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पपपपपपपप

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  • पपपपपपपप

  • कथा-कम

    पतु-पेम : 3 इजजत का खनू: 10

    होली की छटुी : 20 नादान दोसत : 35

    2

  • पपपपप-पपपपप बू चैतनयादास ने अथरशासत खबू पढा था, और कवेल पढा ही नही था, उसका यथायोगय

    वयाहार भी वे करते थे। वे वकील थे, दो- तीन गावो मे उनक जमीदारी भी थी, बैक मे भी कुछ रपये थे। यह सब उसी अथरशासत के जान का फल था। जब कोई खचर सामने आता

    तब उनके मन मे सवाभावत: पश होता था- इससे सवयं मेरा उपकार होगा या िकसी अनय पुरष का? यिद दो मे से िकसी का कुछ भी उपहार न होता तो वे बडी िनदरयता से उस खचर का गला

    ‘ ’ दबा देते थे। वयथर को वे िवष के समाने समझते थे। अथरशासत के िसदनत उनके जीवन- सतमभ हो गये थे।

    बा

    बाबू साहब के दो पुत थे। बडे का नाम पभुदास था, छोटे का िशवदास। दोनो कालेज मे पढते थे। उनमे कवेल एक शेणी का अनतर था। दोनो ही चुतर, होनहार युवक थे। िकनतु

    पभुदास पर िपता का सनेह अिधक था। उसमे सदुतसाह की माता अिधक थी और िपता को उसकी जात से बडी- बडी आशाए ं थी। वे उसे िवदोनित के िलए इगंलैणड भेजना चाहते थे।

    उसे बैिरसटर बनाना उनके जीवन की सबसे बडी अिभलाषा थी। २

    नतु कुछ ऐसा संयोग हुआ िक पभादास को बी०ए० की परीका के बाद जवर आने लगा। डाकटरो की दवा होने लगी। एक मास तक िनतय डाकटर साहब आते रहे, पर

    जवर मे कमी न हुई दसूरे डाकटर का इलाज होने लगा। पर उससे भी कुछ लाभ न हुआ। पभुदास िदनो िदन कीण होता चला जाता था। उठने- बैठने की शिकत न थी यहा तक िक

    परीका मे पथम शेणी मे उतीणर होने का शुभ- समबाद सुनकर भी उसक चेहरे पर हषर का कोई िचनहृ न िदखाई िदया । वह सदवै गहरी िचनजा मे डबुा रहाता था । उसे अपना जीवन बोझ सा जान पडने लगा था । एक रोज चैतनयादास ने डाकटर साहब से पछूा यह

    ाा ााा कयाा ब ा त ह ै ि क द ो म ह ी न ेहोगयेऔरअभीतकदवाकोईअसरनहीहुआ?

    िक

    डाकटर साहब ने सनदेहजनक उतर िदया- मै आपको संशय मे नही डालना चाहता । मेरा अनुमान है िक यह टयबुरकयलुािसस है ।

    – चैतनयादास ने वयग होकर कहा तपेिदक ? डाकटर - जी हा उसके सभी लकण िदखायी देते है।

    –चैतनयदास ने अिवशास के भाव से कहा मानो उनहे िवसमयकारी बात सुन पडी हो तपेिदक हो गया !

    डाकटर ने खेद पकट करते हुए कहा- यह रोग बहुत ही गुपतरीित सेशरीर मे पवशे करता है।

    – चैतनयदास मरेे खानदान मे तो यह रोग िकसी को न था। – डाकटर समभव ह,ै िमतो से इसके जमर ( कीटाणु ) िमले हो।

    चैतनयदास कई िमनट तक सोचने के बाद बोले- अब कया करना चािहए । डाकटर - दवा करते रिहये । अभी फेफडो तक असर नही हुआ है इनके अचछे होने

    की आशा है । – चैतनयदास आपके िवचार मे कब तक दवा का असर होगा?

    – डाकटर िनशय पवूरक नही कह सकता । लेिकन तीन चार महीने मे वे सवसथ हो जायेगे । जाडो मे इसरोग का जोर कम हो जाया करता है ।

    – चैतनयदास अचछे हो जाने पर ये पढने मे पिरशम कर सकेगे ? – डाकटर मानिसक पिरशम के योगय तो ये शायद ही हो सके।

    – चैतनयदास िकसी सेनेटोिरयम ( पहाडी सवासथयालय) मे भेज दूँ तो कैसा हो? डाकटर - बहुत ही उतम ।

    चैतनयदास तब ये पणूररीित से सवसथ हो जाएगंे?3

  • डाकटर - हो सकते ह,ै लेिकन इस रोग को दबा रखने के िलए इनका मानिसक पिरशम से बचना ही अचछा है।

    – चैतनयदास नरैाशय भाव से बोले तब तो इनका जीवन ही नष हो गया। मी बीत गयी। बरसात के िदन आये, पभुदास की दशा िदनो िदन िबगडती गई। वह पडे- पडे बहुधा इस रोग पर की गई बडे बडे डाकटरो की वयाखयाए ं पढा करता था। उनक े अनुभवो से अपनी अवसथा की तुलना िकया करता था। उनके अनुभवो स अपनी अवसथा की

    – तुलना िकया करता । पहले कुछ िदनो तक तो वह अिसथरिचत सा हो गया था। दो चार िदन भी दशा संभली रहती तो पुसतके देखने लगता और िवलायत याता की चचा करता । दो चार िदन भीजवर का पकोप बढ जाता तो जीवन से िनराश हो जाता । िकनतु कई मास

    के पशात जब उसे िवशास हो गया िक इसरोग से मुकत होना किठन है तब उसने जीवन की भी िचनता छोड दी पथयापथय का िवचार न करता , घरवालो की िनगाह बचाकर

    औषिधया जमीन पर िगरा देता िमतोके साथ बैठकर जी बहलाता। यिद कोई उससे सवासथय केिवषय मे कुछ पछूता तोिचढकर मुंह मोड लेता । उसके भावो मे एक शािनतमय उदासीनता

    आ गई थी, और बातो मेएक दाशरिनक ममरजता पाई जाती थी । वह लोक रीित और सामािजक पथाओं पर बडी िनभीकता से आलोचनारएं िकया करता । यदिप बाबू चैतनयदास

    – के मन मे रह रहकर शंका उठा करती थी िक जब पिरणाम िविदत ही है तब इस पकार धन का अपवयय करने से कया लाभ तथािप वेकुछ तो पुत- पेम और कुछ लोक मत के भय से धैयर के साथ् दवा दपरन करतेक जाते थे ।

    जाडे का मौसम था। चैतनयदास पुत के िसरहाने बैठे हुए डाकटर साहब की ओर पशातमक दृिष से देख रहे थे। जब डाकटर साहब टेमपरचर लेकर ( थमामीटर लगाकर )

    कुसी पर बैठे तब चैतनयदास ने पछूा- अब तो जाडा आ गया। आपको कुछ अनतर मालमू होता है ?

    – डाकटर िबलकलु नही , बिलक रोग और भी दुससाधय होता जाता है। – चैतनयदास ने कठोर सवर मे पछूा तब आप लोग कयो मुझे इस भम मे डाले हुए थे

    िकजाडे मे अचछे हो जायेगे ? इस पकार दसूरो की सरलता का उपयोग करना अपना मतलब साधने का साधन हो तो हो इसे सजजनताकदािप नही कह सकते।

    डाकटर ने नमता से कहा- ऐसी दशाओं मे हम कवेल अनुमान कर सकते है। और अनुमान सदवै सतय नही होते। आपको जेरबारी अवशय हुई पर मै आपको िवशास िदलाता हूं

    िक मेरी इचछा आपको भम मे डालने के नही थी । िशवादास बडे िदन की छुिटटयो मे आया हुआ था , इसी समय विह कमरे मे आ गया

    – और डाकटर साहब से बोला आप िपता जी की किठनाइयो का सवयं अनुमान कर सकते है । अगर उनकी बात नागवार लगी तो उनहे कमा कीिजएगा ।

    चैतनयदास ने छोटे पतु की ओर वातसलय की दृिष से देखकर कहा- तुमहे यहा आने की जररत थी? मै तुमसे िकतनी बार कह चुका हूँ िक यहॉँआया करो । लेिकन तुमको सबर ही नही होता ।

    िशवादास ने लिजजत होकर कहा- मै अभी चला जाता हूँ। आप नाराज न हो । मै केवल डाकटर साहब से यह पछूना चाहताथा िक भाई साहब के िलए अब कया करना चािहए

    । डाकटर साहब ने कहा- अब केवल एकही साधनऔर है इनहे इटली के िकसी

    सेनेटािरयम मे भेज देना चािहये । जचैतनयदास ने सजग होकर पछूा- िकतना खचर होगा? ‘ जयादा स जयादा तीन हजार

    । साल भसा रहना होगा? िनशय है िक वहा से अचछे होकर आवेगे ।

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  • जी नही यहातो यह भयकंर रोग है साधारण बीमारीयो मे भी कोई बात िनशय रप से ‘नही कही जा सकती ।

    इतना खचर करनेपर भी वहा सेजयो के तयो लौटा आये तो? तो ईशार कीइचछा। आपको यह तसकीन हो जाएगी िक इनके िलए मै जो कुछ कर

    सकता था। कर िदया । 4

    धी रात तक घर मे पभुदास को इटली भेजने के पसतवा पर वाद- िववाद होता रहा । चैतनयदास का कथन था िक एक संिदगय फल केिलए तीन हजार का

    खचर उठाना बुिदमता के पितकूल है। िशवादास फल उनसे सहमत था । िकनतु उसकी माता इस पसताव का बडी ढृझता के साथ िवरोध कर रही थी । अतं मे माता की िधकारो

    का यह फल हुआ िक िशवादास लिजजत होकर उसके पक मे हो गया बाबू साहब अकेले रह गये । तपेशरी ने तकर से कामिलया । पित केसदभावो को पजविलत करेन की चेषा की । धन की नशरात कीलोकोिकतया कही इन ं शसतो से िवजय लाभ न हुआ तो अशु बषा करने – लगी । बाबू साहब जल िबनदुओ क इस शर पहार के सामने न ठहर सके । इन शबदो मे हार सवीकार की- अचछा भाई रोओं मत। जो कुछ कहती हो वही होगा।

    – तपेशरी तो कब ?‘ ’रपये हाथ मे आने दो ।‘ तो यह कयो नही कहते िकभेजना ही नही चाहत?े’

    भेजना चाहता हूँ िकनतु अभी हाथ खाली है। कया तुम नही जानती?’‘ बैक मे तो रपये ह?ै जायदाद तो है? दो- तीन हजार का पबनध करना ऐसा कया किठन

    ह?ै’ चैतनयदास ने पती को ऐसी दृिष से देखा मानो उसे खाजायेगे और एक कण कबेाद

    – बोले िबलकूल बचचो कीसी बाते करतीहो। इटली मे कोई संजीवनी नही रकखी हुई है जो तुरनत चमतकार िदखायेगी । जब वहा भी केवल पारबध ही की परीका करनी है तो सावधानी

    से कर लेगे । पवूर परूषो की संिचत जायदाद और रकखहुए रपये मै अिनिशत िहत की आशा पर बिलदान नही कर सकता।

    – तपेशरी ने डरते डरते कहा- आिखर , आधा िहससा तो पभुदास का भी ह?ै – बाबू साहब ितरसकार करते हुए बोले आधा नही, उसमे मै अपना सवरसव दे देता, जब

    उससे कुछ आशा होती , वह खानदान की मयादा मै और ऐशयर बढाता और इस लगाये। हुए लगाये हुए धन केफलसवरप कुछ कर िदखाता । मै केवल भावकुता के फेर मे पडकर धन

    का हास नही कर सकता । तपेशीर अवाक रह गयी। जीतकर भी उसकी हार हईु ।

    इस पसताव केछ: महीने बाद िशवदास बी. ए पास होगया। बाबू चैततयदास नेअपनी जमीदरी केदो आने बनधक रखकर काननू पढने के िनिमत उसे इगंलडै भेजा ।उसे बमबई

    तक खुद पहुँचाने गये । वहा से लौटेतो उनके अतं: करण मे सिदचछायो से पिरिमत लाभ होने की आशा थी उनके लौटने केएक सपताह पीछे अभागा पभुदास अपनी उचच अिभलाषओं को िलये हुए परलोक िसधारा ।

    5 – तनयदास मिणकिणरका घाट पर अपने समबिनधयो केसाथ बैठे िचता जवाला की ओर

    – देख रहे थे ।उनके नेतो से अशुधारा पवािहत हो रही थी । पुत पेम एक कण के िलए – अथर िसदात पर गािलब हो गयाथा। उस िवरकतावसथा मे उनके मन मे यह कलपना उठ रही थी । - समभव है, इटली जाकर पभुदास सवसथ हो जाता । हाय! मैने तीन हजार का मुंह देखा और पतु रत को हाथ से खो िदया। यह कलपना पितकण सजग होती थी और

    उनको गलािन, शोक और पशाताप के बाणो से बेध रही थी । रह रहकर उनके हृदय मे बेदना – कीशुल सी उठती थी । उनके अनतर की जवाला उस िचता जवाला से कम दगधकािरणी न

    चै

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  • थी। अकसमात उनके कानो मे शहनाइयो की आवाज आयी। उनहोने आंख ऊपर उठाई तो मनुषयो का एक समूह एक अथी के साथ आता हुआ िदखाई िदया। वे सब के सब ढोल

    बजात,े गात,े पुषय आिद की वषा करते चले आते थे । घाट पर पहुँचकर उनहोने अथी उतारी और िचता बनाने लगे । उनमे से एक युवक आकर चैतनयदास के पास खडा हो गया। बाबू – साहब ने पछूा िकस मुहलले मे रहते हो?

    यवुक ने जवाब िदया- हमारा घर दहेात मे है । कल शाम को चले थे । ये हमारे बाप थे । हम लोग यहा कम आते ह,ै पर दादा की अिनतम इचछा थी िक हमे मिणकिणरका घाट पर ले जाना ।

    चैतनयदास - येसब आदमी तुमहारे साथ ह?ै यवुक - हॉँ और लोग पीछे आते है । कई सौ आदमी साथ आये है। यहा तक आने

    मे सकैडो उठ गयपेर सोचता हूँ िकबढूे िपता की मुिकत तो बन गई । धन और ही िकसिलए ।

    चैतनयदास- उनहे कया बीमारी थी ? यवुक ने बडी सरलता से कहा , मानो वह अपने िकसी िनजी समबनधी से बात कर

    रहा हो।- बीमार का िकसी को कुछ पता नही चला। हरदम जवर चढा रहता था। सखूकर काटा हो गये थे । िचतकूट हिरदार पयाग सभी सथानो मे ले लेकर घमूे । वैदो ने जो कुछ कहा उसमे कोई कसर नही की।

    – इतने मे युवक का एक और साथी आ गया। और बोला साहब , मुंह देखा बात नही, नारायण लडका दे तो ऐसा दे । इसने रपयो को ठीकरे समझा ।घर की सारी पूंजी

    िपता की दवा दार मे सवाहा कर दी । थोडी सी जमीन तक बेच दी पर काल बली के सामने आदमी का कया बस है। – यवुक ने गदगद सवर से कहा भयैा, रपया पैसा हाथ का मैल है। कहा आता है कहा जाता

    ह,ै मुनषय नही िमलता। िजनदगानी है तो कमा खाउंगा। पर मन मे यह लालसा तो नही रह गयी िक हाय! यह नही िकया, उस वैद के पास नही गया नही तो शायद बच जाते। हम तो कहते है िक कोई हमारा सारा घर दार िलखा ले केवल दादा को एक बोल बुला दे ।इसी

    – माया मोह का नाम िजनदगानी है , नही तो इसमे कया रकखा है? धन से पयारी जान जान से पयारा ईमान । बाबू साहब आपसे सच कहता हूँ अगर दादा के िलए अपने बस की कोई बात उठा रखता तो आज रोते न बनता । अपना ही िचत अपने को िधकारता । नही तो मुझे इस घडी ऐसा जान पडता है िक मेरा उदार एक भारी ऋण से हो गया।

    उनकी आतमा सुख और शािनत से रहेगीतो मेरा सब तरह कलयाण ही होगा। बाबू चैतनयादास िसर झुकाए ये बाते सुन रहे थे ।एक - एक शबद उनके हृदय मे शर

    के समान चभुता था। इस उदारता के पकाश मे उनहे अपनी हृदय-हीनता, अपनी आतमशुनयता अपनी भौितकता अतयनत भयकंर िदखायी देती थी । उनके िचत परइस

    घटना का िकतना पभाव पडा यह इसी से अनुमान िकया जा सकता है िक पभुदास के अनतयेिष संसकार मे उनहोने हजारो रपये खचर कर डाले उनके सनतपत हृदय की शािनत के

    िलए अब एकमात यही उपाय रह गया था।‘ ’ सरसवती , जून, 1932

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  • पपपप पप पपपप़़़़़़़़़़़़़़़ ने कहािनयो और इितहासो मे तकदीर के उलट फेर की अजीबो- गरीब दासताने पढी है । शाह को िभखमंगा और िभखमंगे को शाह बनते देखा है तकदीर एक िछपा हुआ भेद

    है । गािलयो मे टुकडे चुनती हुई औरते सोने के िसंहासन पर बैठ गई और वह ऐशयर के मतवाले िजनके इशारे पर तकदीर भी िसर झुकाती थी , आन की शान मे चील कौओं का िशकार बन गये है।पर मेरे सर पर जो कछु बीती उसकी नजीर कही नही िमलती आह उन

    घटानाओं को आज याद करतीहूं तो रोगटे खडे हो जाते है ।और हरैत होती है । िक अब तक मै कयो और कयोकर िजनदा हूँ । सौनदयर लालसाओं का सतोत है । मेरे िदल मे कया लालसाए ं न थी पर आह , िनषूर भागय के हाथो मे िमटी । मै कया जानती थी िक वह

    आदमी जो मेरी एक- एक अदा पर कबुान होता था एक िदन मुझे इस तरह जलील और बबाद करेगा ।

    मै

    आज तीन साल हुए जब मैने इस घर मे कदम रकखा उस वकत यह एक हरा भरा चमन था ।मै इस चमन की बुलबलू थी , हवा मे उडती थीख् डािलयो पर चहकती थी , फूलो पर सोती थी । सईद मेरा था। मै सईद की थी । इस संगमरमर के हौज के िकनारे हम मुहबबत के पासे खेलते थे । - – तुम मेरी जान हो। मै उनसे कहती थी तुम मेरे िदलदार हो । हमारी जायदाद

    लमबी चौडी थी। जमाने की कोई िफक, िजनदगी का कोई गम न था । हमारे िलए िजनदगी सशरीर आननद एक अननत चाह और बहार का ितिलसम थी, िजसमे मुरादे िखलती थी ।

    ाा और ाखुिशयॉँ हसंती थी जमाना हमारी इचछाओं पर चलने वाला था। आसमान हमारी भलाई चाहता था। और तकदीर हमारी साथी थी।

    एक िदन सईद ने आकर कहा- मेरी जान , मै तुमसे एक िवनती करने आया हूँ । देखना इन मुसकराते हुए होठो पर इनकार का हफर न आये । मै चाहता हूँ िक अपनी सारी

    िमलिकयत, सारी जायदाद तुमहारे नाम चढवा दूँ मरेे िलए तुमहारी मुहबबत काफी है। यही मरे े िलए सबसे बडी नेमत है मै अपनी हकीकत को िमटा देना चाहता हूँ । चाहता हूँ िक

    तुमहारे दरवाजे का फकीर बन करके रहूँ । तुम मेरी नरूजहॉँ बन जाओं ; मै तुमहारा सलीम बनूंगा , और तुमहारी मंूगे जैसी हथेली के पयालो पर उम बसर करंगा।

    मेरी आंखे भर आयी। खुिशंया चोटी पर पहुँचकर आंसु की बूंद बन गयी।2

    प र अभी परूा साल भी न गुजरा था िक मुझे सईद के िमजाज मे कुछ तबदीली नजर आने लगी । हमारे दरिमयान कोई लडाई- झगडा या बदमजगी न हुई थी मगर अब वह सईद न था। िजसे एक लमहे के िलए भी मेरी जुदाई दभूर थी वह अब रात की रात गयाब रहता

    ।उसकी आंखो मे पेम की वह उंमग न थी न अनदाजो मे वह पयास , न िमजाज मे वह गमी। कुछ िदनो तक इस रखपेन ने मुझे खबू रलाया। मुहबबत के मजे याद आ आकर

    तडपा देते । मैने पढा थािक पेम अमर होता है ।कया, वह सतोत इतनी जलदी सखू गया? आह, नही वह अब िकसी दसूरे चमन को शादाब करता था। आिखर मै भी सईद से आंखे

    चरूाने लगी । बेिदली से नही, िसफर इसिलए िक अब मुझे उससे आंखे िमलाने की ताव न थी।उस देखते ही महुबबत के हजारो किरशमे नजरो केसामने आ जाते और आंखे भर आती

    – । मरेा िदल अब भी उसकी तरफ िखचंता था कभी कभी बेअिखतयार जी चाहता िक – उसके पैरो पर िगरं और कहूं मेरे िदलदार , यह बरेहमी कयो ? कया तुमने मुझसे मुहं फरे

    िलया है । मुझसे कया खता हुई ? लेिकन इस सवािभमान का बरुा हो जो दीवार बनकर रासते मे खडा हो जाता ।

    यहा तक िक धीर- धीरे िदल मे भी मुहबबत की जगह हसद ने ले ली। िनराशा के धैयर ने िदल को तसकीन दी । मेरे िलए सईद अब बीते हुए बसनत का एक भलूा हुआ गीत था। िदल

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  • की गमी ठणडी हो गयी । पेम का दीपक बुझ गया। यही नही, उसकी इजजत भी मेरे िदल से रखसत हो गयी। िजस आदमी के पेम के पिवत मिनदर मे मैल भरा हुंआ होवह हरिगज इस योगय नही िक मै उसके िलए घुलूं और मरं ।

    एक रोज शाम के वकत मै अपने कमरे मे पलंग पर पडी एक िकससा पढ रही थी , तभी अचानक एक सनुदर सती मेरे कमरे मे आयी। ऐसा मालमू हूआ िक जैसे कमरा जगमगा उठा ।रप की जयोित ने दरो दीवार को रोशान कर िदया। गोया अभी सफेदी हईुहै उसकी

    अलंकृत शोभा, उसका िखला हुआ फूला जैसा लभुावना चेहरा उसकी नशीली िमठास, िकसी तारीफ करं मुझ पर एक रोब सा छा गया । मेरा रप का घमंड धलू मे िमल गया है। मै आशयर मे थी िक यह कौन रमणी है और यहा कयोकर आयी। बेअिखतयार उठी िक उससे

    िमलूं और पछूूं िक सईद भी मुसकराता हुआ कमरे मे आया मै समझ गयी िक यह रमणी उसकी पेिमका है। मरेा गवर जाग उठा । मै उठी जरर पर शान से गदरन उठाए हुए आंखो मे हुसन के

    रौब की जगह घृणा का भाव आ बैठा । मरेी आंखो मे अब वह रमणी रप की दवेी नही डसने वाली नािगन थी।मै िफर चारपाई पर बैठगई और िकताब खोलकर सामने रख ली- वह रमणी एक कण तक खडी मेरी तसवीरो को देखती रही तब कमरे से िनकली चलते वकत उसने एक बार मेरी तरफ देखा उसकी आंखो से अंगारे िनकल रहे थे । िजनकी िकरणो

    मे िहसंपितशोध की लाली झलक रही थी । मेरे िदल मे सवाल पैदा हुंआ- सईद इसे यहा कयो लाया? कया मेरा घमणड तोडने के िलए?

    3 यदाद पर मेरा नाम था पर वह केवल एक, भम था, उस परअिधकार परूी तरह सईद

    का था । नौकर भी उसीको अपना मािलक समझते थे और अकसर मेरे साथ िढठाई से पेश आते । मै सब केसाथ् िजनदगी केिदन काट रही थी । जब िदल मे उमंगे न रही तो पीडा कयो होती ?

    जा सावन का महीना था , काली घटा छायी हुई थी , और िरसिझम बूंदे पड रही थी ।

    ाा ाा बगीचे पर हसद का अंधरेा और िसहास दराखतोे प र ज ुंगनुओकीचमकऐसी मालमू होती थी । जैसे िक उनके मुंह से िचनगािरयॉँ जैसी आहे िनकल रही है । मै देर

    तक हसद का यह तमाशा देखती रही । कीडे एक साथ् चमकते थे और एक साथ् बझु जाते थे, गोया रोशानी की बाढछूेट रही है। मुझे भी झलूा झलूने और गाने का शौक हुआ।

    मौसम की हालते हसंद के मारे हुए िदलो परभरी अपना जादु कर जाती है । बगीचे मे एक गोल बगंला था। मै उसमे आयी और बरागदे की एक कडी मे झलूा डलवाकर झलूने लगी । मुझे आज मालमू हुआिक िनराशा मे भी एक आधयाितमक

    आननद होता है िजसकी हाल उसको नही मालमू िजसकी इचछाई पणूर है । मै चाव से मलार गान लगी सावन िवरह और शोक का महीना है । गीत मे एक िवयोगी । हृदय की गाथा की कथा ऐसे ददर भरे शबदो बयान की गयी थी िक बरबस आंखो से आंसू टपकने लगे । इतने मे बाहर से एक लालटेन की रोशनी नजर आयी। सईद दोनो चले आ रहेथे । हसीना ने मेरे पास आकर कहा- आज यहा नाच रगं की महिफल सजेगी और शराब के दौर

    चलेगे। – मैने घृणा से कहा मुबारक हो ।

    हसीना - बारहमासे और मलार कीताने उडेगी सािजनदे आ रहे है । – मै शौक से ।

    हसीना - तुमहारा सीना हसद से चाक हो जाएगा । सईद ने मुझेसे कहा- जुबैदा तुम अपने कमरे मे चली रही जाओ यह इस वकत आपे

    मे नही है। हसीना - – ने मेरी तरफ लाल लाल आखो िनकालकर कहा- मैतुमहे अपने परैो

    कीधलू के बराबर भी नही समझती ।

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  • – मुझे िफर जबत न रहा । अगडकर बोली और मै कया समझाती हूं एक कुितय, दुसरो की उगली हईु हिडडयो िचचोडती िफरती है ।

    अब सईद के भी तेवर बदले मरेी तरफ भयानक आंखो सेदेखकर बोले- जुबैदा , तुमहारे सर पर शैतान तो नही संवार है?

    सईद का यह जुमला मेरे िजगर मे चुभ गया, तपड उठी, िजन होठो से हमेशा मुहबबत और पयार कीबाते सुनी हो उनही से यह जहर िनकले और िबलकुल बकेसरू ! कया मै

    ऐसी नाचीज और हकीर हो गयी हूँ िक एक बाजार औरत भी मुझे छेडकर गािलया दे सकती है। और मेरा जबान खोलना मना! मेरे िदल मेसाल भर से जो बुखार हो रहाथा, वह उछल पडा ।मै झलूे से उतर पडी और सईद की तरफ िशकायता- भरी िनगाहो से देखकर – बोली शैतान मेरे सर पर सवार हो या तुमहारे सर पर, इसका फैसला तुम खुद कर सकते हो । सईद , मै तुमको अब तक शरीफ और गैरतवाला समझतीथी, तुम खुद कर सकते हो । बवेफाई की, इसका मलाला मुझे जरर था , मगर मैने सपनो मे भी यह न सोचा

    था िक तुम गरैत से इतने खाली हो िक हया- फरो शऔर त के पी छे मु झेइस तरह जली ज करोगे । इसका बदला तुमहे खुदा से िमलेगा।

    हसीना ने तेज होकर कहा- तू मुझे हया फरोश कहतीहै ?मै- बेशक कहतीहूँ।

    – सईद और मै बेगरैत हूँ . ? – मै बेशक ! बेगरैत ही नही शोबदबेाज , मकार पापी सब कुछ ।यह अलफाज बहुत

    िघनावने है लेिकन मेरे गुससे के इजहार के िलए काफी नही । मै यह बाते कह रही थी िक यकायक सईद केलमबे तगडे , हटटे कटटे नौकर ने मरेी

    दोनो बाहे पकड ली और पलक मारते भर मे हसीना ने झलेू की रिससया उतार कर मुझे बरामदे के एकलोहे केखमभे सबेाध िदया।

    इस वकत मरेे िदल मे कया खयाल आ रहे थे । यह याद नही पर मेरी आंखो के सामने अंधरेा छा गया था । ऐसा मालमू होताथा िक यह तीनो इसंान नही यमदतूहै गसूसे की

    जगहिदल मे डर समा गयाथा । इस वकत अगर कोई रौबी ताकत मरेे बनधनो को काट देती , मेरे हाथो मे आबदार खंजर देदेती तो भी तो जमीन पर बैठकर अपनी िजललत और

    बेकसी पर आंसु बहाने केिसवा और कुछ न कर सकती। मुझे खयाल आताथािक शायद खुदा की तरफ से मुझ परयह कहर नािजल हुआ है। शायद मरेी बेनमाजी और बेदीनी की

    यह सजा िमल रहा है। मै अपनी िपछली िजनदगी पर िनगाह डाल रही थी िक मुझसे कौन सी गलती हुई हौ िजसकी यह सजा है। मुझे इस हालत मे छोडकर तीनो सरूते कमरे

    मेचली गयी । मैने समझा मेरी सजा खतम हुई लेिकन कया यह सब मुझे यो ही बधा रकखेगे ? लौिडया मुझे इस हालत मे देख ले तो कया कहे? नही अब मैइस घर मे रहने क े कािबल ही नही ।मै सोच रही थी िक रिससया कयोकर खालूं मगर अफसोस मुझे न मालमू

    थािक अभी तक जो मेरी गित हुई है वह आने वाली बरेहिमयो का िसफर बयाना है । मैअब तक न जानती थीिक वह छोटा आदमी िकतना बेरहम , िकतना काितल है मै अपने िदल से ााबहस कररही थी िक अपनी इस िजललत मुझ पर कहा तक है अगर मैे हसीना की उन िदल जलाने वाली बातो को जबाव न देती तो कया यह नौबत , न आती ?

    आती और जरर आती। वहा काली नािगन मुझे डसने का इरादा करके चली , थी इसिलए उसने ऐसे िदलदुखाने वाले लहजे मे ही बात शुर की थी । मै गसुसे मे आकर उसको लान

    तान करँ और उसे मुझे जलील करने का बहाना िमल जाय। पानी जोरसे बरसने लगा, बौछारो से मेरा सारा शरीर तर हो गया था। सामने गहरा

    अंधेरा था। मै कान लगाये सुन रही थी िक अनदर कया िमसकौट हो रही है मगर मेह की सनसनाहट के कारण आवाजे साफ न सुनायी देती थी । इतने लालटेन िफर से बरामदे

    मेआयी और तीनो उरावनी सरूते िफर सामने आकर खडी हो गयी । अब की उस खनू परी

    9

  • के हाथो मे एक पतली सी कमची थी उसके तेवर देखकर मेरा खनू सदर हो गया । उसकी आंखो मे एक खनू पीने वाली वहशत एक काितल पागलपन िदखाई दे रहा था। मेरी

    – तरफ शरारत भरी नजरो सेदेखकर बोली बेगम साहबा , मै तुमहारी बदजबािनयो का ऐसा सबक देना चाहती हूं । जो तुमहे सारी उम याद रहे । और मेरे गुर ने बतलाया है िक कमची सेजयादा देर तक ठहरने वाला और कोई सबक नही होता ।

    यह कहकर उस जािलम ने मरेी पीठ पर एक कमची जोर से मारी। मै ितलिमया गयी मालमू हुआ । िक िकसी ने पीठ परआग की िचरगारी रख दी । मुझेसे जबत न हो सका

    मॉँ बाप ने कभी फूल की छडी से भीन मारा था। जोर से चीखे मार मारकर रोने लगी । सवािभमान , लजजा सब लुपत हो गयी ।कमची की डरावनी और रौशन असिलयत के सामने

    और भावनाए ं गायब हो गयी । उन िहनदु देिवयो क िदल शायद लोहे के होते होगे जो अपनी आन पर आग मे कुद पडती थी । मेरे िदल पर तो इस िदल पर तो इस वकत यही खयाल छाया हुआ था िक इस मुसीबत से कयोकर छटुकारा हो सईद तसवीर की तरह खामोश खडा था। मै उसक तरफ फिरयाद कीआंखे से देखकर बडे िवनती केसवर मे बोली

    – सईद खुदा क िलए मुझे इस जािलम सेबचाओ , मै तुमहारे परैो पडती हूँ ख्, तुम मुझे जहर दे दो, खंजर से गदरन काट लो लेिकन यह मुसीबत सहने की मुझमे ताब नही ।उन

    िदलजोइयो को याद करो, मेरी मुहबबत का याद करो, उसी क सदके इस वकत मुझे इस अजाब से बचाओ, खुदा तुमहे इसका इनाम देगा ।

    सईद इन बातो से कुछ िपघंला। हसीना की तरह डरी हुई आंखो से देखकर बोला- जरीना मेरे कहने से अब जाने दो । मेरी खाितर से इन पर रहम करो।

    जरीना तेर बदल कर बोली- तुमहारी खाितर से सब कुछ कर सकती हूं, गािलया नही बदाशत कर सकती।

    – सईद कया अभी तुमहारे खयाल मे गािलयो की काफी सजा नही हुई?जरीना- तब तो आपने मेरी इजजत की खबू कद की! मैने रािनयो से िचलमिचया उठवायी ह,ै यह बेगम साहबा है िकस खयाल मे? मै इसे अगर

    कुछ छरुी से काटूँ तब भजी इसकी बदजबािनयो की काफी सजा न होगी।सईद- मुझसे अब यह जुलम नही देखा जाता।जरीना- आंखे बनद कर लो।सईद- जरीना, गसुसा न िदलाओ, मै कहता हू,ँ अब इनहे माफ करो।

    जरीना ने सईद को ऐसी िहकारत- भरी आंखो से देखा गोया वह उसका गलुाम है। खुदा जाने उस पर उसने कया मनतर मार िदया था िक उसमे खानदानी गैरत और बडाई ओ

    इनसािनयत का जरा भी एहसास बाकी न रहा था। वह शायद उसे गसुसे जैसे मदानास जजबे के कािबल ही न समझती थी। हुिलया पहचानने वाले िकतनी गलती करते है कयोिक िदखायी

    कुछ पडता है, अनदर कुछ होता है ! बाहर के ऐसे सनुदर रप के परदे मे इतनी बरेहमी, इतनी िनषरुता ! कोई शक नही, – रप हुिलया पहचानने की िवदा का दुशमन है। बोली अचछा तो

    अब आपको मुझ पर गसुसा आने लगा ! कयो न हो, आिखर िनकाह तो आपने बेगम ही से िकया है। मै तो हया- फरोश कुितया ही ठहरी ! सईद- तुम ताने देती हो और मुझसे यह खनू नही देखा जाता।

    – जरीना तो यह कमची हाथ मे लो, और इसे िगनकर सौ लगाओ। गसुसा उतर जाएगा, इसका यही इलाज है।

    – जरीना िफर वही मजाक।जरीना- नही, मै मजाक नही करती।

    सईद ने कमची लेने को हाथ बढाया मगर मालमू नही जरीना को कया शुबहा पैदा हुआ, उसने समझा शायद वह क मची को तोड कर फेक देगे। कमची हटा ली और बोली-

    अचछा मुझसे यह दगा ! तो लो अब मै ही हाथो की सफाई िदखाती हूँ। यह कहकर उसे बेददर

    10

  • ने मुझे बेतहाशा कमिचया मारना शुर की। मै ददर से ऐठं- ऐठंकर चीख रही थी। उसके पैरो पडती थी, िमनते करती थी, अपने िकये पर शिमनदा थी, दुआएं देती थी, पीर और पैगमबर का वासता देती थी, पर उस काितल को जरा भी रहम न आता था। सईद काठ के पुतले की तरह

    ददोिसतम का यह नजजारा आंखो से देख रहा था और उसको जोश न आता था। शायद मरेा बड-ेसे- बडे दुशमन भी मेरे रोने- धोने पर तरस खाता मरेी पीठ िछलकर लहू- लुहान हो गयी,

    जखम पडते थे, हरेक चोट आग के शोले की तरह बदन पर लगती थी। मालमू नही उसने मुझे िकतने दरे लगाये, यहा तक िक कमची को मुझ पर रहम आ गया, वह फटकर टूट

    गयी। लकडी का कलेजा फट गया मगर इनसान का िदल न िपघला।४

    झे इस तरह जलील और तबाह करके तीनो खबीस रहे वहा से रखसत हो गयी। सईद के नौकर ने चलते वकत मरेी रिससया खोल दी। मै कहा जाती ? उस घर मे कयोकर कदम रखती ?

    मु मेरा सारा िजसम नासरू हो रहा था लेिकन िदल नके फफोले उससे कही जयादा जान

    लेवा थे। सारा िदल फफोलो से भर उठा था। अचछी भावनाओं के िलए भी जगह बाकी न रही थी। उस वकत मै िकसी अंधे को कुएं मे िगरते देखती तो मुझे हसंी आती, िकसी यतीम का

    ददरनाक रोना सुनती तो उसका मुंह िचढाती। िदल की हालत मे एक जबदरसत इन् कालाब हो गया था। मुझे गुससा न था, गम न था, मौत की आरजू न थी, यहा तक िक बदला लेने की

    भावना न थी। उस इनतहाई िजललत ने बदला लनेे की इचछा को भी खतम कर िदया थरा। हालािक मै चाहती तो काननून सईद को िशकंजे मे ला सकती थी , उसे दाने- दाने के िलए

    तरसा सकती थी लेिकन यह बइेजजती, यह बेआबरई, यह पामाली बदले के खयाल के दायरे से बाहर थी। बस, िसफर एक चेतना बाकी थी और वह अपमान की चेतना थी। मै हमेशा के

    िलए जलील हो गयी। कया यह दाग िकसी तरह िमट सकता था ? हरिगज नही। हा, वह िछपाया जा सकता था और उसकी एक ही सरूत थी िक िजललत के काले गडडे मे िगर पडू ँ

    तािक सारे कपडो की िसयाही इस िसयाह दाग को िछपा दे। कया इस घर से िबयाबान अचछा नही िजसके पेदे मे एक बडा छेद हो गया हो? इस हालत मे यही दलील मुझ पर छा गयी। मैने

    अपनी तबाही को और भी मुकममल, अपनी िजललत को और भी गहरा, आने काले चेहरे को और ळभी काला करने का पका इरादा कर िलया। रात- भर मै वही पडी कभी ददर से

    कराहती और कभी इनही खयालात मे उलझती रही। यह घातक इरादा हर कण मजबतू से और भी मजबतू होता जाता था। घर मे िकसी ने मेरी खबर न ली। पौ फटते ही मै बागीचे से बाहर िनकल आयी, मालमू नही मेरी लाज- शमर कहा गायब हो गयी थी। जो शखस समुनदर मे गोते खा चुका हो उसे ताले- तलैयो का कया डर ? मै जो दरो- दीवार से शमाती थी, इस वकत शहर की गिलयो मे बधेडक चली जा रही थी- चोर कहा, वही जहा िजललत की कद है, जहा िकसी पर कोई हसंने वाला नही, जहा बदनामी का बाजार सजा हुआ है, जहा हया िबकती है

    और शमर लटुती है ! इसके तीसरे िदन रप की मंडी के एक अचछे िहससे मे एक ऊंचे कोठे पर बैठी हुई मै

    उस मणडी की सरै कर रही थी। शाम का वकत था, नीचे सडक पर आदिमयो की ऐसी भीड थी िक कंधे से कंधा िछलता था। आज सावन का मेला था, लोग साफ- सुथरे कपड पहने

    कतार की कतार दिरया की तरफ जा रहे थे। हमारे बाजार की बेशकीमती िजनस भी आज नदी के िकनारे सजी हुई थी। कही हसीनो के झलूे थे, कही सावन की मीत, लेिकन मुझे इस

    बाजार की सैर दिरया के िकनारे से जयादा पुरलतुफ मालमू होती थी, ऐसा मालमू होता है िक शहर की और सब सडके बनद हो गयी है, िसफर यही तगं गली खलुी हुई है और सब की िनगाहे कोठो ही की तरफ लगी थी , गोया वह जमीन पर नही चल रहे है, हवा मे उडना चाहत े

    है। हा, पढे- िलखे लोगो को मैने इतना बधेडक नही पाया। वह भी घरूते थे मगर कनिखयो से। अधेड उम के लोग सबसे जयादा बेधडक मालमू होते थे। शायद उनकी मंशा जवानी के

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  • जोश को जािहर करना था। बाजार कया था एक लमबा- चौडा िथयटेर था, लोग हसंी-िदललगी करते थे, लुतफ उठाने के िलए नही, हसीनो को सुनाने के िलए। मुंह दसूरी तरफ था, िनगाह िकसी दसूरी तरफ। बस, भाडो और नकालो की मजिलस थी।

    यकायक सईद की िफंटन नजर आयी। मै रउस पर कई बार सैर कर चुकी थी। सईद अचछे कपडे पहने अकडा हुआ बैठा था। ऐसा सजीला, बाका जवान सारे शहर मे न था,

    चेहर-े मोहरे से मदानापन बरसता था। उसकी आंख एक बारे मरेे कोठे की तरफ उठी और नीचे झुक गयी। उसके चेहरे पर मुदरनी- सी छा गयी जेसे िकसी जहरीले साप ने काट खाया हो। उसने कोचवान से कुछ कहा, दम के दम मे िफटन हवा हो गयी। इस वकत उसे

    देखकर मुझे जो देषपणूर पसनता हुई, उसके सामने उस जानलेवा ददर की कोई हकीकत न थी। मैने जलील होकर उसे जलील कर िदया। यक कटार कमिचयो से कही जयादा तेज थी। उसकी िहममत न थी िक अब मुझसे आंख िमला सके। नही, मैने उसे हरा िदया, उसे

    उम- भर के िदलए कैद मे डाल िदया। इस कालकोठरी से अब उसका िनकलना गैर-मुमिकन था कयोिक उसे अपने खानदान के बडपपन का घमणड था।

    दसूरे िदन भोर मे खबर िमली िक िकसी काितल ने िमजा सईद का काम तमाम कर िदया। उसकी लाश उसीर बागीचे के गोल कमरे मे िमली सीने मे गोली लग गयी थी। नौ बजे

    दसूरे खबर सुनायी दी, जरीना को भी िकसी ने रात के वकत़ कतल कर डाला था। उसका सर तन जुदा कर िदया गया। बाद को जाच- पडताल से मालमू हुआ िक यह दोनो वारदाते सईद के ही हाथो हुई। उसने पहले जरीना को उसके मकान पर कतल िकया और तब अपने

    घर आकर अपने सीने मे गोली मारी। इस मदाना गरैतमनदी ने सईद की मुहबबत मेरे िदल मे ताजा कर दी।

    शाम के वकत़ मै अपने मकान पर पहुँच गयी। अभी मुझे यहा से गये हुए िसफर चार िदन गुजरे थे मगर ऐसा मालमू होता था िक वषों के बाद आयी हूँ। दरोदीवार पर हसरत छायी हुई थी। मै।ने घर मे पाव रकखा तो बरबस सईद की मुसकराती हुई सरूत आंखो के सामने आकर खडी हो गयी- वही मदाना हसुन, वही बाकपन, वही मनुहार की आंखे।

    बेअिखतयार मरेी आंखे भर आयी और िदल से एक ठणडी आह िनकल आयी। गम इसका न था िक सईद ने कयो जान दे दी। नही, उसकी मुजिरमाना बेिहसी और रप के पीछे भागना इन दोनो बातो को मै मरते दम तक माफ न करंगी। गम यह था िक यह पागलपन उसके सर

    मे कयो समाया ? इस वकत िदल की जो कैिफयत है उससे मै समझती हूँ िक कुछ िदनो मे सईद की बवेफाई और बेरहमी का घाव भर जाएगा, अपनी िजललत की याद भी शायद िमट

    जाय, मगर उसकी चनदरोजा मुहबबत का नकश बाकी रहेगा और अब यसही मेरी िजनदगी का सहारा है।

    -- ‘ ’ उदूर पेम पचीसी से

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  • पपपप पप पपपपपप

    नाकयुलर फाइनल पास करने के बाद मुझे एक पाइमरी सकूल मे जगह विमली, जो मेरे घर से गयारह मील पर था। हमारे हडेमासटर साहब को छुिटयो मे भी लडको को पढाने की सनक थी। रात को लडके खाना खाकर सकूल मे आ जाते और हेडमासटर साहब चारपाई पर लटेकर अपने खराटो से उनहे पढाया करते। जब लडको मे धौल- धपपा शुर हो जाता और

    शोर- गुल मचने लगता तब यकायक वह खरगोश की नीद से चौक पडते और लडको को दो- चार तकाचे लगाकर िफर अपने सपनो के मजे लनेे लगते। गयायह- बारह बजे रात तक यही डामा होता रहता, यहा तक िक लडके नीद से बेकरार होकर वही टाट पर सो जाते। अपैल

    मे सलाना इमतहान होनेवाला था, इसिलए जनवरी ही से हाय- तौ बा मची हईु थी। नाइट सकूलो पर इतनी िरयायत थी िक रात की कलासो मे उनहे न तलब िकया जाता था, मगर छुिटया

    िबलकुल न िमलती थी। सोमवती अमावस आयी और िनकल गयी, बसनत आया और चला गया, िशवराित आयी और गुजर गयी। और इतवारो का तो िजक ही कया है। एक िदन के िलए

    कौन इतना बडा सफर करता, इसिलए कई महीनो से मुझे घर जाने का मौका न िमला था। मगर अबकी मैने पका इरादा कर िलया था िक होली परर जरर घर जाऊंगा, चाहे नौकरी से हाथ ही कयो न धोने पडे। मैने एक हफते पहले से ही हेडमासटर साहब को अलटीमेटम दे िदया

    िक २० माचर को होली की छटुी शुर होगी और बनदा १९ की शाम को रखसत हो जाएगा। हडेमासटर साहब ने मुझे समझाया िक अभी लडके हो, तुमहे कया मालमू नौकरी िकतनी

    मुिशकलो से िमलती है और िकतनी मुिशकपलो से िनभती है, नौकरी पाना उतना मुिशकल नही िजतना उसको िनभाना। अपैल मे इमतहान होनवेाला ह,ै तीन- चार िदन सकूल बनद रहा तो बताओ िकतने लडके पास होगे ? साल- भर की सारी मेहनत पर पानी िफर जाएगा िक नही ?

    मेरा कहना मानो, इस छुटी मे न जाओ, इमतसहान के बाद जो छुटी पडे उसमे चले जाना। ईसटर की चार िदन की छटुी होगी, मै एक िदन के िलए भी न रोकूंगा।

    मै अपने मोचे पर काय़म रहा, समझाने-बुझाने, – डराने धमकाने और जवाब- तलब िकये जाने के हिथयारो का मुझ पर असर न हुआ। १९ को जयो ही सकूल बनद हुआ, मैने

    हडेमासटर साहब को सलाम भी न िकया और चुपके से अपने डरेे पर चला आया। उनहे सलाम करने जाता तो वह एक न एक काम िनकालकर मुझे रोक लेते- रिजसटर मे फीस की मीजान लगाते जाओ, औसत हािजरी िनकालते जाओ, लडको की कािपया जमा करके उन पर संशोधन और तारीख सब परूी कर दो। गोया यह मेरा आिखरी सफर है और मुझे िजनदगी

    के सारे काम अभी खतम कर देने चािहए। मकान पर आकर मैने चटपट अपनी िकताबो की पोटली उठायी, अपना हलका िलहाफ

    कंधे पर रखा और सटेशन के िलए चल पडा। गाडी ५ बजकर ५ िमनट पर जाती थी। सकूल की घडी हािजरी के वकत हमेशा आध घणटा तेज और छटुी के वकत आधा घणटा सुसत रहती थी। चार बजे सकूल बनद हुआ था। मेरे खयाल मे सटेशन पहुचँने के िलए काफी वकत था। िफर भी मुसािफरो को गाडी की तरफ से आम तौर पर जो अनदेशा लगा रहता है, और जो घडी हाथ मे होने परर भी और गाडी का वकत ठीक मालमू होने पर भी दरू से िकसी गाडी की गडगडाहट या सीटी सुनकर कदमो को तेज और िदल को परेशान कर िदया करता ह,ै वह मुझे भी लगा हुआ था। िकताबो की पोटली भारी थी, उस पर कंधणे पर िलहाफ,

    बार- बार हाथ बदल ता और लपका चला जाता था। यहा तक िक सटेशन कोई दो फलाग से नजर आया। िसगनल डाउन था। मेरी िहममत भी उस िसगनल की तरह डाउन हो गयी, उम के तकाजे से एक सौ कदम दौडा जरर मगर यह िनराशा की िहममत थी। मेरे देखते-

    देखते गाडी आयी, एक िमनट ठहरी और रवाना हो गयी। सकूल की घडी यकीनन आज और िदनो से भी जयादा सुसत थी।

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  • अब सटेशन पर जाना बेकार था। दसूरी गाडी गयारह बजे रात को आयगी, मेर े घरवाले सटेशन पर कोई बारह बजे पुहुँचेगी और वहा से मकान पर जाते- जाते एक बज जाएगा। इस सनाटे मे रासता चलना भी एक मोचा था िजसे जीतने की मुझमे िहममत न थी।

    जी मे तो आया िक चलकर हडेमासटर को आडे हाथो लूं मगरी जबत िकया और चलने क े िलए तयैार हो गया। कुल बारह मील ही तो है, अगर दो मील फी घणटा भी चलूं तो छ: घणटो

    मे घर पहुँच सकता हूँ। अभी पॉचँ बजे है, जरा कदम बढाता जाऊँ तो दस बजे यकीनन पहुँच जाऊँगा। अममं और मुनू मेरा इनतजार कर रहे होगे, पहुँचते ही गरम- गरम खाना

    िमलेगा। कोलाडे मे गुड पक रहा होगा, वहा से गरम- गरम रस पीने को आ जाएगा और जब लोग सुनेगे िक मै इतनी दरू पैदल आया हूँ तो उनहे िकतना अचवरज होगा! मैने फौरन गंगा

    की तरफ परै बढाया। यह कसबा नदी के िकनारे था और मेरे गाव की सडक नदी के उस पार से थी। मुझे इस रासते से जाने का कभी संयोग न हुआ था, मगर इतना सुना था िक

    कचची सडक सीधी चली जाती है, परेशानी की कोई बात न थी, दस िमनट मे नाव पार पहुँच जाएगी और बस फराटे भरता चल दूंगा। बारह मील कहने को तो होते है, है तो कलु छ: कोस।

    मगर घाट पर पहुचँा तो नाव मे से आधे मुसािफर भी न बैठे थे। मै कूदकर जा बैठा। खेवे के पैसे भी िनकालकर दे िदये लेिकन नाव है िक वही अचल ठहरी हुई है। मुसािफरो की

    संखया काफी नही है, कैसे खुले। लोग तहसील और कचहरी से आते जाते है औ बैठते जाते है और मै हूँ िक अनदर हीर अनदर भुना जाता हूँ। सरूज नीचे दौडा चला जा रहा है, गोया

    मुझसे बाजी लगाये हुए है। अभी सफेद था, – िफर पीला होना शुर हुआ और देखते देखत े लाल हो गया। नदी के उस पार िकितजव पर लटका हुआ, जैसे कोई डोल कुए ं पर लटक रहा

    है। हवा मे कुछ खुनकी भी आ गयी, भखू भी मालमू होने लगी। मैने आज धर जाने की खुशी और हडबडी मे रोिटया न पकायी थी, सोचा था िक शाम को तो घर पहुचँ जाऊँगा , लाओ एक पैसे के चने लेकर खा लूं। उन दानो ने इतनी देर तक तो साथ िदया , अब पटे की

    पेचीदिगयो मे जाकर न जाने कहा गुम हो गये। मगर कया गम है, रासते मे कया दुकाने न होगी, दो- चार पैसे की िमठाइया लेकर खा लूंगा।

    जब नाव उस िकनारे पहुँची तो सरूज की िसफर अिखरी सास बाकी थी, हालािक नदी का पाट िबलकुल पेदे मे िचमटकर रह गया था।

    मैने पोटली उठायी और तेजी से चला। दोनो तरफ चने के खेते थे िजलनके ऊदे फूलो पर ओस सका हलका- सा पदा पड चला था। बेअिखतय़ार एक खेत मे घुसकर बटू उखाड िलये और टूंगता हुआ भागा।

    २ मने बारह मील की मंिजल ह,ै कचचा सुनसान रासता, शाम हो गयी ह,ै मुझे पहली बार गलती मालमू हुई। लेिकन बचपन के जोश ने कहा, कया बात है, एक-दो

    मील तो दौड ही सकते है। बारह को मन मे १७६० से गुणा िकया, बीस हजार गज ही तो होते है। बारह मील के मुकािबले मे बीस हजार गज कछु हलके और आसान मालमू हुए। और जब दो- तीन मील रह जाएगा तब तो एक तरह से अपने गाव ही मे हूंगा, उसका कया

    शुमार। िहममत बधं गयी। इके- दुके मुसािफर भी पीछे चले आ रहे थे, और इतमीनान हुआ।

    सा अंधेरा हो गया है, मै लपका जा रहा हूँ। सडक के िकनारे दरू से एक झोपडी नजर

    आती है। एक कुपपी जल रही है। जरर िकसी बिनये की दुकान होगी। और कुछ न होगा तो गुड और चने तो िमल ही जाएगंे। कदम और तेज करता हूँ। झोपडी आती है। उसके सामने – एक कण के िनलए खडा हो जाता हूँ। चार पॉचँ आदमी उकडूं बैठे हुए है, बीच मे एक बोतल

    ह,ै हर एक के सामने एक- एक कुलाड। दीवार से िमली हुई ऊंची गदी है, उस पर साहजी बैठे हुए है, उनके सामने कई बोतले रखी हुई है। जरा और पीछे हटकर एक आदमी कडाही मे सखूे मटर भनू रहा है। उसकी सोधी खुशबू मेरे शरीर मे िबजली की तरह दौड जाती है।

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  • बचेैन होकर जेब मे हाथ डालता हूँ और एक पैसा िनकालकर उसकी तरफ चलता हूँ लेिकन – पाव आप ही रक जाते है यह कलवािरया है।

    – खोच