व� ग��ायी प्रदान क�ते �ैं जोहिकसी �चना को साहि�त्य की परि�यिध में लाता �ै। हिकतनी सादगी से हिनदा फ़ाज़ली क� जाते �ैं

मैं �ोया प�देस में, भीगा माँ का प्या�दुख नें दुख से बात की, हिबन चिचट्ठी हिबन ता�।

य�ाँ शब्द औ� अर्थो- के बीच सादगी की स्पर्थोा- �ै किकंतु भाव इतने ग��े हिक �ोम �ोम से इस सृजनको म�सूस हिकया जा सकता �ै। य�ी साहि�त्य �ै। साहि�त्य शब्द की ची�-फाड क�ने प� एक औ�छुपा हुआ आयाम दीख पडता �ै व� �ै इसका सामाजिजक आयाम। बहुत जो� दे क� एक परि�भा�ाकी जाती �ै हिक “साहि�त्य समाज का दप-ण �ै”। �चनाका� अपने सामाजिजक स�ोका�ों से हिवमुक्त न�ीं�ो सकता, य�ी का�ण �ै हिक साहि�त्य अपने समय का इहित�ास बनता चला जाता �ै। अपने समय प� तीखे �ो क� दुष्यंत कुमा� चिलखते �ैं:

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क�ा ँतो तय र्थोा च�ाग़ाँ �� एक घ� के चिलयेक�ा ँच�ाग़ मयस्स� न�ीं श�� के चिलये।

न �ो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगेये लोग हिकतने मुनाचिसब �ैं इस सफ़� के चिलये।

�ामधा�ी सिसं� ‘ठिदनक�’ की हिनम्नचिलखिखत अम� पंचिक्तयाँ, साहि�त्य के इस आयाम का अनुपम उदा��ण �ैं:

आ�ती चिलये तू हिकसे ढंूढता �ै मू�ख,मजिन्द�ों, �ाजप्रासादों में, त�खानों में?देवता क�ीं सड़कों प� हिगट्टी तोड़ ��े,देवता यिमलेंगे खेतों में, खचिल�ानों में।फावडे़ औ� �ल �ाजदण्ड बनने को �ैं,धूस�ता सोने से शंृ्रगा� सजाती �ै;दो �ा�,समय के �र्थो का घघ-�-नाद सुनो,सिसं�ासन खाली क�ो हिक जनता आती �ै

संक्षेप में “साहि�त्य” - शब्द, अर्थो- औ� भावनाओं की व� हित्रवेणी �ै जो जनहि�त की धा�ा के सार्थो उच्चादशj की ठिदशा में प्रवाहि�त �ै।साहि�त्य शब्द को परि�भाहि�त क�ना कठि�न �ै। जैसे पानी की आकृहित न�ीं, जिजस साँचे में डालो व�ढ़ल जाता �ै, उसी त�� का त�ल �ै य� शब्द। कहिवताा, क�ानी, नाटक, हिनबंध, रि�पोता-ज, जीवनी,�ेखाचिचत्र, यात्रा-वृतांत, समालोचना बहुत से साँचे �ैं। परि�भा�ा इस चिलये भी कठि�न �ो जाती �ै हिकधम-, �ाजनीहित, समाज, समसमयियक आलेखों, भूगोल, हिवज्ञान जैसे हिव�यों प� जो लेखन �ै उसकीक्या शे्रणी �ो? क्या साहि�त्य की परि�यिध इतनी व्यापक �ै?

संस्कृत में एक शब्द �ै वांड्मय। भा�ा के माध्यम से जो कुछ भी क�ा गया, व� वांड्मय �ै।साहि�त्य के संदभ- में संस्कृत की इस परि�भा�ा में मम- �ै – शब्दार्थोD सहि�तौ काव्यम। य�ा ँशब्द औ�अर्थो- के सार्थो भाव की आवश्यकता मानी गयी �ै। इसी परि�भा�ा को व्यापक क�ते हुए संस्कृत के �ीएक आचाय- हिवश्वनार्थो म�ापात्र नें “साहि�त्य दप-ण” नामक ग्रंर्थो चिलख क� “साहि�त्य” शब्द कोव्यव�ा� में प्रचचिलत हिकया। संस्कृत के �ी एक आचाय- कंुतक व्याख्या क�ते �ैं हिक जब शब्द औ�अर्थो- के बीच सुन्द�ता के चिलये स्पधा- या �ोड लगी �ो, तो साहि�त्य की सृयिO �ोती �ै। केवलसंस्कृतहिनष्ठ या क्लिक्लO चिलखना �ी साहि�त्य न�ीं �ै न �ी अनर्थो-क तुकबंदी साहि�त्य क�ी जा सकेगी।व� भावहिव�ीन �चना जो छंद औ� मीट� के अनुमापों में शतप्रहितशत स�ी भी बै�ती �ो, वैसी �ीकांहित�ीन �ैं जैसे अप�ान्� में जुगनू। अर्थोा-त, भाव हिकसी सृजन को व� ग��ायी प्रदान क�ते �ैं जोहिकसी �चना को साहि�त्य की परि�यिध में लाता �ै। हिकतनी सादगी से हिनदा फ़ाज़ली क� जाते �ैं

मैं �ोया प�देस में, भीगा माँ का प्या�दुख नें दुख से बात की, हिबन चिचट्ठी हिबन ता�।

य�ाँ शब्द औ� अर्थो- के बीच सादगी की स्पर्थोा- �ै किकंतु भाव इतने ग��े हिक �ोम �ोम से इस सृजनको म�सूस हिकया जा सकता �ै। य�ी साहि�त्य �ै। साहि�त्य शब्द की ची�-फाड क�ने प� एक औ�छुपा हुआ आयाम दीख पडता �ै व� �ै इसका सामाजिजक आयाम। बहुत जो� दे क� एक परि�भा�ाकी जाती �ै हिक “साहि�त्य समाज का दप-ण �ै”। �चनाका� अपने सामाजिजक स�ोका�ों से हिवमुक्त न�ीं�ो सकता, य�ी का�ण �ै हिक साहि�त्य अपने समय का इहित�ास बनता चला जाता �ै। अपने समय प� तीखे �ो क� दुष्यंत कुमा� चिलखते �ैं:

क�ा ँतो तय र्थोा च�ाग़ाँ �� एक घ� के चिलयेक�ा ँच�ाग़ मयस्स� न�ीं श�� के चिलये।

न �ो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगेये लोग हिकतने मुनाचिसब �ैं इस सफ़� के चिलये।

�ामधा�ी सिसं� ‘ठिदनक�’ की हिनम्नचिलखिखत अम� पंचिक्तयाँ, साहि�त्य के इस आयाम का अनुपम उदा��ण �ैं:

आ�ती चिलये तू हिकसे ढंूढता �ै मू�ख,मजिन्द�ों, �ाजप्रासादों में, त�खानों में?देवता क�ीं सड़कों प� हिगट्टी तोड़ ��े,देवता यिमलेंगे खेतों में, खचिल�ानों में।

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फावडे़ औ� �ल �ाजदण्ड बनने को �ैं,धूस�ता सोने से शंृ्रगा� सजाती �ै;दो �ा�,समय के �र्थो का घघ-�-नाद सुनो,सिसं�ासन खाली क�ो हिक जनता आती �ै

संक्षेप में “साहि�त्य” - शब्द, अर्थो- औ� भावनाओं की व� हित्रवेणी �ै जो जनहि�त की धा�ा के सार्थो उच्चादशj की ठिदशा में प्रवाहि�त �ै।साहि�त्य शब्द को परि�भाहि�त क�ना कठि�न �ै। जैसे पानी की आकृहित न�ीं, जिजस साँचे में डालो व�ढ़ल जाता �ै, उसी त�� का त�ल �ै य� शब्द। कहिवताा, क�ानी, नाटक, हिनबंध, रि�पोता-ज, जीवनी,�ेखाचिचत्र, यात्रा-वृतांत, समालोचना बहुत से साँचे �ैं। परि�भा�ा इस चिलये भी कठि�न �ो जाती �ै हिकधम-, �ाजनीहित, समाज, समसमयियक आलेखों, भूगोल, हिवज्ञान जैसे हिव�यों प� जो लेखन �ै उसकीक्या शे्रणी �ो? क्या साहि�त्य की परि�यिध इतनी व्यापक �ै?

संस्कृत में एक शब्द �ै वांड्मय। भा�ा के माध्यम से जो कुछ भी क�ा गया, व� वांड्मय �ै।साहि�त्य के संदभ- में संस्कृत की इस परि�भा�ा में मम- �ै – शब्दार्थोD सहि�तौ काव्यम। य�ा ँशब्द औ�अर्थो- के सार्थो भाव की आवश्यकता मानी गयी �ै। इसी परि�भा�ा को व्यापक क�ते हुए संस्कृत के �ीएक आचाय- हिवश्वनार्थो म�ापात्र नें “साहि�त्य दप-ण” नामक ग्रंर्थो चिलख क� “साहि�त्य” शब्द कोव्यव�ा� में प्रचचिलत हिकया। संस्कृत के �ी एक आचाय- कंुतक व्याख्या क�ते �ैं हिक जब शब्द औ�अर्थो- के बीच सुन्द�ता के चिलये स्पधा- या �ोड लगी �ो, तो साहि�त्य की सृयिO �ोती �ै। केवलसंस्कृतहिनष्ठ या क्लिक्लO चिलखना �ी साहि�त्य न�ीं �ै न �ी अनर्थो-क तुकबंदी साहि�त्य क�ी जा सकेगी।व� भावहिव�ीन �चना जो छंद औ� मीट� के अनुमापों में शतप्रहितशत स�ी भी बै�ती �ो, वैसी �ीकांहित�ीन �ैं जैसे अप�ान्� में जुगनू। अर्थोा-त, भाव हिकसी सृजन को व� ग��ायी प्रदान क�ते �ैं जोहिकसी �चना को साहि�त्य की परि�यिध में लाता �ै। हिकतनी सादगी से हिनदा फ़ाज़ली क� जाते �ैं

मैं �ोया प�देस में, भीगा माँ का प्या�दुख नें दुख से बात की, हिबन चिचट्ठी हिबन ता�।

य�ाँ शब्द औ� अर्थो- के बीच सादगी की स्पर्थोा- �ै किकंतु भाव इतने ग��े हिक �ोम �ोम से इस सृजनको म�सूस हिकया जा सकता �ै। य�ी साहि�त्य �ै। साहि�त्य शब्द की ची�-फाड क�ने प� एक औ�छुपा हुआ आयाम दीख पडता �ै व� �ै इसका सामाजिजक आयाम। बहुत जो� दे क� एक परि�भा�ाकी जाती �ै हिक “साहि�त्य समाज का दप-ण �ै”। �चनाका� अपने सामाजिजक स�ोका�ों से हिवमुक्त न�ीं�ो सकता, य�ी का�ण �ै हिक साहि�त्य अपने समय का इहित�ास बनता चला जाता �ै। अपने समय प� तीखे �ो क� दुष्यंत कुमा� चिलखते �ैं:

क�ा ँतो तय र्थोा च�ाग़ाँ �� एक घ� के चिलयेक�ा ँच�ाग़ मयस्स� न�ीं श�� के चिलये।

न �ो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगेये लोग हिकतने मुनाचिसब �ैं इस सफ़� के चिलये।

�ामधा�ी सिसं� ‘ठिदनक�’ की हिनम्नचिलखिखत अम� पंचिक्तयाँ, साहि�त्य के इस आयाम का अनुपम उदा��ण �ैं:

आ�ती चिलये तू हिकसे ढंूढता �ै मू�ख,मजिन्द�ों, �ाजप्रासादों में, त�खानों में?देवता क�ीं सड़कों प� हिगट्टी तोड़ ��े,देवता यिमलेंगे खेतों में, खचिल�ानों में।फावडे़ औ� �ल �ाजदण्ड बनने को �ैं,धूस�ता सोने से शंृ्रगा� सजाती �ै;दो �ा�,समय के �र्थो का घघ-�-नाद सुनो,सिसं�ासन खाली क�ो हिक जनता आती �ै

संक्षेप में “साहि�त्य” - शब्द, अर्थो- औ� भावनाओं की व� हित्रवेणी �ै जो जनहि�त की धा�ा के सार्थो उच्चादशj की ठिदशा में प्रवाहि�त �ै।साहि�त्य शब्द को परि�भाहि�त क�ना कठि�न �ै। जैसे पानी की आकृहित न�ीं, जिजस साँचे में डालो व�ढ़ल जाता �ै, उसी त�� का त�ल �ै य� शब्द। कहिवताा, क�ानी, नाटक, हिनबंध, रि�पोता-ज, जीवनी,�ेखाचिचत्र, यात्रा-वृतांत, समालोचना बहुत से साँचे �ैं। परि�भा�ा इस चिलये भी कठि�न �ो जाती �ै हिकधम-, �ाजनीहित, समाज, समसमयियक आलेखों, भूगोल, हिवज्ञान जैसे हिव�यों प� जो लेखन �ै उसकीक्या शे्रणी �ो? क्या साहि�त्य की परि�यिध इतनी व्यापक �ै?

संस्कृत में एक शब्द �ै वांड्मय। भा�ा के माध्यम से जो कुछ भी क�ा गया, व� वांड्मय �ै।साहि�त्य के संदभ- में संस्कृत की इस परि�भा�ा में मम- �ै – शब्दार्थोD सहि�तौ काव्यम। य�ा ँशब्द औ�अर्थो- के सार्थो भाव की आवश्यकता मानी गयी �ै। इसी परि�भा�ा को व्यापक क�ते हुए संस्कृत के �ीएक आचाय- हिव

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श्वनार्थो म�ापात्र नें “साहि�त्य दप-ण” नामक ग्रंर्थो चिलख क� “साहि�त्य” शब्द कोव्यव�ा� में प्रचचिलत हिकया। संस्कृत के �ी एक आचाय- कंुतक व्याख्या क�ते �ैं हिक जब शब्द औ�अर्थो- के बीच सुन्द�ता के चिलये स्पधा- या �ोड लगी �ो, तो साहि�त्य की सृयिO �ोती �ै। केवलसंस्कृतहिनष्ठ या क्लिक्लO चिलखना �ी साहि�त्य न�ीं �ै न �ी अनर्थो-क तुकबंदी साहि�त्य क�ी जा सकेगी।व� भावहिव�ीन �चना जो छंद औ� मीट� के अनुमापों में शतप्रहितशत स�ी भी बै�ती �ो, वैसी �ीकांहित�ीन �ैं जैसे अप�ान्� में जुगनू। अर्थोा-त, भाव हिकसी सृजन को व� ग��ायी प्रदान क�ते �ैं जोहिकसी �चना को साहि�त्य की परि�यिध में लाता �ै। हिकतनी सादगी से हिनदा फ़ाज़ली क� जाते �ैं

मैं �ोया प�देस में, भीगा माँ का प्या�दुख नें दुख से बात की, हिबन चिचट्ठी हिबन ता�।

य�ाँ शब्द औ� अर्थो- के बीच सादगी की स्पर्थोा- �ै किकंतु भाव इतने ग��े हिक �ोम �ोम से इस सृजनको म�सूस हिकया जा सकता �ै। य�ी साहि�त्य �ै। साहि�त्य शब्द की ची�-फाड क�ने प� एक औ�छुपा हुआ आयाम दीख पडता �ै व� �ै इसका सामाजिजक आयाम। बहुत जो� दे क� एक परि�भा�ाकी जाती �ै हिक “साहि�त्य समाज का दप-ण �ै”। �चनाका� अपने सामाजिजक स�ोका�ों से हिवमुक्त न�ीं�ो सकता, य�ी का�ण �ै हिक साहि�त्य अपने समय का इहित�ास बनता चला जाता �ै। अपने समय प� तीखे �ो क� दुष्यंत कुमा� चिलखते �ैं:

क�ा ँतो तय र्थोा च�ाग़ाँ �� एक घ� के चिलयेक�ा ँच�ाग़ मयस्स� न�ीं श�� के चिलये।

न �ो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगेये लोग हिकतने मुनाचिसब �ैं इस सफ़� के चिलये।

�ामधा�ी सिसं� ‘ठिदनक�’ की हिनम्नचिलखिखत अम� पंचिक्तयाँ, साहि�त्य के इस आयाम का अनुपम उदा��ण �ैं:

आ�ती चिलये तू हिकसे ढंूढता �ै मू�ख,मजिन्द�ों, �ाजप्रासादों में, त�खानों में?देवता क�ीं सड़कों प� हिगट्टी तोड़ ��े,देवता यिमलेंगे खेतों में, खचिल�ानों में।फावडे़ औ� �ल �ाजदण्ड बनने को �ैं,धूस�ता सोने से शंृ्रगा� सजाती �ै;दो �ा�,समय के �र्थो का घघ-�-नाद सुनो,सिसं�ासन खाली क�ो हिक जनता आती �ै

संक्षेप में “साहि�त्य” - शब्द, अर्थो- औ� भावनाओं की व� हित्रवेणी �ै जो जनहि�त की धा�ा के सार्थो उच्चादशj की ठिदशा में प्रवाहि�त �ै।साहि�त्य शब्द को परि�भाहि�त क�ना कठि�न �ै। जैसे पानी की आकृहित न�ीं, जिजस साँचे में डालो व�ढ़ल जाता �ै, उसी त�� का त�ल �ै य� शब्द। कहिवताा, क�ानी, नाटक, हिनबंध, रि�पोता-ज, जीवनी,�ेखाचिचत्र, यात्रा-वृतांत, समालोचना बहुत से साँचे �ैं। परि�भा�ा इस चिलये भी कठि�न �ो जाती �ै हिकधम-, �ाजनीहित, समाज, समसमयियक आलेखों, भूगोल, हिवज्ञान जैसे हिव�यों प� जो लेखन �ै उसकीक्या शे्रणी �ो? क्या साहि�त्य की परि�यिध इतनी व्यापक �ै?

संस्कृत में एक शब्द �ै वांड्मय। भा�ा के माध्यम से जो कुछ भी क�ा गया, व� वांड्मय �ै।साहि�त्य के संदभ- में संस्कृत की इस परि�भा�ा में मम- �ै – शब्दार्थोD सहि�तौ काव्यम। य�ा ँशब्द औ�अर्थो- के सार्थो भाव की आवश्यकता मानी गयी �ै। इसी परि�भा�ा को व्यापक क�ते हुए संस्कृत के �ीएक आचाय- हिवश्वनार्थो म�ापात्र नें “साहि�त्य दप-ण” नामक ग्रंर्थो चिलख क� “साहि�त्य” शब्द कोव्यव�ा� में प्रचचिलत हिकया। संस्कृत के �ी एक आचाय- कंुतक व्याख्या क�ते �ैं हिक जब शब्द औ�अर्थो- के बीच सुन्द�ता के चिलये स्पधा- या �ोड लगी �ो, तो साहि�त्य की सृयिO �ोती �ै। केवलसंस्कृतहिनष्ठ या क्लिक्लO चिलखना �ी साहि�त्य न�ीं �ै न �ी अनर्थो-क तुकबंदी साहि�त्य क�ी जा सकेगी।व� भावहिव�ीन �चना जो छंद औ� मीट� के अनुमापों में शतप्रहितशत स�ी भी बै�ती �ो, वैसी �ीकांहित�ीन �ैं जैसे अप�ान्� में जुगनू। अर्थोा-त, भाव हिकसी सृजन को व� ग��ायी प्रदान क�ते �ैं जोहिकसी �चना को साहि�त्य की परि�यिध में लाता �ै। हिकतनी सादगी से हिनदा फ़ाज़ली क� जाते �ैं

मैं �ोया प�देस में, भीगा माँ का प्या�दुख नें दुख से बात की, हिबन चिचट्ठी हिबन ता�।

य�ाँ शब्द औ� अर्थो- के बीच सादगी की स्पर्थोा- �ै किकंतु भाव इतने ग��े हिक �ोम �ोम से इस सृजनको म�सूस हिकया जा सकता �ै। य�ी साहि�त्य �ै। साहि�त्य शब्द की ची�-फाड क�ने प� एक औ�छुपा हुआ आयाम दीख पडता �ै व� �ै इसका सामाजिजक आयाम। बहुत जो� दे क� एक परि�भा�ाकी जाती �ै 

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हिक “साहि�त्य समाज का दप-ण �ै”। �चनाका� अपने सामाजिजक स�ोका�ों से हिवमुक्त न�ीं�ो सकता, य�ी का�ण �ै हिक साहि�त्य अपने समय का इहित�ास बनता चला जाता �ै। अपने समय प� तीखे �ो क� दुष्यंत कुमा� चिलखते �ैं:

क�ा ँतो तय र्थोा च�ाग़ाँ �� एक घ� के चिलयेक�ा ँच�ाग़ मयस्स� न�ीं श�� के चिलये।

न �ो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगेये लोग हिकतने मुनाचिसब �ैं इस सफ़� के चिलये।

�ामधा�ी सिसं� ‘ठिदनक�’ की हिनम्नचिलखिखत अम� पंचिक्तयाँ, साहि�त्य के इस आयाम का अनुपम उदा��ण �ैं:

आ�ती चिलये तू हिकसे ढंूढता �ै मू�ख,मजिन्द�ों, �ाजप्रासादों में, त�खानों में?देवता क�ीं सड़कों प� हिगट्टी तोड़ ��े,देवता यिमलेंगे खेतों में, खचिल�ानों में।फावडे़ औ� �ल �ाजदण्ड बनने को �ैं,धूस�ता सोने से शंृ्रगा� सजाती �ै;दो �ा�,समय के �र्थो का घघ-�-नाद सुनो,सिसं�ासन खाली क�ो हिक जनता आती �ै

संक्षेप में “साहि�त्य” - शब्द, अर्थो- औ� भावनाओं की व� हित्रवेणी �ै जो जनहि�त की धा�ा के सार्थो उच्चादशj की ठिदशा में प्रवाहि�त �ै।साहि�त्य शब्द को परि�भाहि�त क�ना कठि�न �ै। जैसे पानी की आकृहित न�ीं, जिजस साँचे में डालो व�ढ़ल जाता �ै, उसी त�� का त�ल �ै य� शब्द। कहिवताा, क�ानी, नाटक, हिनबंध, रि�पोता-ज, जीवनी,�ेखाचिचत्र, यात्रा-वृतांत, समालोचना बहुत से साँचे �ैं। परि�भा�ा इस चिलये भी कठि�न �ो जाती �ै हिकधम-, �ाजनीहित, समाज, समसमयियक आलेखों, भूगोल, हिवज्ञान जैसे हिव�यों प� जो लेखन �ै उसकीक्या शे्रणी �ो? क्या साहि�त्य की परि�यिध इतनी व्यापक �ै?

संस्कृत में एक शब्द �ै वांड्मय। भा�ा के माध्यम से जो कुछ भी क�ा गया, व� वांड्मय �ै।साहि�त्य के संदभ- में संस्कृत की इस परि�भा�ा में मम- �ै – शब्दार्थोD सहि�तौ काव्यम। य�ा ँशब्द औ�अर्थो- के सार्थो भाव की आवश्यकता मानी गयी �ै। इसी परि�भा�ा को व्यापक क�ते हुए संस्कृत के �ीएक आचाय- हिवश्वनार्थो म�ापात्र नें “साहि�त्य दप-ण” नामक ग्रंर्थो चिलख क� “साहि�त्य” शब्द कोव्यव�ा� में प्रचचिलत हिकया। संस्कृत के �ी एक आचाय- कंुतक व्याख्या क�ते �ैं हिक जब शब्द औ�अर्थो- के बीच सुन्द�ता के चिलये स्पधा- या �ोड लगी �ो, तो साहि�त्य की सृयिO �ोती �ै। केवलसंस्कृतहिनष्ठ या क्लिक्लO चिलखना �ी साहि�त्य न�ीं �ै न �ी अनर्थो-क तुकबंदी साहि�त्य क�ी जा सकेगी।व� भावहिव�ीन �चना जो छंद औ� मीट� के अनुमापों में शतप्रहितशत स�ी भी बै�ती �ो, वैसी �ीकांहित�ीन �ैं जैसे अप�ान्� में जुगनू। अर्थोा-त, भाव हिकसी सृजन को व� ग��ायी प्रदान क�ते �ैं जोहिकसी �चना को साहि�त्य की परि�यिध में लाता �ै। हिकतनी सादगी से हिनदा फ़ाज़ली क� जाते �ैं

मैं �ोया प�देस में, भीगा माँ का प्या�दुख नें दुख से बात की, हिबन चिचट्ठी हिबन ता�।

य�ाँ शब्द औ� अर्थो- के बीच सादगी की स्पर्थोा- �ै किकंतु भाव इतने ग��े हिक �ोम �ोम से इस सृजनको म�सूस हिकया जा सकता �ै। य�ी साहि�त्य �ै। साहि�त्य शब्द की ची�-फाड क�ने प� एक औ�छुपा हुआ आयाम दीख पडता �ै व� �ै इसका सामाजिजक आयाम। बहुत जो� दे क� एक परि�भा�ाकी जाती �ै हिक “साहि�त्य समाज का दप-ण �ै”। �चनाका� अपने सामाजिजक स�ोका�ों से हिवमुक्त न�ीं�ो सकता, य�ी का�ण �ै हिक साहि�त्य अपने समय का इहित�ास बनता चला जाता �ै। अपने समय प� तीखे �ो क� दुष्यंत कुमा� चिलखते �ैं:

क�ा ँतो तय र्थोा च�ाग़ाँ �� एक घ� के चिलयेक�ा ँच�ाग़ मयस्स� न�ीं श�� के चिलये।

न �ो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगेये लोग हिकतने मुनाचिसब �ैं इस सफ़� के चिलये।

�ामधा�ी सिसं� ‘ठिदनक�’ की हिनम्नचिलखिखत अम� पंचिक्तयाँ, साहि�त्य के इस आयाम का अनुपम उदा��ण �ैं:

आ�ती चिलये तू हिकसे ढंूढता �ै मू�ख,

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मजिन्द�ों, �ाजप्रासादों में, त�खानों में?देवता क�ीं सड़कों प� हिगट्टी तोड़ ��े,देवता यिमलेंगे खेतों में, खचिल�ानों में।फावडे़ औ� �ल �ाजदण्ड बनने को �ैं,धूस�ता सोने से शंृ्रगा� सजाती �ै;दो �ा�,समय के �र्थो का घघ-�-नाद सुनो,सिसं�ासन खाली क�ो हिक जनता आती �ै

संक्षेप में “साहि�त्य” - शब्द, अर्थो- औ� भावनाओं की व� हित्रवेणी �ै जो जनहि�त की धा�ा के सार्थो उच्चादशj की ठिदशा में प्रवाहि�त �ै।साहि�त्य शब्द को परि�भाहि�त क�ना कठि�न �ै। जैसे पानी की आकृहित न�ीं, जिजस साँचे में डालो व�ढ़ल जाता �ै, उसी त�� का त�ल �ै य� शब्द। कहिवताा, क�ानी, नाटक, हिनबंध, रि�पोता-ज, जीवनी,�ेखाचिचत्र, यात्रा-वृतांत, समालोचना बहुत से साँचे �ैं। परि�भा�ा इस चिलये भी कठि�न �ो जाती �ै हिकधम-, �ाजनीहित, समाज, समसमयियक आलेखों, भूगोल, हिवज्ञान जैसे हिव�यों प� जो लेखन �ै उसकीक्या शे्रणी �ो? क्या साहि�त्य की परि�यिध इतनी व्यापक �ै?

संस्कृत में एक शब्द �ै वांड्मय। भा�ा के माध्यम से जो कुछ भी क�ा गया, व� वांड्मय �ै।साहि�त्य के संदभ- में संस्कृत की इस परि�भा�ा में मम- �ै – शब्दार्थोD सहि�तौ काव्यम। य�ा ँशब्द औ�अर्थो- के सार्थो भाव की आवश्यकता मानी गयी �ै। इसी परि�भा�ा को व्यापक क�ते हुए संस्कृत के �ीएक आचाय- हिवश्वनार्थो म�ापात्र नें “साहि�त्य दप-ण” नामक ग्रंर्थो चिलख क� “साहि�त्य” शब्द कोव्यव�ा� में प्रचचिलत हिकया। संस्कृत के �ी एक आचाय- कंुतक व्याख्या क�ते �ैं हिक जब शब्द औ�अर्थो- के बीच सुन्द�ता के चिलये स्पधा- या �ोड लगी �ो, तो साहि�त्य की सृयिO �ोती �ै। केवलसंस्कृतहिनष्ठ या क्लिक्लO चिलखना �ी साहि�त्य न�ीं �ै न �ी अनर्थो-क तुकबंदी साहि�त्य क�ी जा सकेगी।व� भावहिव�ीन �चना जो छंद औ� मीट� के अनुमापों में शतप्रहितशत स�ी भी बै�ती �ो, वैसी �ीकांहित�ीन �ैं जैसे अप�ान्� में जुगनू। अर्थोा-त, भाव हिकसी सृजन को व� ग��ायी प्रदान क�ते �ैं जोहिकसी �चना को साहि�त्य की परि�यिध में लाता �ै। हिकतनी सादगी से हिनदा फ़ाज़ली क� जाते �ैं

मैं �ोया प�देस में, भीगा माँ का प्या�दुख नें दुख से बात की, हिबन चिचट्ठी हिबन ता�।

य�ाँ शब्द औ� अर्थो- के बीच सादगी की स्पर्थोा- �ै किकंतु भाव इतने ग��े हिक �ोम �ोम से इस सृजनको म�सूस हिकया जा सकता �ै। य�ी साहि�त्य �ै। साहि�त्य शब्द की ची�-फाड क�ने प� एक औ�छुपा हुआ आयाम दीख पडता �ै व� �ै इसका सामाजिजक आयाम। बहुत जो� दे क� एक परि�भा�ाकी जाती �ै हिक “साहि�त्य समाज का दप-ण �ै”। �चनाका� अपने सामाजिजक स�ोका�ों से हिवमुक्त न�ीं�ो सकता, य�ी का�ण �ै हिक साहि�त्य अपने समय का इहित�ास बनता चला जाता �ै। अपने समय प� तीखे �ो क� दुष्यंत कुमा� चिलखते �ैं:

क�ा ँतो तय र्थोा च�ाग़ाँ �� एक घ� के चिलयेक�ा ँच�ाग़ मयस्स� न�ीं श�� के चिलये।

न �ो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगेये लोग हिकतने मुनाचिसब �ैं इस सफ़� के चिलये।

�ामधा�ी सिसं� ‘ठिदनक�’ की हिनम्नचिलखिखत अम� पंचिक्तयाँ, साहि�त्य के इस आयाम का अनुपम उदा��ण �ैं:

आ�ती चिलये तू हिकसे ढंूढता �ै मू�ख,मजिन्द�ों, �ाजप्रासादों में, त�खानों में?देवता क�ीं सड़कों प� हिगट्टी तोड़ ��े,देवता यिमलेंगे खेतों में, खचिल�ानों में।फावडे़ औ� �ल �ाजदण्ड बनने को �ैं,धूस�ता सोने से शंृ्रगा� सजाती �ै;दो �ा�,समय के �र्थो का घघ-�-नाद सुनो,सिसं�ासन खाली क�ो हिक जनता आती �ै

संक्षेप में “साहि�त्य” - शब्द, अर्थो- औ� भावनाओं की व� हित्रवेणी �ै जो जनहि�त की धा�ा के सार्थो उच्चादशj की ठिदशा में प्रवाहि�त �ै।साहि�त्य शब्द को परि�भाहि�त क�ना कठि�न �ै। जैसे पानी की आकृहित न�ीं, जिजस साँचे में डालो व�ढ़ल जाता �ै, उसी त�� का त�ल �ै य� शब्द। कहिवताा, क�ानी, नाटक, हिनबंध, रि�पोता-ज, जीवनी,�ेखाचिचत्र, यात्रा-वृतांत, समालोचना बहुत से साँचे �ैं। परि�भा�ा इस चिलये भी कठि�न �ो जाती �ै हिकधम-, �ाजनीहित, समाज, समसमयियक आलेखों, भूगोल, हिवज्ञान जैसे हिव�यों प� जो लेखन �ै उसकीक्या शे्रणी �ो? क्या साहि�त्य की परि�यिध इतनी व्यापक �ै?

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संस्कृत में एक शब्द �ै वांड्मय। भा�ा के माध्यम से जो कुछ भी क�ा गया, व� वांड्मय �ै।साहि�त्य के संदभ- में संस्कृत की इस परि�भा�ा में मम- �ै – शब्दार्थोD सहि�तौ काव्यम। य�ा ँशब्द औ�अर्थो- के सार्थो भाव की आवश्यकता मानी गयी �ै। इसी परि�भा�ा को व्यापक क�ते हुए संस्कृत के �ीएक आचाय- हिवश्वनार्थो म�ापात्र नें “साहि�त्य दप-ण” नामक ग्रंर्थो चिलख क� “साहि�त्य” शब्द कोव्यव�ा� में प्रचचिलत हिकया। संस्कृत के �ी एक आचाय- कंुतक व्याख्या क�ते �ैं हिक जब शब्द औ�अर्थो- के बीच सुन्द�ता के चिलये स्पधा- या �ोड लगी �ो, तो साहि�त्य की सृयिO �ोती �ै। केवलसंस्कृतहिनष्ठ या क्लिक्लO चिलखना �ी साहि�त्य न�ीं �ै न �ी अनर्थो-क तुकबंदी साहि�त्य क�ी जा सकेगी।व� भावहिव�ीन �चना जो छंद औ� मीट� के अनुमापों में शतप्रहितशत स�ी भी बै�ती �ो, वैसी �ीकांहित�ीन �ैं जैसे अप�ान्� में जुगनू। अर्थोा-त, भाव हिकसी सृजन को व� ग��ायी प्रदान क�ते �ैं जोहिकसी �चना को साहि�त्य की परि�यिध में लाता �ै। हिकतनी सादगी से हिनदा फ़ाज़ली क� जाते �ैं

मैं �ोया प�देस में, भीगा माँ का प्या�दुख नें दुख से बात की, हिबन चिचट्ठी हिबन ता�।

य�ाँ शब्द औ� अर्थो- के बीच सादगी की स्पर्थोा- �ै किकंतु भाव इतने ग��े हिक �ोम �ोम से इस सृजनको म�सूस हिकया जा सकता �ै। य�ी साहि�त्य �ै। साहि�त्य शब्द की ची�-फाड क�ने प� एक औ�छुपा हुआ आयाम दीख पडता �ै व� �ै इसका सामाजिजक आयाम। बहुत जो� दे क� एक परि�भा�ाकी जाती �ै हिक “साहि�त्य समाज का दप-ण �ै”। �चनाका� अपने सामाजिजक स�ोका�ों से हिवमुक्त न�ीं�ो सकता, य�ी का�ण �ै हिक साहि�त्य अपने समय का इहित�ास बनता चला जाता �ै। अपने समय प� तीखे �ो क� दुष्यंत कुमा� चिलखते �ैं:

क�ा ँतो तय र्थोा च�ाग़ाँ �� एक घ� के चिलयेक�ा ँच�ाग़ मयस्स� न�ीं श�� के चिलये।

न �ो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगेये लोग हिकतने मुनाचिसब �ैं इस सफ़� के चिलये।

�ामधा�ी सिसं� ‘ठिदनक�’ की हिनम्नचिलखिखत अम� पंचिक्तयाँ, साहि�त्य के इस आयाम का अनुपम उदा��ण �ैं:

आ�ती चिलये तू हिकसे ढंूढता �ै मू�ख,मजिन्द�ों, �ाजप्रासादों में, त�खानों में?देवता क�ीं सड़कों प� हिगट्टी तोड़ ��े,देवता यिमलेंगे खेतों में, खचिल�ानों में।फावडे़ औ� �ल �ाजदण्ड बनने को �ैं,धूस�ता सोने से शंृ्रगा� सजाती �ै;दो �ा�,समय के �र्थो का घघ-�-नाद सुनो,सिसं�ासन खाली क�ो हिक जनता आती �ै

संक्षेप में “साहि�त्य” - शब्द, अर्थो- औ� भावनाओं की व� हित्रवेणी �ै जो जनहि�त की धा�ा के सार्थो उच्चादशj की ठिदशा में प्रवाहि�त �ै।साहि�त्य शब्द को परि�भाहि�त क�ना कठि�न �ै। जैसे पानी की आकृहित न�ीं, जिजस साँचे में डालो व�ढ़ल जाता �ै, उसी त�� का त�ल �ै य� शब्द। कहिवताा, क�ानी, नाटक, हिनबंध, रि�पोता-ज, जीवनी,�ेखाचिचत्र, यात्रा-वृतांत, समालोचना बहुत से साँचे �ैं। परि�भा�ा इस चिलये भी कठि�न �ो जाती �ै हिकधम-, �ाजनीहित, समाज, समसमयियक आलेखों, भूगोल, हिवज्ञान जैसे हिव�यों प� जो लेखन �ै उसकीक्या शे्रणी �ो? क्या साहि�त्य की परि�यिध इतनी व्यापक �ै?

संस्कृत में एक शब्द �ै वांड्मय। भा�ा के माध्यम से जो कुछ भी क�ा गया, व� वांड्मय �ै।साहि�त्य के संदभ- में संस्कृत की इस परि�भा�ा में मम- �ै – शब्दार्थोD सहि�तौ काव्यम। य�ा ँशब्द औ�अर्थो- के सार्थो भाव की आवश्यकता मानी गयी �ै। इसी परि�भा�ा को व्यापक क�ते हुए संस्कृत के �ीएक आचाय- हिवश्वनार्थो म�ापात्र नें “साहि�त्य दप-ण” नामक ग्रंर्थो चिलख क� “साहि�त्य” शब्द कोव्यव�ा� में प्रचचिलत हिकया। संस्कृत के �ी एक आचाय- कंुतक व्याख्या क�ते �ैं हिक जब शब्द औ�अर्थो- के बीच सुन्द�ता के चिलये स्पधा- या �ोड लगी �ो, तो साहि�त्य की सृयिO �ोती �ै। केवलसंस्कृतहिनष्ठ या क्लिक्लO चिलखना �ी साहि�त्य न�ीं �ै न �ी अनर्थो-क तुकबंदी साहि�त्य क�ी जा सकेगी।व� भावहिव�ीन �चना जो छंद औ� मीट� के अनुमापों में शतप्रहितशत स�ी भी बै�ती �ो, वैसी �ीकांहित�ीन �ैं जैसे अप�ान्� में जुगनू। अर्थोा-त, भाव हिकसी सृजन को व� ग��ायी प्रदान क�ते �ैं जोहिकसी �चना को साहि�त्य की परि�यिध में लाता �ै। हिकतनी सादगी से हिनदा फ़ाज़ली क� जाते �ैं

मैं �ोया प�देस में, भीगा माँ का प्या�दुख नें दुख से बात की, हिबन चिचट्ठी हिबन ता�।

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य�ाँ शब्द औ� अर्थो- के बीच सादगी की स्पर्थोा- �ै किकंतु भाव इतने ग��े हिक �ोम �ोम से इस सृजनको म�सूस हिकया जा सकता �ै। य�ी साहि�त्य �ै। साहि�त्य शब्द की ची�-फाड क�ने प� एक औ�छुपा हुआ आयाम दीख पडता �ै व� �ै इसका सामाजिजक आयाम। बहुत जो� दे क� एक परि�भा�ाकी जाती �ै हिक “साहि�त्य समाज का दप-ण �ै”। �चनाका� अपने सामाजिजक स�ोका�ों से हिवमुक्त न�ीं�ो सकता, य�ी का�ण �ै हिक साहि�त्य अपने समय का इहित�ास बनता चला जाता �ै। अपने समय प� तीखे �ो क� दुष्यंत कुमा� चिलखते �ैं:

क�ा ँतो तय र्थोा च�ाग़ाँ �� एक घ� के चिलयेक�ा ँच�ाग़ मयस्स� न�ीं श�� के चिलये।

न �ो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगेये लोग हिकतने मुनाचिसब �ैं इस सफ़� के चिलये।

�ामधा�ी सिसं� ‘ठिदनक�’ की हिनम्नचिलखिखत अम� पंचिक्तयाँ, साहि�त्य के इस आयाम का अनुपम उदा��ण �ैं:

आ�ती चिलये तू हिकसे ढंूढता �ै मू�ख,मजिन्द�ों, �ाजप्रासादों में, त�खानों में?देवता क�ीं सड़कों प� हिगट्टी तोड़ ��े,देवता यिमलेंगे खेतों में, खचिल�ानों में।फावडे़ औ� �ल �ाजदण्ड बनने को �ैं,धूस�ता सोने से शंृ्रगा� सजाती �ै;दो �ा�,समय के �र्थो का घघ-�-नाद सुनो,सिसं�ासन खाली क�ो हिक जनता आती �ै

संक्षेप में “साहि�त्य” - शब्द, अर्थो- औ� भावनाओं की व� हित्रवेणी �ै जो जनहि�त की धा�ा के सार्थो उच्चादशj की ठिदशा में प्रवाहि�त �ै।साहि�त्य शब्द को परि�भाहि�त क�ना कठि�न �ै। जैसे पानी की आकृहित न�ीं, जिजस साँचे में डालो व�ढ़ल जाता �ै, उसी त�� का त�ल �ै य� शब्द। कहिवताा, क�ानी, नाटक, हिनबंध, रि�पोता-ज, जीवनी,�ेखाचिचत्र, यात्रा-वृतांत, समालोचना बहुत से साँचे �ैं। परि�भा�ा इस चिलये भी कठि�न �ो जाती �ै हिकधम-, �ाजनीहित, समाज, समसमयियक आलेखों, भूगोल, हिवज्ञान जैसे हिव�यों प� जो लेखन �ै उसकीक्या शे्रणी �ो? क्या साहि�त्य की परि�यिध इतनी व्यापक �ै?

संस्कृत में एक शब्द �ै वांड्मय। भा�ा के माध्यम से जो कुछ भी क�ा गया, व� वांड्मय �ै।साहि�त्य के संदभ- में संस्कृत की इस परि�भा�ा में मम- �ै – शब्दार्थोD सहि�तौ काव्यम। य�ा ँशब्द औ�अर्थो- के सार्थो भाव की आवश्यकता मानी गयी �ै। इसी परि�भा�ा को व्यापक क�ते हुए संस्कृत के �ीएक आचाय- हिवश्वनार्थो म�ापात्र नें “साहि�त्य दप-ण” नामक ग्रंर्थो चिलख क� “साहि�त्य” शब्द कोव्यव�ा� में प्रचचिलत हिकया। संस्कृत के �ी एक आचाय- कंुतक व्याख्या क�ते �ैं हिक जब शब्द औ�अर्थो- के बीच सुन्द�ता के चिलये स्पधा- या �ोड लगी �ो, तो साहि�त्य की सृयिO �ोती �ै। केवलसंस्कृतहिनष्ठ या क्लिक्लO चिलखना �ी साहि�त्य न�ीं �ै न �ी अनर्थो-क तुकबंदी साहि�त्य क�ी जा सकेगी।व� भावहिव�ीन �चना जो छंद औ� मीट� के अनुमापों में शतप्रहितशत स�ी भी बै�ती �ो, वैसी �ीकांहित�ीन �ैं जैसे अप�ान्� में जुगनू। अर्थोा-त, भाव हिकसी सृजन को व� ग��ायी प्रदान क�ते �ैं जोहिकसी �चना को साहि�त्य की परि�यिध में लाता �ै। हिकतनी सादगी से हिनदा फ़ाज़ली क� जाते �ैं

मैं �ोया प�देस में, भीगा माँ का प्या�दुख नें दुख से बात की, हिबन चिचट्ठी हिबन ता�।

य�ाँ शब्द औ� अर्थो- के बीच सादगी की स्पर्थोा- �ै किकंतु भाव इतने ग��े हिक �ोम �ोम से इस सृजनको म�सूस हिकया जा सकता �ै। य�ी साहि�त्य �ै। साहि�त्य शब्द की ची�-फाड क�ने प� एक औ�छुपा हुआ आयाम दीख पडता �ै व� �ै इसका सामाजिजक आयाम। बहुत जो� दे क� एक परि�भा�ाकी जाती �ै हिक “साहि�त्य समाज का दप-ण �ै”। �चनाका� अपने सामाजिजक स�ोका�ों से हिवमुक्त न�ीं�ो सकता, य�ी का�ण �ै हिक साहि�त्य अपने समय का इहित�ास बनता चला जाता �ै। अपने समय प� तीखे �ो क� दुष्यंत कुमा� चिलखते �ैं:

क�ा ँतो तय र्थोा च�ाग़ाँ �� एक घ� के चिलयेक�ा ँच�ाग़ मयस्स� न�ीं श�� के चिलये।

न �ो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगेये लोग हिकतने मुनाचिसब �ैं इस सफ़� के चिलये।

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�ामधा�ी सिसं� ‘ठिदनक�’ की हिनम्नचिलखिखत अम� पंचिक्तयाँ, साहि�त्य के इस आयाम का अनुपम उदा��ण �ैं:

आ�ती चिलये तू हिकसे ढंूढता �ै मू�ख,मजिन्द�ों, �ाजप्रासादों में, त�खानों में?देवता क�ीं सड़कों प� हिगट्टी तोड़ ��े,देवता यिमलेंगे खेतों में, खचिल�ानों में।फावडे़ औ� �ल �ाजदण्ड बनने को �ैं,धूस�ता सोने से शंृ्रगा� सजाती �ै;दो �ा�,समय के �र्थो का घघ-�-नाद सुनो,सिसं�ासन खाली क�ो हिक जनता आती �ै

संक्षेप में “साहि�त्य” - शब्द, अर्थो- औ� भावनाओं की व� हित्रवेणी �ै जो जनहि�त की धा�ा के सार्थो उच्चादशj की ठिदशा में प्रवाहि�त �ै।साहि�त्य शब्द को परि�भाहि�त क�ना कठि�न �ै। जैसे पानी की आकृहित न�ीं, जिजस साँचे में डालो व�ढ़ल जाता �ै, उसी त�� का त�ल �ै य� शब्द। कहिवताा, क�ानी, नाटक, हिनबंध, रि�पोता-ज, जीवनी,�ेखाचिचत्र, यात्रा-वृतांत, समालोचना बहुत से साँचे �ैं। परि�भा�ा इस चिलये भी कठि�न �ो जाती �ै हिकधम-, �ाजनीहित, समाज, समसमयियक आलेखों, भूगोल, हिवज्ञान जैसे हिव�यों प� जो लेखन �ै उसकीक्या शे्रणी �ो? क्या साहि�त्य की परि�यिध इतनी व्यापक �ै?

संस्कृत में एक शब्द �ै वांड्मय। भा�ा के माध्यम से जो कुछ भी क�ा गया, व� वांड्मय �ै।साहि�त्य के संदभ- में संस्कृत की इस परि�भा�ा में मम- �ै – शब्दार्थोD सहि�तौ काव्यम। य�ा ँशब्द औ�अर्थो- के सार्थो भाव की आवश्यकता मानी गयी �ै। इसी परि�भा�ा को व्यापक क�ते हुए संस्कृत के �ीएक आचाय- हिवश्वनार्थो म�ापात्र नें “साहि�त्य दप-ण” नामक ग्रंर्थो चिलख क� “साहि�त्य” शब्द कोव्यव�ा� में प्रचचिलत हिकया। संस्कृत के �ी एक आचाय- कंुतक व्याख्या क�ते �ैं हिक जब शब्द औ�अर्थो- के बीच सुन्द�ता के चिलये स्पधा- या �ोड लगी �ो, तो साहि�त्य की सृयिO �ोती �ै। केवलसंस्कृतहिनष्ठ या क्लिक्लO चिलखना �ी साहि�त्य न�ीं �ै न �ी अनर्थो-क तुकबंदी साहि�त्य क�ी जा सकेगी।व� भावहिव�ीन �चना जो छंद औ� मीट� के अनुमापों में शतप्रहितशत स�ी भी बै�ती �ो, वैसी �ीकांहित�ीन �ैं जैसे अप�ान्� में जुगनू। अर्थोा-त, भाव हिकसी सृजन को व� ग��ायी प्रदान क�ते �ैं जोहिकसी �चना को साहि�त्य की परि�यिध में लाता �ै। हिकतनी सादगी से हिनदा फ़ाज़ली क� जाते �ैं

मैं �ोया प�देस में, भीगा माँ का प्या�दुख नें दुख से बात की, हिबन चिचट्ठी हिबन ता�।

य�ाँ शब्द औ� अर्थो- के बीच सादगी की स्पर्थोा- �ै किकंतु भाव इतने ग��े हिक �ोम �ोम से इस सृजनको म�सूस हिकया जा सकता �ै। य�ी साहि�त्य �ै। साहि�त्य शब्द की ची�-फाड क�ने प� एक औ�छुपा हुआ आयाम दीख पडता �ै व� �ै इसका सामाजिजक आयाम। बहुत जो� दे क� एक परि�भा�ाकी जाती �ै हिक “साहि�त्य समाज का दप-ण �ै”। �चनाका� अपने सामाजिजक स�ोका�ों से हिवमुक्त न�ीं�ो सकता, य�ी का�ण �ै हिक साहि�त्य अपने समय का इहित�ास बनता चला जाता �ै। अपने समय प� तीखे �ो क� दुष्यंत कुमा� चिलखते �ैं:

क�ा ँतो तय र्थोा च�ाग़ाँ �� एक घ� के चिलयेक�ा ँच�ाग़ मयस्स� न�ीं श�� के चिलये।

न �ो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगेये लोग हिकतने मुनाचिसब �ैं इस सफ़� के चिलये।

�ामधा�ी सिसं� ‘ठिदनक�’ की हिनम्नचिलखिखत अम� पंचिक्तयाँ, साहि�त्य के इस आयाम का अनुपम उदा��ण �ैं:

आ�ती चिलये तू हिकसे ढंूढता �ै मू�ख,मजिन्द�ों, �ाजप्रासादों में, त�खानों में?देवता क�ीं सड़कों प� हिगट्टी तोड़ ��े,देवता यिमलेंगे खेतों में, खचिल�ानों में।फावडे़ औ� �ल �ाजदण्ड बनने को �ैं,धूस�ता सोने से शंृ्रगा� सजाती �ै;दो �ा�,समय के �र्थो का घघ-�-नाद सुनो,सिसं�ासन खाली क�ो हिक जनता आती �ै

संक्षेप में “साहि�त्य” - शब्द, अर्थो- औ� भावनाओं की व� हित्रवेणी �ै जो जनहि�त की धा�ा के सार्थो उच्चादशj की ठिदशा में प्रवाहि�त �ै।

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साहि�त्य शब्द को परि�भाहि�त क�ना कठि�न �ै। जैसे पानी की आकृहित न�ीं, जिजस साँचे में डालो व�ढ़ल जाता �ै, उसी त�� का त�ल �ै य� शब्द। कहिवताा, क�ानी, नाटक, हिनबंध, रि�पोता-ज, जीवनी,�ेखाचिचत्र, यात्रा-वृतांत, समालोचना बहुत से साँचे �ैं। परि�भा�ा इस चिलये भी कठि�न �ो जाती �ै हिकधम-, �ाजनीहित, समाज, समसमयियक आलेखों, भूगोल, हिवज्ञान जैसे हिव�यों प� जो लेखन �ै उसकीक्या शे्रणी �ो? क्या साहि�त्य की परि�यिध इतनी व्यापक �ै?

संस्कृत में एक शब्द �ै वांड्मय। भा�ा के माध्यम से जो कुछ भी क�ा गया, व� वांड्मय �ै।साहि�त्य के संदभ- में संस्कृत की इस परि�भा�ा में मम- �ै – शब्दार्थोD सहि�तौ काव्यम। य�ा ँशब्द औ�अर्थो- के सार्थो भाव की आवश्यकता मानी गयी �ै। इसी परि�भा�ा को व्यापक क�ते हुए संस्कृत के �ीएक आचाय- हिवश्वनार्थो म�ापात्र नें “साहि�त्य दप-ण” नामक ग्रंर्थो चिलख क� “साहि�त्य” शब्द कोव्यव�ा� में प्रचचिलत हिकया। संस्कृत के �ी एक आचाय- कंुतक व्याख्या क�ते �ैं हिक जब शब्द औ�अर्थो- के बीच सुन्द�ता के चिलये स्पधा- या �ोड लगी �ो, तो साहि�त्य की सृयिO �ोती �ै। केवलसंस्कृतहिनष्ठ या क्लिक्लO चिलखना �ी साहि�त्य न�ीं �ै न �ी अनर्थो-क तुकबंदी साहि�त्य क�ी जा सकेगी।व� भावहिव�ीन �चना जो छंद औ� मीट� के अनुमापों में शतप्रहितशत स�ी भी बै�ती �ो, वैसी �ीकांहित�ीन �ैं जैसे अप�ान्� में जुगनू। अर्थोा-त, भाव हिकसी सृजन को व� ग��ायी प्रदान क�ते �ैं जोहिकसी �चना को साहि�त्य की परि�यिध में लाता �ै। हिकतनी सादगी से हिनदा फ़ाज़ली क� जाते �ैं

मैं �ोया प�देस में, भीगा माँ का प्या�दुख नें दुख से बात की, हिबन चिचट्ठी हिबन ता�।

य�ाँ शब्द औ� अर्थो- के बीच सादगी की स्पर्थोा- �ै किकंतु भाव इतने ग��े हिक �ोम �ोम से इस सृजनको म�सूस हिकया जा सकता �ै। य�ी साहि�त्य �ै। साहि�त्य शब्द की ची�-फाड क�ने प� एक औ�छुपा हुआ आयाम दीख पडता �ै व� �ै इसका सामाजिजक आयाम। बहुत जो� दे क� एक परि�भा�ाकी जाती �ै हिक “साहि�त्य समाज का दप-ण �ै”। �चनाका� अपने सामाजिजक स�ोका�ों से हिवमुक्त न�ीं�ो सकता, य�ी का�ण �ै हिक साहि�त्य अपने समय का इहित�ास बनता चला जाता �ै। अपने समय प� तीखे �ो क� दुष्यंत कुमा� चिलखते �ैं:

क�ा ँतो तय र्थोा च�ाग़ाँ �� एक घ� के चिलयेक�ा ँच�ाग़ मयस्स� न�ीं श�� के चिलये।

न �ो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगेये लोग हिकतने मुनाचिसब �ैं इस सफ़� के चिलये।

�ामधा�ी सिसं� ‘ठिदनक�’ की हिनम्नचिलखिखत अम� पंचिक्तयाँ, साहि�त्य के इस आयाम का अनुपम उदा��ण �ैं:

आ�ती चिलये तू हिकसे ढंूढता �ै मू�ख,मजिन्द�ों, �ाजप्रासादों में, त�खानों में?देवता क�ीं सड़कों प� हिगट्टी तोड़ ��े,देवता यिमलेंगे खेतों में, खचिल�ानों में।फावडे़ औ� �ल �ाजदण्ड बनने को �ैं,धूस�ता सोने से शंृ्रगा� सजाती �ै;दो �ा�,समय के �र्थो का घघ-�-नाद सुनो,सिसं�ासन खाली क�ो हिक जनता आती �ै

संक्षेप में “साहि�त्य” - शब्द, अर्थो- औ� भावनाओं की व� हित्रवेणी �ै जो जनहि�त की धा�ा के सार्थो उच्चादशj की ठिदशा में प्रवाहि�त �ै।साहि�त्य शब्द को परि�भाहि�त क�ना कठि�न �ै। जैसे पानी की आकृहित न�ीं, जिजस साँचे में डालो व�ढ़ल जाता �ै, उसी त�� का त�ल �ै य� शब्द। कहिवताा, क�ानी, नाटक, हिनबंध, रि�पोता-ज, जीवनी,�ेखाचिचत्र, यात्रा-वृतांत, समालोचना बहुत से साँचे �ैं। परि�भा�ा इस चिलये भी कठि�न �ो जाती �ै हिकधम-, �ाजनीहित, समाज, समसमयियक आलेखों, भूगोल, हिवज्ञान जैसे हिव�यों प� जो लेखन �ै उसकीक्या शे्रणी �ो? क्या साहि�त्य की परि�यिध इतनी व्यापक �ै?

संस्कृत में एक शब्द �ै वांड्मय। भा�ा के माध्यम से जो कुछ भी क�ा गया, व� वांड्मय �ै।साहि�त्य के संदभ- में संस्कृत की इस परि�भा�ा में मम- �ै – शब्दार्थोD सहि�तौ काव्यम। य�ा ँशब्द औ�अर्थो- के सार्थो भाव की आवश्यकता मानी गयी �ै। इसी परि�भा�ा को व्यापक क�ते हुए संस्कृत के �ीएक आचाय- हिवश्वनार्थो म�ापात्र नें “साहि�त्य दप-ण” नामक ग्रंर्थो चिलख क� “साहि�त्य” शब्द कोव्यव�ा� में प्रचचिलत हिकया। संस्कृत के �ी एक आचाय- कंुतक व्याख्या क�ते �ैं हिक जब शब्द औ�अर्थो- के बीच सुन्द�ता के चिलये स्पधा- या �ोड लगी �ो, तो साहि�त्य की सृयिO �ोती �ै। केवलसंस्कृतहिनष्ठ या क्लिक्लO चिलखना �ी साहि�त्य न�ीं �ै न �ी अनर्थो-क तुकबंदी साहि�त्य क�ी जा सकेगी।व� भावहिव�ीन �चना जो छंद औ� मीट� के अनुमापों में शतप्रहितशत स�ी भी बै�ती �ो, वैसी �ीकांहित�ीन �ैं जैसे अप�ान्� में जुगनू। अर्थोा-त, भाव हिकसी सृजन को व� ग��ायी प्रदान क�ते �ैं जोहिकसी �चना को साहि�त्य की परि�यिध में लाता �ै। हिकतनी सादगी से हिनदा फ़ाज़ली क� जाते �ैं

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मैं �ोया प�देस में, भीगा माँ का प्या�दुख नें दुख से बात की, हिबन चिचट्ठी हिबन ता�।

य�ाँ शब्द औ� अर्थो- के बीच सादगी की स्पर्थोा- �ै किकंतु भाव इतने ग��े हिक �ोम �ोम से इस सृजनको म�सूस हिकया जा सकता �ै। य�ी साहि�त्य �ै। साहि�त्य शब्द की ची�-फाड क�ने प� एक औ�छुपा हुआ आयाम दीख पडता �ै व� �ै इसका सामाजिजक आयाम। बहुत जो� दे क� एक परि�भा�ाकी जाती �ै हिक “साहि�त्य समाज का दप-ण �ै”। �चनाका� अपने सामाजिजक स�ोका�ों से हिवमुक्त न�ीं�ो सकता, य�ी का�ण �ै हिक साहि�त्य अपने समय का इहित�ास बनता चला जाता �ै। अपने समय प� तीखे �ो क� दुष्यंत कुमा� चिलखते �ैं:

क�ा ँतो तय र्थोा च�ाग़ाँ �� एक घ� के चिलयेक�ा ँच�ाग़ मयस्स� न�ीं श�� के चिलये।

न �ो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगेये लोग हिकतने मुनाचिसब �ैं इस सफ़� के चिलये।

�ामधा�ी सिसं� ‘ठिदनक�’ की हिनम्नचिलखिखत अम� पंचिक्तयाँ, साहि�त्य के इस आयाम का अनुपम उदा��ण �ैं:

आ�ती चिलये तू हिकसे ढंूढता �ै मू�ख,मजिन्द�ों, �ाजप्रासादों में, त�खानों में?देवता क�ीं सड़कों प� हिगट्टी तोड़ ��े,देवता यिमलेंगे खेतों में, खचिल�ानों में।फावडे़ औ� �ल �ाजदण्ड बनने को �ैं,धूस�ता सोने से शंृ्रगा� सजाती �ै;दो �ा�,समय के �र्थो का घघ-�-नाद सुनो,सिसं�ासन खाली क�ो हिक जनता आती �ै

संक्षेप में “साहि�त्य” - शब्द, अर्थो- औ� भावनाओं की व� हित्रवेणी �ै जो जनहि�त की धा�ा के सार्थो उच्चादशj की ठिदशा में प्रवाहि�त �ै।साहि�त्य शब्द को परि�भाहि�त क�ना कठि�न �ै। जैसे पानी की आकृहित न�ीं, जिजस साँचे में डालो व�ढ़ल जाता �ै, उसी त�� का त�ल �ै य� शब्द। कहिवताा, क�ानी, नाटक, हिनबंध, रि�पोता-ज, जीवनी,�ेखाचिचत्र, यात्रा-वृतांत, समालोचना बहुत से साँचे �ैं। परि�भा�ा इस चिलये भी कठि�न �ो जाती �ै हिकधम-, �ाजनीहित, समाज, समसमयियक आलेखों, भूगोल, हिवज्ञान जैसे हिव�यों प� जो लेखन �ै उसकीक्या शे्रणी �ो? क्या साहि�त्य की परि�यिध इतनी व्यापक �ै?

संस्कृत में एक शब्द �ै वांड्मय। भा�ा के माध्यम से जो कुछ भी क�ा गया, व� वांड्मय �ै।साहि�त्य के संदभ- में संस्कृत की इस परि�भा�ा में मम- �ै – शब्दार्थोD सहि�तौ काव्यम। य�ा ँशब्द औ�अर्थो- के सार्थो भाव की आवश्यकता मानी गयी �ै। इसी परि�भा�ा को व्यापक क�ते हुए संस्कृत के �ीएक आचाय- हिवश्वनार्थो म�ापात्र नें “साहि�त्य दप-ण” नामक ग्रंर्थो चिलख क� “साहि�त्य” शब्द कोव्यव�ा� में प्रचचिलत हिकया। संस्कृत के �ी एक आचाय- कंुतक व्याख्या क�ते �ैं हिक जब शब्द औ�अर्थो- के बीच सुन्द�ता के चिलये स्पधा- या �ोड लगी �ो, तो साहि�त्य की सृयिO �ोती �ै। केवलसंस्कृतहिनष्ठ या क्लिक्लO चिलखना �ी साहि�त्य न�ीं �ै न �ी अनर्थो-क तुकबंदी साहि�त्य क�ी जा सकेगी।व� भावहिव�ीन �चना जो छंद औ� मीट� के अनुमापों में शतप्रहितशत स�ी भी बै�ती �ो, वैसी �ीकांहित�ीन �ैं जैसे अप�ान्� में जुगनू। अर्थोा-त, भाव हिकसी सृजन को व� ग��ायी प्रदान क�ते �ैं जोहिकसी �चना को साहि�त्य की परि�यिध में लाता �ै। हिकतनी सादगी से हिनदा फ़ाज़ली क� जाते �ैं

मैं �ोया प�देस में, भीगा माँ का प्या�दुख नें दुख से बात की, हिबन चिचट्ठी हिबन ता�।

य�ाँ शब्द औ� अर्थो- के बीच सादगी की स्पर्थोा- �ै किकंतु भाव इतने ग��े हिक �ोम �ोम से इस सृजनको म�सूस हिकया जा सकता �ै। य�ी साहि�त्य �ै। साहि�त्य शब्द की ची�-फाड क�ने प� एक औ�छुपा हुआ आयाम दीख पडता �ै व� �ै इसका सामाजिजक आयाम। बहुत जो� दे क� एक परि�भा�ाकी जाती �ै हिक “साहि�त्य समाज का दप-ण �ै”। �चनाका� अपने सामाजिजक स�ोका�ों से हिवमुक्त न�ीं�ो सकता, य�ी का�ण �ै हिक साहि�त्य अपने समय का इहित�ास बनता चला जाता �ै। अपने समय प� तीखे �ो क� दुष्यंत कुमा� चिलखते �ैं:

क�ा ँतो तय र्थोा च�ाग़ाँ �� एक घ� के चिलयेक�ा ँच�ाग़ मयस्स� न�ीं श�� के चिलये।

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न �ो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगेये लोग हिकतने मुनाचिसब �ैं इस सफ़� के चिलये।

�ामधा�ी सिसं� ‘ठिदनक�’ की हिनम्नचिलखिखत अम� पंचिक्तयाँ, साहि�त्य के इस आयाम का अनुपम उदा��ण �ैं:

आ�ती चिलये तू हिकसे ढंूढता �ै मू�ख,मजिन्द�ों, �ाजप्रासादों में, त�खानों में?देवता क�ीं सड़कों प� हिगट्टी तोड़ ��े,देवता यिमलेंगे खेतों में, खचिल�ानों में।फावडे़ औ� �ल �ाजदण्ड बनने को �ैं,धूस�ता सोने से शंृ्रगा� सजाती �ै;दो �ा�,समय के �र्थो का घघ-�-नाद सुनो,सिसं�ासन खाली क�ो हिक जनता आती �ै

संक्षेप में “साहि�त्य” - शब्द, अर्थो- औ� भावनाओं की व� हित्रवेणी �ै जो जनहि�त की धा�ा के सार्थो उच्चादशj की ठिदशा में प्रवाहि�त �ै।साहि�त्य शब्द को परि�भाहि�त क�ना कठि�न �ै। जैसे पानी की आकृहित न�ीं, जिजस साँचे में डालो व�ढ़ल जाता �ै, उसी त�� का त�ल �ै य� शब्द। कहिवताा, क�ानी, नाटक, हिनबंध, रि�पोता-ज, जीवनी,�ेखाचिचत्र, यात्रा-वृतांत, समालोचना बहुत से साँचे �ैं। परि�भा�ा इस चिलये भी कठि�न �ो जाती �ै हिकधम-, �ाजनीहित, समाज, समसमयियक आलेखों, भूगोल, हिवज्ञान जैसे हिव�यों प� जो लेखन �ै उसकीक्या शे्रणी �ो? क्या साहि�त्य की परि�यिध इतनी व्यापक �ै?

संस्कृत में एक शब्द �ै वांड्मय। भा�ा के माध्यम से जो कुछ भी क�ा गया, व� वांड्मय �ै।साहि�त्य के संदभ- में संस्कृत की इस परि�भा�ा में मम- �ै – शब्दार्थोD सहि�तौ काव्यम। य�ा ँशब्द औ�अर्थो- के सार्थो भाव की आवश्यकता मानी गयी �ै। इसी परि�भा�ा को व्यापक क�ते हुए संस्कृत के �ीएक आचाय- हिवश्वनार्थो म�ापात्र नें “साहि�त्य दप-ण” नामक ग्रंर्थो चिलख क� “साहि�त्य” शब्द कोव्यव�ा� में प्रचचिलत हिकया। संस्कृत के �ी एक आचाय- कंुतक व्याख्या क�ते �ैं हिक जब शब्द औ�अर्थो- के बीच सुन्द�ता के चिलये स्पधा- या �ोड लगी �ो, तो साहि�त्य की सृयिO �ोती �ै। केवलसंस्कृतहिनष्ठ या क्लिक्लO चिलखना �ी साहि�त्य न�ीं �ै न �ी अनर्थो-क तुकबंदी साहि�त्य क�ी जा सकेगी।व� भावहिव�ीन �चना जो छंद औ� मीट� के अनुमापों में शतप्रहितशत स�ी भी बै�ती �ो, वैसी �ीकांहित�ीन �ैं जैसे अप�ान्� में जुगनू। अर्थोा-त, भाव हिकसी सृजन को व� ग��ायी प्रदान क�ते �ैं जोहिकसी �चना को साहि�त्य की परि�यिध में लाता �ै। हिकतनी सादगी से हिनदा फ़ाज़ली क� जाते �ैं

मैं �ोया प�देस में, भीगा माँ का प्या�दुख नें दुख से बात की, हिबन चिचट्ठी हिबन ता�।

य�ाँ शब्द औ� अर्थो- के बीच सादगी की स्पर्थोा- �ै किकंतु भाव इतने ग��े हिक �ोम �ोम से इस सृजनको म�सूस हिकया जा सकता �ै। य�ी साहि�त्य �ै। साहि�त्य शब्द की ची�-फाड क�ने प� एक औ�छुपा हुआ आयाम दीख पडता �ै व� �ै इसका सामाजिजक आयाम। बहुत जो� दे क� एक परि�भा�ाकी जाती �ै हिक “साहि�त्य समाज का दप-ण �ै”। �चनाका� अपने सामाजिजक स�ोका�ों से हिवमुक्त न�ीं�ो सकता, य�ी का�ण �ै हिक साहि�त्य अपने समय का इहित�ास बनता चला जाता �ै। अपने समय प� तीखे �ो क� दुष्यंत कुमा� चिलखते �ैं:

क�ा ँतो तय र्थोा च�ाग़ाँ �� एक घ� के चिलयेक�ा ँच�ाग़ मयस्स� न�ीं श�� के चिलये।

न �ो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगेये लोग हिकतने मुनाचिसब �ैं इस सफ़� के चिलये।

�ामधा�ी सिसं� ‘ठिदनक�’ की हिनम्नचिलखिखत अम� पंचिक्तयाँ, साहि�त्य के इस आयाम का अनुपम उदा��ण �ैं:

आ�ती चिलये तू हिकसे ढंूढता �ै मू�ख,मजिन्द�ों, �ाजप्रासादों में, त�खानों में?देवता क�ीं सड़कों प� हिगट्टी तोड़ ��े,देवता यिमलेंगे खेतों में, खचिल�ानों में।फावडे़ औ� �ल �ाजदण्ड बनने को �ैं,धूस�ता सोने से शंृ्रगा� सजाती �ै;दो �ा�,समय के �र्थो का घघ-�-नाद सुनो,

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सिसं�ासन खाली क�ो हिक जनता आती �ै

संक्षेप में “साहि�त्य” - शब्द, अर्थो- औ� भावनाओं की व� हित्रवेणी �ै जो जनहि�त की धा�ा के सार्थो उच्चादशj की ठिदशा में प्रवाहि�त �ै।साहि�त्य शब्द को परि�भाहि�त क�ना कठि�न �ै। जैसे पानी की आकृहित न�ीं, जिजस साँचे में डालो व�ढ़ल जाता �ै, उसी त�� का त�ल �ै य� शब्द। कहिवताा, क�ानी, नाटक, हिनबंध, रि�पोता-ज, जीवनी,�ेखाचिचत्र, यात्रा-वृतांत, समालोचना बहुत से साँचे �ैं। परि�भा�ा इस चिलये भी कठि�न �ो जाती �ै हिकधम-, �ाजनीहित, समाज, समसमयियक आलेखों, भूगोल, हिवज्ञान जैसे हिव�यों प� जो लेखन �ै उसकीक्या शे्रणी �ो? क्या साहि�त्य की परि�यिध इतनी व्यापक �ै?

संस्कृत में एक शब्द �ै वांड्मय। भा�ा के माध्यम से जो कुछ भी क�ा गया, व� वांड्मय �ै।साहि�त्य के संदभ- में संस्कृत की इस परि�भा�ा में मम- �ै – शब्दार्थोD सहि�तौ काव्यम। य�ा ँशब्द औ�अर्थो- के सार्थो भाव की आवश्यकता मानी गयी �ै। इसी परि�भा�ा को व्यापक क�ते हुए संस्कृत के �ीएक आचाय- हिवश्वनार्थो म�ापात्र नें “साहि�त्य दप-ण” नामक ग्रंर्थो चिलख क� “साहि�त्य” शब्द कोव्यव�ा� में प्रचचिलत हिकया। संस्कृत के �ी एक आचाय- कंुतक व्याख्या क�ते �ैं हिक जब शब्द औ�अर्थो- के बीच सुन्द�ता के चिलये स्पधा- या �ोड लगी �ो, तो साहि�त्य की सृयिO �ोती �ै। केवलसंस्कृतहिनष्ठ या क्लिक्लO चिलखना �ी साहि�त्य न�ीं �ै न �ी अनर्थो-क तुकबंदी साहि�त्य क�ी जा सकेगी।व� भावहिव�ीन �चना जो छंद औ� मीट� के अनुमापों में शतप्रहितशत स�ी भी बै�ती �ो, वैसी �ीकांहित�ीन �ैं जैसे अप�ान्� में जुगनू। अर्थोा-त, भाव हिकसी सृजन को व� ग��ायी प्रदान क�ते �ैं जोहिकसी �चना को साहि�त्य की परि�यिध में लाता �ै। हिकतनी सादगी से हिनदा फ़ाज़ली क� जाते �ैं

मैं �ोया प�देस में, भीगा माँ का प्या�दुख नें दुख से बात की, हिबन चिचट्ठी हिबन ता�।

य�ाँ शब्द औ� अर्थो- के बीच सादगी की स्पर्थोा- �ै किकंतु भाव इतने ग��े हिक �ोम �ोम से इस सृजनको म�सूस हिकया जा सकता �ै। य�ी साहि�त्य �ै। साहि�त्य शब्द की ची�-फाड क�ने प� एक औ�छुपा हुआ आयाम दीख पडता �ै व� �ै इसका सामाजिजक आयाम। बहुत जो� दे क� एक परि�भा�ाकी जाती �ै हिक “साहि�त्य समाज का दप-ण �ै”। �चनाका� अपने सामाजिजक स�ोका�ों से हिवमुक्त न�ीं�ो सकता, य�ी का�ण �ै हिक साहि�त्य अपने समय का इहित�ास बनता चला जाता �ै। अपने समय प� तीखे �ो क� दुष्यंत कुमा� चिलखते �ैं:

क�ा ँतो तय र्थोा च�ाग़ाँ �� एक घ� के चिलयेक�ा ँच�ाग़ मयस्स� न�ीं श�� के चिलये।

न �ो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगेये लोग हिकतने मुनाचिसब �ैं इस सफ़� के चिलये।

�ामधा�ी सिसं� ‘ठिदनक�’ की हिनम्नचिलखिखत अम� पंचिक्तयाँ, साहि�त्य के इस आयाम का अनुपम उदा��ण �ैं:

आ�ती चिलये तू हिकसे ढंूढता �ै मू�ख,मजिन्द�ों, �ाजप्रासादों में, त�खानों में?देवता क�ीं सड़कों प� हिगट्टी तोड़ ��े,देवता यिमलेंगे खेतों में, खचिल�ानों में।फावडे़ औ� �ल �ाजदण्ड बनने को �ैं,धूस�ता सोने से शंृ्रगा� सजाती �ै;दो �ा�,समय के �र्थो का घघ-�-नाद सुनो,सिसं�ासन खाली क�ो हिक जनता आती �ै

संक्षेप में “साहि�त्य” - शब्द, अर्थो- औ� भावनाओं की व� हित्रवेणी �ै जो जनहि�त की धा�ा के सार्थो उच्चादशj की ठिदशा में प्रवाहि�त �ै।साहि�त्य शब्द को परि�भाहि�त क�ना कठि�न �ै। जैसे पानी की आकृहित न�ीं, जिजस साँचे में डालो व�ढ़ल जाता �ै, उसी त�� का त�ल �ै य� शब्द। कहिवताा, क�ानी, नाटक, हिनबंध, रि�पोता-ज, जीवनी,�ेखाचिचत्र, यात्रा-वृतांत, समालोचना बहुत से साँचे �ैं। परि�भा�ा इस चिलये भी कठि�न �ो जाती �ै हिकधम-, �ाजनीहित, समाज, समसमयियक आलेखों, भूगोल, हिवज्ञान जैसे हिव�यों प� जो लेखन �ै उसकीक्या शे्रणी �ो? क्या साहि�त्य की परि�यिध इतनी व्यापक �ै?

संस्कृत में एक शब्द �ै वांड्मय। भा�ा के माध्यम से जो कुछ भी क�ा गया, व� वांड्मय �ै।साहि�त्य के संदभ- में संस्कृत की इस परि�भा�ा में मम- �ै – शब्दार्थोD सहि�तौ काव्यम। य�ा ँशब्द औ�अर्थो- के सार्थो भाव की आवश्यकता मानी गयी �ै। इसी परि�भा�ा को व्यापक क�ते हुए संस्कृत के �ीएक आचाय- हिवश्वनार्थो म�ापात्र नें “साहि�त्य दप-ण” नामक ग्रंर्थो चिलख क� “साहि�त्य” शब्द कोव्यव�ा� में प्रचचिलत हिकया। संस्कृत के �ी एक आचाय- कंुतक व्याख्या क�ते �ैं हिक जब शब्द औ�अर्थो- के बीच सुन्द�ता के चिलये स्पधा- या �ोड लगी �ो, तो साहि�त्य की सृयिO �ोती �ै। केवलसंस्कृतहिनष्ठ या क्लिक्लO चिलखना �ी साहि�त्य न�ीं �ै न �ी अनर्थो-क तुकबंदी साहि�त्य क�ी जा सकेगी।व� भावहिव�ीन �चना जो छंद औ� मीट� के अनुमापों में शतप्रहितशत स�ी भी बै�ती �ो, वैसी �ी

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कांहित�ीन �ैं जैसे अप�ान्� में जुगनू। अर्थोा-त, भाव हिकसी सृजन को व� ग��ायी प्रदान क�ते �ैं जोहिकसी �चना को साहि�त्य की परि�यिध में लाता �ै। हिकतनी सादगी से हिनदा फ़ाज़ली क� जाते �ैं

मैं �ोया प�देस में, भीगा माँ का प्या�दुख नें दुख से बात की, हिबन चिचट्ठी हिबन ता�।

य�ाँ शब्द औ� अर्थो- के बीच सादगी की स्पर्थोा- �ै किकंतु भाव इतने ग��े हिक �ोम �ोम से इस सृजनको म�सूस हिकया जा सकता �ै। य�ी साहि�त्य �ै। साहि�त्य शब्द की ची�-फाड क�ने प� एक औ�छुपा हुआ आयाम दीख पडता �ै व� �ै इसका सामाजिजक आयाम। बहुत जो� दे क� एक परि�भा�ाकी जाती �ै हिक “साहि�त्य समाज का दप-ण �ै”। �चनाका� अपने सामाजिजक स�ोका�ों से हिवमुक्त न�ीं�ो सकता, य�ी का�ण �ै हिक साहि�त्य अपने समय का इहित�ास बनता चला जाता �ै। अपने समय प� तीखे �ो क� दुष्यंत कुमा� चिलखते �ैं:

क�ा ँतो तय र्थोा च�ाग़ाँ �� एक घ� के चिलयेक�ा ँच�ाग़ मयस्स� न�ीं श�� के चिलये।

न �ो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगेये लोग हिकतने मुनाचिसब �ैं इस सफ़� के चिलये।

�ामधा�ी सिसं� ‘ठिदनक�’ की हिनम्नचिलखिखत अम� पंचिक्तयाँ, साहि�त्य के इस आयाम का अनुपम उदा��ण �ैं:

आ�ती चिलये तू हिकसे ढंूढता �ै मू�ख,मजिन्द�ों, �ाजप्रासादों में, त�खानों में?देवता क�ीं सड़कों प� हिगट्टी तोड़ ��े,देवता यिमलेंगे खेतों में, खचिल�ानों में।फावडे़ औ� �ल �ाजदण्ड बनने को �ैं,धूस�ता सोने से शंृ्रगा� सजाती �ै;दो �ा�,समय के �र्थो का घघ-�-नाद सुनो,सिसं�ासन खाली क�ो हिक जनता आती �ै

संक्षेप में “साहि�त्य” - शब्द, अर्थो- औ� भावनाओं की व� हित्रवेणी �ै जो जनहि�त की धा�ा के सार्थो उच्चादशj की ठिदशा में प्रवाहि�त �ै।साहि�त्य शब्द को परि�भाहि�त क�ना कठि�न �ै। जैसे पानी की आकृहित न�ीं, जिजस साँचे में डालो व�ढ़ल जाता �ै, उसी त�� का त�ल �ै य� शब्द। कहिवताा, क�ानी, नाटक, हिनबंध, रि�पोता-ज, जीवनी,�ेखाचिचत्र, यात्रा-वृतांत, समालोचना बहुत से साँचे �ैं। परि�भा�ा इस चिलये भी कठि�न �ो जाती �ै हिकधम-, �ाजनीहित, समाज, समसमयियक आलेखों, भूगोल, हिवज्ञान जैसे हिव�यों प� जो लेखन �ै उसकीक्या शे्रणी �ो? क्या साहि�त्य की परि�यिध इतनी व्यापक �ै?

संस्कृत में एक शब्द �ै वांड्मय। भा�ा के माध्यम से जो कुछ भी क�ा गया, व� वांड्मय �ै।साहि�त्य के संदभ- में संस्कृत की इस परि�भा�ा में मम- �ै – शब्दार्थोD सहि�तौ काव्यम। य�ा ँशब्द औ�अर्थो- के सार्थो भाव की आवश्यकता मानी गयी �ै। इसी परि�भा�ा को व्यापक क�ते हुए संस्कृत के �ीएक आचाय- हिवश्वनार्थो म�ापात्र नें “साहि�त्य दप-ण” नामक ग्रंर्थो चिलख क� “साहि�त्य” शब्द कोव्यव�ा� में प्रचचिलत हिकया। संस्कृत के �ी एक आचाय- कंुतक व्याख्या क�ते �ैं हिक जब शब्द औ�अर्थो- के बीच सुन्द�ता के चिलये स्पधा- या �ोड लगी �ो, तो साहि�त्य की सृयिO �ोती �ै। केवलसंस्कृतहिनष्ठ या क्लिक्लO चिलखना �ी साहि�त्य न�ीं �ै न �ी अनर्थो-क तुकबंदी साहि�त्य क�ी जा सकेगी।व� भावहिव�ीन �चना जो छंद औ� मीट� के अनुमापों में शतप्रहितशत स�ी भी बै�ती �ो, वैसी �ीकांहित�ीन �ैं जैसे अप�ान्� में जुगनू। अर्थोा-त, भाव हिकसी सृजन को व� ग��ायी प्रदान क�ते �ैं जोहिकसी �चना को साहि�त्य की परि�यिध में लाता �ै। हिकतनी सादगी से हिनदा फ़ाज़ली क� जाते �ैं

मैं �ोया प�देस में, भीगा माँ का प्या�दुख नें दुख से बात की, हिबन चिचट्ठी हिबन ता�।

य�ाँ शब्द औ� अर्थो- के बीच सादगी की स्पर्थोा- �ै किकंतु भाव इतने ग��े हिक �ोम �ोम से इस सृजनको म�सूस हिकया जा सकता �ै। य�ी साहि�त्य �ै। साहि�त्य शब्द की ची�-फाड क�ने प� एक औ�छुपा हुआ आयाम दीख पडता �ै व� �ै इसका सामाजिजक आयाम। बहुत जो� दे क� एक परि�भा�ाकी जाती �ै हिक “साहि�त्य समाज का दप-ण �ै”। �चनाका� अपने सामाजिजक स�ोका�ों से हिवमुक्त न�ीं�ो सकता, य�ी का�ण �ै हिक साहि�त्य अपने समय का इहित�ास बनता चला जाता �ै। अपने समय प� तीखे �ो क� दुष्यंत कुमा� चिलखते �ैं:

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क�ा ँतो तय र्थोा च�ाग़ाँ �� एक घ� के चिलयेक�ा ँच�ाग़ मयस्स� न�ीं श�� के चिलये।

न �ो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगेये लोग हिकतने मुनाचिसब �ैं इस सफ़� के चिलये।

�ामधा�ी सिसं� ‘ठिदनक�’ की हिनम्नचिलखिखत अम� पंचिक्तयाँ, साहि�त्य के इस आयाम का अनुपम उदा��ण �ैं:

आ�ती चिलये तू हिकसे ढंूढता �ै मू�ख,मजिन्द�ों, �ाजप्रासादों में, त�खानों में?देवता क�ीं सड़कों प� हिगट्टी तोड़ ��े,देवता यिमलेंगे खेतों में, खचिल�ानों में।फावडे़ औ� �ल �ाजदण्ड बनने को �ैं,धूस�ता सोने से शंृ्रगा� सजाती �ै;दो �ा�,समय के �र्थो का घघ-�-नाद सुनो,सिसं�ासन खाली क�ो हिक जनता आती �ै

संक्षेप में “साहि�त्य” - शब्द, अर्थो- औ� भावनाओं की व� हित्रवेणी �ै जो जनहि�त की धा�ा के सार्थो उच्चादशj की ठिदशा में प्रवाहि�त �ै।साहि�त्य शब्द को परि�भाहि�त क�ना कठि�न �ै। जैसे पानी की आकृहित न�ीं, जिजस साँचे में डालो व�ढ़ल जाता �ै, उसी त�� का त�ल �ै य� शब्द। कहिवताा, क�ानी, नाटक, हिनबंध, रि�पोता-ज, जीवनी,�ेखाचिचत्र, यात्रा-वृतांत, समालोचना बहुत से साँचे �ैं। परि�भा�ा इस चिलये भी कठि�न �ो जाती �ै हिकधम-, �ाजनीहित, समाज, समसमयियक आलेखों, भूगोल, हिवज्ञान जैसे हिव�यों प� जो लेखन �ै उसकीक्या शे्रणी �ो? क्या साहि�त्य की परि�यिध इतनी व्यापक �ै?

संस्कृत में एक शब्द �ै वांड्मय। भा�ा के माध्यम से जो कुछ भी क�ा गया, व� वांड्मय �ै।साहि�त्य के संदभ- में संस्कृत की इस परि�भा�ा में मम- �ै – शब्दार्थोD सहि�तौ काव्यम। य�ा ँशब्द औ�अर्थो- के सार्थो भाव की आवश्यकता मानी गयी �ै। इसी परि�भा�ा को व्यापक क�ते हुए संस्कृत के �ीएक आचाय- हिवश्वनार्थो म�ापात्र नें “साहि�त्य दप-ण” नामक ग्रंर्थो चिलख क� “साहि�त्य” शब्द कोव्यव�ा� में प्रचचिलत हिकया। संस्कृत के �ी एक आचाय- कंुतक व्याख्या क�ते �ैं हिक जब शब्द औ�अर्थो- के बीच सुन्द�ता के चिलये स्पधा- या �ोड लगी �ो, तो साहि�त्य की सृयिO �ोती �ै। केवलसंस्कृतहिनष्ठ या क्लिक्लO चिलखना �ी साहि�त्य न�ीं �ै न �ी अनर्थो-क तुकबंदी साहि�त्य क�ी जा सकेगी।व� भावहिव�ीन �चना जो छंद औ� मीट� के अनुमापों में शतप्रहितशत स�ी भी बै�ती �ो, वैसी �ीकांहित�ीन �ैं जैसे अप�ान्� में जुगनू। अर्थोा-त, भाव हिकसी सृजन को व� ग��ायी प्रदान क�ते �ैं जोहिकसी �चना को साहि�त्य की परि�यिध में लाता �ै। हिकतनी सादगी से हिनदा फ़ाज़ली क� जाते �ैं

मैं �ोया प�देस में, भीगा माँ का प्या�दुख नें दुख से बात की, हिबन चिचट्ठी हिबन ता�।

य�ाँ शब्द औ� अर्थो- के बीच सादगी की स्पर्थोा- �ै किकंतु भाव इतने ग��े हिक �ोम �ोम से इस सृजनको म�सूस हिकया जा सकता �ै। य�ी साहि�त्य �ै। साहि�त्य शब्द की ची�-फाड क�ने प� एक औ�छुपा हुआ आयाम दीख पडता �ै व� �ै इसका सामाजिजक आयाम। बहुत जो� दे क� एक परि�भा�ाकी जाती �ै हिक “साहि�त्य समाज का दप-ण �ै”। �चनाका� अपने सामाजिजक स�ोका�ों से हिवमुक्त न�ीं�ो सकता, य�ी का�ण �ै हिक साहि�त्य अपने समय का इहित�ास बनता चला जाता �ै। अपने समय प� तीखे �ो क� दुष्यंत कुमा� चिलखते �ैं:

क�ा ँतो तय र्थोा च�ाग़ाँ �� एक घ� के चिलयेक�ा ँच�ाग़ मयस्स� न�ीं श�� के चिलये।

न �ो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगेये लोग हिकतने मुनाचिसब �ैं इस सफ़� के चिलये।

�ामधा�ी सिसं� ‘ठिदनक�’ की हिनम्नचिलखिखत अम� पंचिक्तयाँ, साहि�त्य के इस आयाम का अनुपम उदा��ण �ैं:

आ�ती चिलये तू हिकसे ढंूढता �ै मू�ख,मजिन्द�ों, �ाजप्रासादों में, त�खानों में?देवता क�ीं सड़कों प� हिगट्टी तोड़ ��े,देवता यिमलेंगे खेतों में, खचिल�ानों में।

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फावडे़ औ� �ल �ाजदण्ड बनने को �ैं,धूस�ता सोने से शंृ्रगा� सजाती �ै;दो �ा�,समय के �र्थो का घघ-�-नाद सुनो,सिसं�ासन खाली क�ो हिक जनता आती �ै

संक्षेप में “साहि�त्य” - शब्द, अर्थो- औ� भावनाओं की व� हित्रवेणी �ै जो जनहि�त की धा�ा के सार्थो उच्चादशj की ठिदशा में प्रवाहि�त �ै।साहि�त्य शब्द को परि�भाहि�त क�ना कठि�न �ै। जैसे पानी की आकृहित न�ीं, जिजस साँचे में डालो व�ढ़ल जाता �ै, उसी त�� का त�ल �ै य� शब्द। कहिवताा, क�ानी, नाटक, हिनबंध, रि�पोता-ज, जीवनी,�ेखाचिचत्र, यात्रा-वृतांत, समालोचना बहुत से साँचे �ैं। परि�भा�ा इस चिलये भी कठि�न �ो जाती �ै हिकधम-, �ाजनीहित, समाज, समसमयियक आलेखों, भूगोल, हिवज्ञान जैसे हिव�यों प� जो लेखन �ै उसकीक्या शे्रणी �ो? क्या साहि�त्य की परि�यिध इतनी व्यापक �ै?

संस्कृत में एक शब्द �ै वांड्मय। भा�ा के माध्यम से जो कुछ भी क�ा गया, व� वांड्मय �ै।साहि�त्य के संदभ- में संस्कृत की इस परि�भा�ा में मम- �ै – शब्दार्थोD सहि�तौ काव्यम। य�ा ँशब्द औ�अर्थो- के सार्थो भाव की आवश्यकता मानी गयी �ै। इसी परि�भा�ा को व्यापक क�ते हुए संस्कृत के �ीएक आचाय- हिवश्वनार्थो म�ापात्र नें “साहि�त्य दप-ण” नामक ग्रंर्थो चिलख क� “साहि�त्य” शब्द कोव्यव�ा� में प्रचचिलत हिकया। संस्कृत के �ी एक आचाय- कंुतक व्याख्या क�ते �ैं हिक जब शब्द औ�अर्थो- के बीच सुन्द�ता के चिलये स्पधा- या �ोड लगी �ो, तो साहि�त्य की सृयिO �ोती �ै। केवलसंस्कृतहिनष्ठ या क्लिक्लO चिलखना �ी साहि�त्य न�ीं �ै न �ी अनर्थो-क तुकबंदी साहि�त्य क�ी जा सकेगी।व� भावहिव�ीन �चना जो छंद औ� मीट� के अनुमापों में शतप्रहितशत स�ी भी बै�ती �ो, वैसी �ीकांहित�ीन �ैं जैसे अप�ान्� में जुगनू। अर्थोा-त, भाव हिकसी सृजन को व� ग��ायी प्रदान क�ते �ैं जोहिकसी �चना को साहि�त्य की परि�यिध में लाता �ै। हिकतनी सादगी से हिनदा फ़ाज़ली क� जाते �ैं

मैं �ोया प�देस में, भीगा माँ का प्या�दुख नें दुख से बात की, हिबन चिचट्ठी हिबन ता�।

य�ाँ शब्द औ� अर्थो- के बीच सादगी की स्पर्थोा- �ै किकंतु भाव इतने ग��े हिक �ोम �ोम से इस सृजनको म�सूस हिकया जा सकता �ै। य�ी साहि�त्य �ै। साहि�त्य शब्द की ची�-फाड क�ने प� एक औ�छुपा हुआ आयाम दीख पडता �ै व� �ै इसका सामाजिजक आयाम। बहुत जो� दे क� एक परि�भा�ाकी जाती �ै हिक “साहि�त्य समाज का दप-ण �ै”। �चनाका� अपने सामाजिजक स�ोका�ों से हिवमुक्त न�ीं�ो सकता, य�ी का�ण �ै हिक साहि�त्य अपने समय का इहित�ास बनता चला जाता �ै। अपने समय प� तीखे �ो क� दुष्यंत कुमा� चिलखते �ैं:

क�ा ँतो तय र्थोा च�ाग़ाँ �� एक घ� के चिलयेक�ा ँच�ाग़ मयस्स� न�ीं श�� के चिलये।

न �ो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगेये लोग हिकतने मुनाचिसब �ैं इस सफ़� के चिलये।

�ामधा�ी सिसं� ‘ठिदनक�’ की हिनम्नचिलखिखत अम� पंचिक्तयाँ, साहि�त्य के इस आयाम का अनुपम उदा��ण �ैं:

आ�ती चिलये तू हिकसे ढंूढता �ै मू�ख,मजिन्द�ों, �ाजप्रासादों में, त�खानों में?देवता क�ीं सड़कों प� हिगट्टी तोड़ ��े,देवता यिमलेंगे खेतों में, खचिल�ानों में।फावडे़ औ� �ल �ाजदण्ड बनने को �ैं,धूस�ता सोने से शंृ्रगा� सजाती �ै;दो �ा�,समय के �र्थो का घघ-�-नाद सुनो,सिसं�ासन खाली क�ो हिक जनता आती �ै

संक्षेप में “साहि�त्य” - शब्द, अर्थो- औ� भावनाओं की व� हित्रवेणी �ै जो जनहि�त की धा�ा के सार्थो उच्चादशj की ठिदशा में प्रवाहि�त �ै।साहि�त्य शब्द को परि�भाहि�त क�ना कठि�न �ै। जैसे पानी की आकृहित न�ीं, जिजस साँचे में डालो व�ढ़ल जाता �ै, उसी त�� का त�ल �ै य� शब्द। कहिवताा, क�ानी, नाटक, हिनबंध, रि�पोता-ज, जीवनी,�ेखाचिचत्र, यात्रा-वृतांत, समालोचना बहुत से साँचे �ैं। परि�भा�ा इस चिलये भी कठि�न �ो जाती �ै हिकधम-, �ाजनीहित, समाज, समसमयियक आलेखों, भूगोल, हिवज्ञान जैसे हिव�यों प� जो लेखन �ै उसकीक्या शे्रणी �ो? क्या साहि�त्य की परि�यिध इतनी व्यापक �ै?

संस्कृत में एक शब्द �ै वांड्मय। भा�ा के माध्यम से जो कुछ भी क�ा गया, व� वांड्मय �ै।साहि�त्य के संदभ- में संस्कृत की इस परि�भा�ा में मम- �ै – शब्दार्थोD सहि�तौ काव्यम। य�ा ँशब्द औ�अर्थो- के सार्थो भाव की आवश्यकता मानी गयी �ै। इसी परि�भा�ा को व्यापक क�ते हुए संस्कृत के �ीएक आचाय- हिव

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श्वनार्थो म�ापात्र नें “साहि�त्य दप-ण” नामक ग्रंर्थो चिलख क� “साहि�त्य” शब्द कोव्यव�ा� में प्रचचिलत हिकया। संस्कृत के �ी एक आचाय- कंुतक व्याख्या क�ते �ैं हिक जब शब्द औ�अर्थो- के बीच सुन्द�ता के चिलये स्पधा- या �ोड लगी �ो, तो साहि�त्य की सृयिO �ोती �ै। केवलसंस्कृतहिनष्ठ या क्लिक्लO चिलखना �ी साहि�त्य न�ीं �ै न �ी अनर्थो-क तुकबंदी साहि�त्य क�ी जा सकेगी।व� भावहिव�ीन �चना जो छंद औ� मीट� के अनुमापों में शतप्रहितशत स�ी भी बै�ती �ो, वैसी �ीकांहित�ीन �ैं जैसे अप�ान्� में जुगनू। अर्थोा-त, भाव हिकसी सृजन को व� ग��ायी प्रदान क�ते �ैं जोहिकसी �चना को साहि�त्य की परि�यिध में लाता �ै। हिकतनी सादगी से हिनदा फ़ाज़ली क� जाते �ैं

मैं �ोया प�देस में, भीगा माँ का प्या�दुख नें दुख से बात की, हिबन चिचट्ठी हिबन ता�।

य�ाँ शब्द औ� अर्थो- के बीच सादगी की स्पर्थोा- �ै किकंतु भाव इतने ग��े हिक �ोम �ोम से इस सृजनको म�सूस हिकया जा सकता �ै। य�ी साहि�त्य �ै। साहि�त्य शब्द की ची�-फाड क�ने प� एक औ�छुपा हुआ आयाम दीख पडता �ै व� �ै इसका सामाजिजक आयाम। बहुत जो� दे क� एक परि�भा�ाकी जाती �ै हिक “साहि�त्य समाज का दप-ण �ै”। �चनाका� अपने सामाजिजक स�ोका�ों से हिवमुक्त न�ीं�ो सकता, य�ी का�ण �ै हिक साहि�त्य अपने समय का इहित�ास बनता चला जाता �ै। अपने समय प� तीखे �ो क� दुष्यंत कुमा� चिलखते �ैं:

क�ा ँतो तय र्थोा च�ाग़ाँ �� एक घ� के चिलयेक�ा ँच�ाग़ मयस्स� न�ीं श�� के चिलये।

न �ो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगेये लोग हिकतने मुनाचिसब �ैं इस सफ़� के चिलये।

�ामधा�ी सिसं� ‘ठिदनक�’ की हिनम्नचिलखिखत अम� पंचिक्तयाँ, साहि�त्य के इस आयाम का अनुपम उदा��ण �ैं:

आ�ती चिलये तू हिकसे ढंूढता �ै मू�ख,मजिन्द�ों, �ाजप्रासादों में, त�खानों में?देवता क�ीं सड़कों प� हिगट्टी तोड़ ��े,देवता यिमलेंगे खेतों में, खचिल�ानों में।फावडे़ औ� �ल �ाजदण्ड बनने को �ैं,धूस�ता सोने से शंृ्रगा� सजाती �ै;दो �ा�,समय के �र्थो का घघ-�-नाद सुनो,सिसं�ासन खाली क�ो हिक जनता आती �ै

संक्षेप में “साहि�त्य” - शब्द, अर्थो- औ� भावनाओं की व� हित्रवेणी �ै जो जनहि�त की धा�ा के सार्थो उच्चादशj की ठिदशा में प्रवाहि�त �ै।साहि�त्य शब्द को परि�भाहि�त क�ना कठि�न �ै। जैसे पानी की आकृहित न�ीं, जिजस साँचे में डालो व�ढ़ल जाता �ै, उसी त�� का त�ल �ै य� शब्द। कहिवताा, क�ानी, नाटक, हिनबंध, रि�पोता-ज, जीवनी,�ेखाचिचत्र, यात्रा-वृतांत, समालोचना बहुत से साँचे �ैं। परि�भा�ा इस चिलये भी कठि�न �ो जाती �ै हिकधम-, �ाजनीहित, समाज, समसमयियक आलेखों, भूगोल, हिवज्ञान जैसे हिव�यों प� जो लेखन �ै उसकीक्या शे्रणी �ो? क्या साहि�त्य की परि�यिध इतनी व्यापक �ै?

संस्कृत में एक शब्द �ै वांड्मय। भा�ा के माध्यम से जो कुछ भी क�ा गया, व� वांड्मय �ै।साहि�त्य के संदभ- में संस्कृत की इस परि�भा�ा में मम- �ै – शब्दार्थोD सहि�तौ काव्यम। य�ा ँशब्द औ�अर्थो- के सार्थो भाव की आवश्यकता मानी गयी �ै। इसी परि�भा�ा को व्यापक क�ते हुए संस्कृत के �ीएक आचाय- हिवश्वनार्थो म�ापात्र नें “साहि�त्य दप-ण” नामक ग्रंर्थो चिलख क� “साहि�त्य” शब्द कोव्यव�ा� में प्रचचिलत हिकया। संस्कृत के �ी एक आचाय- कंुतक व्याख्या क�ते �ैं हिक जब शब्द औ�अर्थो- के बीच सुन्द�ता के चिलये स्पधा- या �ोड लगी �ो, तो साहि�त्य की सृयिO �ोती �ै। केवलसंस्कृतहिनष्ठ या क्लिक्लO चिलखना �ी साहि�त्य न�ीं �ै न �ी अनर्थो-क तुकबंदी साहि�त्य क�ी जा सकेगी।व� भावहिव�ीन �चना जो छंद औ� मीट� के अनुमापों में शतप्रहितशत स�ी भी बै�ती �ो, वैसी �ीकांहित�ीन �ैं जैसे अप�ान्� में जुगनू। अर्थोा-त, भाव हिकसी सृजन को व� ग��ायी प्रदान क�ते �ैं जोहिकसी �चना को साहि�त्य की परि�यिध में लाता �ै। हिकतनी सादगी से हिनदा फ़ाज़ली क� जाते �ैं

मैं �ोया प�देस में, भीगा माँ का प्या�दुख नें दुख से बात की, हिबन चिचट्ठी हिबन ता�।

य�ाँ शब्द औ� अर्थो- के बीच सादगी की स्पर्थोा- �ै किकंतु भाव इतने ग��े हिक �ोम �ोम से इस सृजनको म�सूस हिकया जा सकता �ै। य�ी साहि�त्य �ै। साहि�त्य शब्द की ची�-फाड क�ने प� एक औ�छुपा हुआ आयाम दीख पडता �ै व� �ै इसका सामाजिजक आयाम। बहुत जो� दे क� एक परि�भा�ाकी जाती �ै 

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हिक “साहि�त्य समाज का दप-ण �ै”। �चनाका� अपने सामाजिजक स�ोका�ों से हिवमुक्त न�ीं�ो सकता, य�ी का�ण �ै हिक साहि�त्य अपने समय का इहित�ास बनता चला जाता �ै। अपने समय प� तीखे �ो क� दुष्यंत कुमा� चिलखते �ैं:

क�ा ँतो तय र्थोा च�ाग़ाँ �� एक घ� के चिलयेक�ा ँच�ाग़ मयस्स� न�ीं श�� के चिलये।

न �ो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगेये लोग हिकतने मुनाचिसब �ैं इस सफ़� के चिलये।

�ामधा�ी सिसं� ‘ठिदनक�’ की हिनम्नचिलखिखत अम� पंचिक्तयाँ, साहि�त्य के इस आयाम का अनुपम उदा��ण �ैं:

आ�ती चिलये तू हिकसे ढंूढता �ै मू�ख,मजिन्द�ों, �ाजप्रासादों में, त�खानों में?देवता क�ीं सड़कों प� हिगट्टी तोड़ ��े,देवता यिमलेंगे खेतों में, खचिल�ानों में।फावडे़ औ� �ल �ाजदण्ड बनने को �ैं,धूस�ता सोने से शंृ्रगा� सजाती �ै;दो �ा�,समय के �र्थो का घघ-�-नाद सुनो,सिसं�ासन खाली क�ो हिक जनता आती �ै

संक्षेप में “साहि�त्य” - शब्द, अर्थो- औ� भावनाओं की व� हित्रवेणी �ै जो जनहि�त की धा�ा के सार्थो उच्चादशj की ठिदशा में प्रवाहि�त �ै।साहि�त्य शब्द को परि�भाहि�त क�ना कठि�न �ै। जैसे पानी की आकृहित न�ीं, जिजस साँचे में डालो व�ढ़ल जाता �ै, उसी त�� का त�ल �ै य� शब्द। कहिवताा, क�ानी, नाटक, हिनबंध, रि�पोता-ज, जीवनी,�ेखाचिचत्र, यात्रा-वृतांत, समालोचना बहुत से साँचे �ैं। परि�भा�ा इस चिलये भी कठि�न �ो जाती �ै हिकधम-, �ाजनीहित, समाज, समसमयियक आलेखों, भूगोल, हिवज्ञान जैसे हिव�यों प� जो लेखन �ै उसकीक्या शे्रणी �ो? क्या साहि�त्य की परि�यिध इतनी व्यापक �ै?

संस्कृत में एक शब्द �ै वांड्मय। भा�ा के माध्यम से जो कुछ भी क�ा गया, व� वांड्मय �ै।साहि�त्य के संदभ- में संस्कृत की इस परि�भा�ा में मम- �ै – शब्दार्थोD सहि�तौ काव्यम। य�ा ँशब्द औ�अर्थो- के सार्थो भाव की आवश्यकता मानी गयी �ै। इसी परि�भा�ा को व्यापक क�ते हुए संस्कृत के �ीएक आचाय- हिवश्वनार्थो म�ापात्र नें “साहि�त्य दप-ण” नामक ग्रंर्थो चिलख क� “साहि�त्य” शब्द कोव्यव�ा� में प्रचचिलत हिकया। संस्कृत के �ी एक आचाय- कंुतक व्याख्या क�ते �ैं हिक जब शब्द औ�अर्थो- के बीच सुन्द�ता के चिलये स्पधा- या �ोड लगी �ो, तो साहि�त्य की सृयिO �ोती �ै। केवलसंस्कृतहिनष्ठ या क्लिक्लO चिलखना �ी साहि�त्य न�ीं �ै न �ी अनर्थो-क तुकबंदी साहि�त्य क�ी जा सकेगी।व� भावहिव�ीन �चना जो छंद औ� मीट� के अनुमापों में शतप्रहितशत स�ी भी बै�ती �ो, वैसी �ीकांहित�ीन �ैं जैसे अप�ान्� में जुगनू। अर्थोा-त, भाव हिकसी सृजन को व� ग��ायी प्रदान क�ते �ैं जोहिकसी �चना को साहि�त्य की परि�यिध में लाता �ै। हिकतनी सादगी से हिनदा फ़ाज़ली क� जाते �ैं

मैं �ोया प�देस में, भीगा माँ का प्या�दुख नें दुख से बात की, हिबन चिचट्ठी हिबन ता�।

य�ाँ शब्द औ� अर्थो- के बीच सादगी की स्पर्थोा- �ै किकंतु भाव इतने ग��े हिक �ोम �ोम से इस सृजनको म�सूस हिकया जा सकता �ै। य�ी साहि�त्य �ै। साहि�त्य शब्द की ची�-फाड क�ने प� एक औ�छुपा हुआ आयाम दीख पडता �ै व� �ै इसका सामाजिजक आयाम। बहुत जो� दे क� एक परि�भा�ाकी जाती �ै हिक “साहि�त्य समाज का दप-ण �ै”। �चनाका� अपने सामाजिजक स�ोका�ों से हिवमुक्त न�ीं�ो सकता, य�ी का�ण �ै हिक साहि�त्य अपने समय का इहित�ास बनता चला जाता �ै। अपने समय प� तीखे �ो क� दुष्यंत कुमा� चिलखते �ैं:

क�ा ँतो तय र्थोा च�ाग़ाँ �� एक घ� के चिलयेक�ा ँच�ाग़ मयस्स� न�ीं श�� के चिलये।

न �ो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगेये लोग हिकतने मुनाचिसब �ैं इस सफ़� के चिलये।

�ामधा�ी सिसं� ‘ठिदनक�’ की हिनम्नचिलखिखत अम� पंचिक्तयाँ, साहि�त्य के इस आयाम का अनुपम उदा��ण �ैं:

आ�ती चिलये तू हिकसे ढंूढता �ै मू�ख,

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मजिन्द�ों, �ाजप्रासादों में, त�खानों में?देवता क�ीं सड़कों प� हिगट्टी तोड़ ��े,देवता यिमलेंगे खेतों में, खचिल�ानों में।फावडे़ औ� �ल �ाजदण्ड बनने को �ैं,धूस�ता सोने से शंृ्रगा� सजाती �ै;दो �ा�,समय के �र्थो का घघ-�-नाद सुनो,सिसं�ासन खाली क�ो हिक जनता आती �ै

संक्षेप में “साहि�त्य” - शब्द, अर्थो- औ� भावनाओं की व� हित्रवेणी �ै जो जनहि�त की धा�ा के सार्थो उच्चादशj की ठिदशा में प्रवाहि�त �ै।साहि�त्य शब्द को परि�भाहि�त क�ना कठि�न �ै। जैसे पानी की आकृहित न�ीं, जिजस साँचे में डालो व�ढ़ल जाता �ै, उसी त�� का त�ल �ै य� शब्द। कहिवताा, क�ानी, नाटक, हिनबंध, रि�पोता-ज, जीवनी,�ेखाचिचत्र, यात्रा-वृतांत, समालोचना बहुत से साँचे �ैं। परि�भा�ा इस चिलये भी कठि�न �ो जाती �ै हिकधम-, �ाजनीहित, समाज, समसमयियक आलेखों, भूगोल, हिवज्ञान जैसे हिव�यों प� जो लेखन �ै उसकीक्या शे्रणी �ो? क्या साहि�त्य की परि�यिध इतनी व्यापक �ै?

संस्कृत में एक शब्द �ै वांड्मय। भा�ा के माध्यम से जो कुछ भी क�ा गया, व� वांड्मय �ै।साहि�त्य के संदभ- में संस्कृत की इस परि�भा�ा में मम- �ै – शब्दार्थोD सहि�तौ काव्यम। य�ा ँशब्द औ�अर्थो- के सार्थो भाव की आवश्यकता मानी गयी �ै। इसी परि�भा�ा को व्यापक क�ते हुए संस्कृत के �ीएक आचाय- हिवश्वनार्थो म�ापात्र नें “साहि�त्य दप-ण” नामक ग्रंर्थो चिलख क� “साहि�त्य” शब्द कोव्यव�ा� में प्रचचिलत हिकया। संस्कृत के �ी एक आचाय- कंुतक व्याख्या क�ते �ैं हिक जब शब्द औ�अर्थो- के बीच सुन्द�ता के चिलये स्पधा- या �ोड लगी �ो, तो साहि�त्य की सृयिO �ोती �ै। केवलसंस्कृतहिनष्ठ या क्लिक्लO चिलखना �ी साहि�त्य न�ीं �ै न �ी अनर्थो-क तुकबंदी साहि�त्य क�ी जा सकेगी।व� भावहिव�ीन �चना जो छंद औ� मीट� के अनुमापों में शतप्रहितशत स�ी भी बै�ती �ो, वैसी �ीकांहित�ीन �ैं जैसे अप�ान्� में जुगनू। अर्थोा-त, भाव हिकसी सृजन को व� ग��ायी प्रदान क�ते �ैं जोहिकसी �चना को साहि�त्य की परि�यिध में लाता �ै। हिकतनी सादगी से हिनदा फ़ाज़ली क� जाते �ैं

मैं �ोया प�देस में, भीगा माँ का प्या�दुख नें दुख से बात की, हिबन चिचट्ठी हिबन ता�।

य�ाँ शब्द औ� अर्थो- के बीच सादगी की स्पर्थोा- �ै किकंतु भाव इतने ग��े हिक �ोम �ोम से इस सृजनको म�सूस हिकया जा सकता �ै। य�ी साहि�त्य �ै। साहि�त्य शब्द की ची�-फाड क�ने प� एक औ�छुपा हुआ आयाम दीख पडता �ै व� �ै इसका सामाजिजक आयाम। बहुत जो� दे क� एक परि�भा�ाकी जाती �ै हिक “साहि�त्य समाज का दप-ण �ै”। �चनाका� अपने सामाजिजक स�ोका�ों से हिवमुक्त न�ीं�ो सकता, य�ी का�ण �ै हिक साहि�त्य अपने समय का इहित�ास बनता चला जाता �ै। अपने समय प� तीखे �ो क� दुष्यंत कुमा� चिलखते �ैं:

क�ा ँतो तय र्थोा च�ाग़ाँ �� एक घ� के चिलयेक�ा ँच�ाग़ मयस्स� न�ीं श�� के चिलये।

न �ो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगेये लोग हिकतने मुनाचिसब �ैं इस सफ़� के चिलये।

�ामधा�ी सिसं� ‘ठिदनक�’ की हिनम्नचिलखिखत अम� पंचिक्तयाँ, साहि�त्य के इस आयाम का अनुपम उदा��ण �ैं:

आ�ती चिलये तू हिकसे ढंूढता �ै मू�ख,मजिन्द�ों, �ाजप्रासादों में, त�खानों में?देवता क�ीं सड़कों प� हिगट्टी तोड़ ��े,देवता यिमलेंगे खेतों में, खचिल�ानों में।फावडे़ औ� �ल �ाजदण्ड बनने को �ैं,धूस�ता सोने से शंृ्रगा� सजाती �ै;दो �ा�,समय के �र्थो का घघ-�-नाद सुनो,सिसं�ासन खाली क�ो हिक जनता आती �ै

संक्षेप में “साहि�त्य” - शब्द, अर्थो- औ� भावनाओं की व� हित्रवेणी �ै जो जनहि�त की धा�ा के सार्थो उच्चादशj की ठिदशा में प्रवाहि�त �ै।साहि�त्य शब्द को परि�भाहि�त क�ना कठि�न �ै। जैसे पानी की आकृहित न�ीं, जिजस साँचे में डालो व�ढ़ल जाता �ै, उसी त�� का त�ल �ै य� शब्द। कहिवताा, क�ानी, नाटक, हिनबंध, रि�पोता-ज, जीवनी,�ेखाचिचत्र, यात्रा-वृतांत, समालोचना बहुत से साँचे �ैं। परि�भा�ा इस चिलये भी कठि�न �ो जाती �ै हिकधम-, �ाजनीहित, समाज, समसमयियक आलेखों, भूगोल, हिवज्ञान जैसे हिव�यों प� जो लेखन �ै उसकीक्या शे्रणी �ो? क्या साहि�त्य की परि�यिध इतनी व्यापक �ै?

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संस्कृत में एक शब्द �ै वांड्मय। भा�ा के माध्यम से जो कुछ भी क�ा गया, व� वांड्मय �ै।साहि�त्य के संदभ- में संस्कृत की इस परि�भा�ा में मम- �ै – शब्दार्थोD सहि�तौ काव्यम। य�ा ँशब्द औ�अर्थो- के सार्थो भाव की आवश्यकता मानी गयी �ै। इसी परि�भा�ा को व्यापक क�ते हुए संस्कृत के �ीएक आचाय- हिवश्वनार्थो म�ापात्र नें “साहि�त्य दप-ण” नामक ग्रंर्थो चिलख क� “साहि�त्य” शब्द कोव्यव�ा� में प्रचचिलत हिकया। संस्कृत के �ी एक आचाय- कंुतक व्याख्या क�ते �ैं हिक जब शब्द औ�अर्थो- के बीच सुन्द�ता के चिलये स्पधा- या �ोड लगी �ो, तो साहि�त्य की सृयिO �ोती �ै। केवलसंस्कृतहिनष्ठ या क्लिक्लO चिलखना �ी साहि�त्य न�ीं �ै न �ी अनर्थो-क तुकबंदी साहि�त्य क�ी जा सकेगी।व� भावहिव�ीन �चना जो छंद औ� मीट� के अनुमापों में शतप्रहितशत स�ी भी बै�ती �ो, वैसी �ीकांहित�ीन �ैं जैसे अप�ान्� में जुगनू। अर्थोा-त, भाव हिकसी सृजन को व� ग��ायी प्रदान क�ते �ैं जोहिकसी �चना को साहि�त्य की परि�यिध में लाता �ै। हिकतनी सादगी से हिनदा फ़ाज़ली क� जाते �ैं

मैं �ोया प�देस में, भीगा माँ का प्या�दुख नें दुख से बात की, हिबन चिचट्ठी हिबन ता�।

य�ाँ शब्द औ� अर्थो- के बीच सादगी की स्पर्थोा- �ै किकंतु भाव इतने ग��े हिक �ोम �ोम से इस सृजनको म�सूस हिकया जा सकता �ै। य�ी साहि�त्य �ै। साहि�त्य शब्द की ची�-फाड क�ने प� एक औ�छुपा हुआ आयाम दीख पडता �ै व� �ै इसका सामाजिजक आयाम। बहुत जो� दे क� एक परि�भा�ाकी जाती �ै हिक “साहि�त्य समाज का दप-ण �ै”। �चनाका� अपने सामाजिजक स�ोका�ों से हिवमुक्त न�ीं�ो सकता, य�ी का�ण �ै हिक साहि�त्य अपने समय का इहित�ास बनता चला जाता �ै। अपने समय प� तीखे �ो क� दुष्यंत कुमा� चिलखते �ैं:

क�ा ँतो तय र्थोा च�ाग़ाँ �� एक घ� के चिलयेक�ा ँच�ाग़ मयस्स� न�ीं श�� के चिलये।

न �ो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगेये लोग हिकतने मुनाचिसब �ैं इस सफ़� के चिलये।

�ामधा�ी सिसं� ‘ठिदनक�’ की हिनम्नचिलखिखत अम� पंचिक्तयाँ, साहि�त्य के इस आयाम का अनुपम उदा��ण �ैं:

आ�ती चिलये तू हिकसे ढंूढता �ै मू�ख,मजिन्द�ों, �ाजप्रासादों में, त�खानों में?देवता क�ीं सड़कों प� हिगट्टी तोड़ ��े,देवता यिमलेंगे खेतों में, खचिल�ानों में।फावडे़ औ� �ल �ाजदण्ड बनने को �ैं,धूस�ता सोने से शंृ्रगा� सजाती �ै;दो �ा�,समय के �र्थो का घघ-�-नाद सुनो,सिसं�ासन खाली क�ो हिक जनता आती �ै

संक्षेप में “साहि�त्य” - शब्द, अर्थो- औ� भावनाओं की व� हित्रवेणी �ै जो जनहि�त की धा�ा के सार्थो उच्चादशj की ठिदशा में प्रवाहि�त �ै।साहि�त्य शब्द को परि�भाहि�त क�ना कठि�न �ै। जैसे पानी की आकृहित न�ीं, जिजस साँचे में डालो व�ढ़ल जाता �ै, उसी त�� का त�ल �ै य� शब्द। कहिवताा, क�ानी, नाटक, हिनबंध, रि�पोता-ज, जीवनी,�ेखाचिचत्र, यात्रा-वृतांत, समालोचना बहुत से साँचे �ैं। परि�भा�ा इस चिलये भी कठि�न �ो जाती �ै हिकधम-, �ाजनीहित, समाज, समसमयियक आलेखों, भूगोल, हिवज्ञान जैसे हिव�यों प� जो लेखन �ै उसकीक्या शे्रणी �ो? क्या साहि�त्य की परि�यिध इतनी व्यापक �ै?

संस्कृत में एक शब्द �ै वांड्मय। भा�ा के माध्यम से जो कुछ भी क�ा गया, व� वांड्मय �ै।साहि�त्य के संदभ- में संस्कृत की इस परि�भा�ा में मम- �ै – शब्दार्थोD सहि�तौ काव्यम। य�ा ँशब्द औ�अर्थो- के सार्थो भाव की आवश्यकता मानी गयी �ै। इसी परि�भा�ा को व्यापक क�ते हुए संस्कृत के �ीएक आचाय- हिवश्वनार्थो म�ापात्र नें “साहि�त्य दप-ण” नामक ग्रंर्थो चिलख क� “साहि�त्य” शब्द कोव्यव�ा� में प्रचचिलत हिकया। संस्कृत के �ी एक आचाय- कंुतक व्याख्या क�ते �ैं हिक जब शब्द औ�अर्थो- के बीच सुन्द�ता के चिलये स्पधा- या �ोड लगी �ो, तो साहि�त्य की सृयिO �ोती �ै। केवलसंस्कृतहिनष्ठ या क्लिक्लO चिलखना �ी साहि�त्य न�ीं �ै न �ी अनर्थो-क तुकबंदी साहि�त्य क�ी जा सकेगी।व� भावहिव�ीन �चना जो छंद औ� मीट� के अनुमापों में शतप्रहितशत स�ी भी बै�ती �ो, वैसी �ीकांहित�ीन �ैं जैसे अप�ान्� में जुगनू। अर्थोा-त, भाव हिकसी सृजन को व� ग��ायी प्रदान क�ते �ैं जोहिकसी �चना को साहि�त्य की परि�यिध में लाता �ै। हिकतनी सादगी से हिनदा फ़ाज़ली क� जाते �ैं

मैं �ोया प�देस में, भीगा माँ का प्या�दुख नें दुख से बात की, हिबन चिचट्ठी हिबन ता�।

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य�ाँ शब्द औ� अर्थो- के बीच सादगी की स्पर्थोा- �ै किकंतु भाव इतने ग��े हिक �ोम �ोम से इस सृजनको म�सूस हिकया जा सकता �ै। य�ी साहि�त्य �ै। साहि�त्य शब्द की ची�-फाड क�ने प� एक औ�छुपा हुआ आयाम दीख पडता �ै व� �ै इसका सामाजिजक आयाम। बहुत जो� दे क� एक परि�भा�ाकी जाती �ै हिक “साहि�त्य समाज का दप-ण �ै”। �चनाका� अपने सामाजिजक स�ोका�ों से हिवमुक्त न�ीं�ो सकता, य�ी का�ण �ै हिक साहि�त्य अपने समय का इहित�ास बनता चला जाता �ै। अपने समय प� तीखे �ो क� दुष्यंत कुमा� चिलखते �ैं:

क�ा ँतो तय र्थोा च�ाग़ाँ �� एक घ� के चिलयेक�ा ँच�ाग़ मयस्स� न�ीं श�� के चिलये।

न �ो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगेये लोग हिकतने मुनाचिसब �ैं इस सफ़� के चिलये।

�ामधा�ी सिसं� ‘ठिदनक�’ की हिनम्नचिलखिखत अम� पंचिक्तयाँ, साहि�त्य के इस आयाम का अनुपम उदा��ण �ैं:

आ�ती चिलये तू हिकसे ढंूढता �ै मू�ख,मजिन्द�ों, �ाजप्रासादों में, त�खानों में?देवता क�ीं सड़कों प� हिगट्टी तोड़ ��े,देवता यिमलेंगे खेतों में, खचिल�ानों में।फावडे़ औ� �ल �ाजदण्ड बनने को �ैं,धूस�ता सोने से शंृ्रगा� सजाती �ै;दो �ा�,समय के �र्थो का घघ-�-नाद सुनो,सिसं�ासन खाली क�ो हिक जनता आती �ै

संक्षेप में “साहि�त्य” - शब्द, अर्थो- औ� भावनाओं की व� हित्रवेणी �ै जो जनहि�त की धा�ा के सार्थो उच्चादशj की ठिदशा में प्रवाहि�त �ै।