लॉ क डा उ न - Chaudhary Charan Singh University · 2020. 4. 22. · बसे...

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पाठ-पुनपाठ लॉ डा 25 वाँ दिन

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  • पाठ-पुनपापाठलॉ क डा उ न

    25 वाँ दिन

  • प्रकाशकीय

    कोरोना का संकट अब वैश्विक बदलाव का नया प्रस्ान बबंदु बन चुका है। इसका असर मानव जीवन पर कई रूपों में पड़ने वाला है। कुछ संकेत अब सपष्ट रूप से बदखने लगे हैं। यह हमारी पढ़ने-बलखने की आदतों पर भी अपनी छाप छोड़ेगा, ऐसा लग रहा है। अभी आप चाहते हुए भी अपनी मनचाही बकताब खरीद नहीं सकते, हम आपकी कोई मदद कर नहीं सकते। बजतनी ई-बुक या ऑबियो बुक ऑनलाइन पलेटफॉम्म पर मौजूद हैं, उनमें से ही चयन करना, पढ़ना और सुनना एक बवकलप है। दूसरा बवकलप है, घर में उपलब्ध पढ़ी-अनपढ़ी बकताबों को इस लॉक िाउन की अवब्ध में पढ़ जाना। हमसे कई साबहतय-अनुराबगयों ने अपने ऐसे अनुभव साझा बकए हैं बक उनहें आजकल कई भूली-बबसरी रचनाएँ याद आ रही हैं। उनहें पढ़ने का मन हो रहा है। कुछ को नई बकताबों के बारे में भी जानने की उतसुकता है, बजनके बारे में चचा्म सुन रखी है। हमने इन सब श्स्बतयों के मद्ेनज़र 3 मई 2020 तक प्रबतबदन आप सबको एक पुश्सतका उपलब्ध कराने का संकलप बकया है। वहाटसएपप पर बनःशुलक। 22 माच्म 2020 से हमने फेसबुक लाइव के जररये अपने वयापक साबहतयप्रेमी समाज से लेखकों के संवाद का एक बसलबसला बना रखा है। जब से सोशल बिसटेंबसंग यानी संग-रो्ध का दूसरा दौर शुरू हुआ है, तब से हम अपनी बजममेदारी और बढ़ी हुई महसूस कर रहे हैं।

  • सभी के बलए मानबसक खुराक उपलब्ध रहे, यह अपना सामाबजक दाबयतव मानते हुए अब हम ‘पाठ-पुनपा्मठ’ पुश्सतकाओं की यह श्रंखला शुरू कर रहे हैं। ईबुक और ऑबियोबुक िाउनलोि करने की सुबव्धा सबके बलए सुगम नहीं है। इसबलए हम अब वहाटसएपप पर सबके बलए बन:शुलक रचनाएँ बनयबमत उपलब्ध कराने जा रहे हैं। इनहें प्राप्त करने के बलए आप राजकमल प्रकाशन समूह का यह वहाटसएपप नमबर 98108 02875 अपने फोन में सुरबषित करें और उसके बाद उसी नमबर पर अपना नाम बलखकर हमें मैसेज करें। आपको बनयबमत बन:शुलक पुश्सतका बमलने लगेगी। हम समझते हैं बक यह असुबव्धाकारी नहीं है। आप जब चाहें, पावती सेवा बंद करवा सकते हैं। जब चाहें, पुनः शुरू करा सकते हैं। जब तक लॉक िाउन है, आप घर में हैं लेबकन अकेले नहीं हैं। राजकमल प्रकाशन समूह आपके सा् है। भरोसा रखें। सा् जुड़ें, सा् पढ़ें...

  • क्रम

    पहलवान की ढोलककहानी

    फणीविरना् रेणु 5

    जिन्दगी और िोकंकहानी

    अमरकानत 17

    इति कहानी

    गीतांजबल शी 47

    कामायनी ः निर्वेद सर्गमहाकावय

    जयशंकर प्रसाद 66

  • लॉकिाउन : 25 वाँ बदन

    पहलवान की ढोलक

    *

    फणीश्वरिाथ रेणु

    जाड़े का बदन। अमावसया की रात—ठंिी और काली। मलेररया और हैजे से पीबड़त गाँव भयार््म बशशु की तरह ्र-्र काँप रहा ्ा। पुरानी और उजड़ी बाँस-फूस की झोंपबड़यों में अन्धकार और सन्ाटे का सश्ममबलत साम्ाजय! अँ्धेरा और बनसतब्धता।

    अँ्धेरी रात चुपचाप आँसू बहा रही ् ी! बनसतब्धता करुण-बससबकयों और आहों को बलपूव्मक अपने हृदय में ही दबाने की चेष्टा कर रही ्ी। आकाश से टूटकर यबद कोई भावुक तारा प्रथवी पर जाना भी चाहता तो उसकी जयोबत और शश्ति रासते में ही शेष हो जाती ्ी, अनय तारे उसकी भावुकता अ्वा असफलता पर बखलबखलाकर हँस पड़ते ्े। बसयारों का क्रनदन और पेचक की िरावनी आवाज कभी-कभी बनसतब्धता को अवशय भंग कर देती ्ी। गाँव की झोंपड़ी से कराहने और कै करने की आवाज, ‘हरे राम! हे भगवान!’ की टेर अवशय सुनाई पड़ती ्ी। बच्े भी कभी-कभी बनब्मल कंठों से माँ-माँ पुकारकर रो पड़ते ्े, पर इससे राबरि की बनसतब्धता में बवशेष बा्धा नहीं पड़ती ्ी। कुर्ों में पररश्स्बतयों को ताड़ने की एक बवशेष बुबधि होती है।

  • लॉकडाउन : 25 वाँ दिन

    पाठ-पुनपापाठ

    वे बदन-भर राख के घूरों पर गठरी की तरह बसकुड़कर मन मारकर पड़े रहते ्े। सन्धया या गमभीर राबरि को सब बमलकर रोते ्े। राबरि अपनी भीषणताओं के सा् चलती रहती और उसकी सारी भीषणता को, ताल ठोककर, ललकारती रहती ्ी—बसफ्फ पहलवान की ढोलक। सन्धया से लेकर प्रातः तक एक ही गबत से बजती रहती—‘चट्-्धा, बगड़-्धा, चट्-्धा, बगड़-्धा’ अ्ा्मत्—‘आजा बभड़जा!!’ बीच-बीच में ‘चटाक्-चट्-्धा चटाक्-चट्-्धा’ यानी—उठाकर पटक दे!!...यही आवाज संजीवनी शश्ति भरती रहती ्ी।

    लुट्टन बसंह पहलवान!

    यों तो वह कहा करता ्ा—‘‘लुट्टन बसंह पहलवान को ‘होल-इंबिया’ भर के लोग जानते हैं,’’ बकनतु उसके ‘होल-इंबिया’ की सीमा शायद एक बजले की सीमा के बराबर ही हो। बजले-भर के लोग उसके नाम से अवशय पररबचत ्े।

    लुट्टन के माता-बपता उसे नौ वष्म की उम् में ही अना् बनाकर चल बसे ्े। सौभागयवश शादी हो चुकी ्ी, वरना वह भी माँ-बपता का अनुसरण करता। बव्धवा सास ने पाल-पोसकर बड़ा बकया। बचपन में वह गाय चराता, ्धारोषण दू्ध पीता और कसरत बकया करता ्ा। गाँव के लोग उसकी सास को तरह-तरह की तकलीफ बदया करते ्े। लुट्टन के बसर पर कसरत की ्धुन लोगों से बदला लेने के बलए ही सवार हुई ्ी। बनयबमत कसरत ने बकशोरावस्ा में ही उसके सीने और बाँहों को सुिौल त्ा मांसल बना बदया ्ा। जवानी में कदम रखते ही वह गाँव में सबसे अचछा पहलवान समझा जाने लगा। लोग उससे िरने लगे और वह दोनों हा्ों को दोनों ओर 45

  • पहलवान की ढोलक

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    बिग्ी की दूरी पर फैलाकर पहलवानों की भाँबत चलने लगा। वह कुशती भी लड़ता ्ा।

    एक बार वह ‘दंगल’ देखने शयामनगर मेला गया। पहलवानों की कुशती और दाँव-पेंच देखकर उससे रहा नहीं गया। जवानी की मसती और ढोल की ललकारती हुई हुई आवाज ने उसकी नसों में बबजली उतपन् कर दी। उसने बबना कुछ सोचे-समझे दंगल में ‘शेर के बच्े’ को चुनौती दे दी। ‘शेर के बच्े’ का असल नाम ्ा—चाँद बसंह। वह अपने गुरु पहलवान बादल बसंह के सा्, पंजाब से पहले-पहल शयामनगर मेले में आया ्ा। सुनदर-जवान, अंग-प्रतयंग से सुनदरता टपक पड़ती ्ी। तीन बदनों में पंजाबी और पठान पहलवानों के बगरोह की अपनी जोड़ी और उम् के सभी पट्ों को पछाड़कर उसने ‘शेर के बच्े’ की टायबटल प्राप्त कर ली ्ी। इसबलए वह दंगल के मैदान में लँगोट लगाकर एक अजीब बकलकारी भरकर छोटी दुलकी लगाया करता ्ा। देशी नौजवान पहलवान उससे लड़ने की कलपना से भी घबड़ाते ्े। अपनी टायबटल को सतय प्रमाबणत करने के बलए ही चाँद बसंह बीच-बीच में दहाड़ता बफरता ्ा।

    दंगल और बशकार-बप्रय शयामनगर के व्रधि राजा साहब उसे दरबार में रखने की बात कर ही रहे ्े बक लुट्टन ने ‘शेर के बच्े’ को चुनौती दे दी। सममान-प्राप्त चाँद बसंह पहले तो बकंबचत उसकी सप्धा्म पर मुसकुराया, बफर बाज की तरह उस पर टूट पड़ा। शानत दश्मकों की भीड़ में खलबली मच गई—पागल है, पागल है, मरा-ऐ! मरा-मरा!!...पर वाह रे बहादुर! लुट्टन बड़ी सफाई से आक्रमण को समहालकर, बनकलकर खड़ा हुआ और पैंतरा बदखाने लगा। राजा साहब ने कुशती बनद करवाकर लुट्टन को अपने पास बुलवाया और समझाया। अनत में, उसकी बहममत की प्रशंसा करते हुए, दस रुपए

  • लॉकडाउन : 25 वाँ दिन

    पाठ-पुनपापाठ

    का नोट देकर कहने लगे, ‘‘जाओ, मेला देखकर घर जाओ...!’’

    ‘‘नहीं सरकार, हम लड़ेंगे...हुकुम हो सरकार...!’’

    ‘‘तुम पागल हो? जाओ...’’

    मैनेजर साहब से लेकर बसपाबहयों तक ने ्धमकाया—‘‘देह में गोशत नहीं, लड़ने चला है शेर के बच्े से! सरकार इतना समझा रहे हैं...!!’’

    ‘‘दुहाई सरकार, पत्र पर बसर पटककर मर जाऊँगा...बमले हुकुम...’’ वह हा् जोड़कर बगड़बगड़ा रहा ्ा।

    भीड़ अ्धीर हो रही ्ी। बाजे बनद हो गए ्े। पंजाबी पहलवानों की जमात क्रो्ध से पागल हो लुट्टन पर गाबलयों की बौछार कर रही ्ी। दश्मकों की मंिली उर्ेबजत हो रही ्ी। कोई-कोई लुट्टन के पषि में बचल्ा उठता ्ा—‘‘उसे लड़ने बदया जाए!’’

    अकेला चाँद बसंह मैदान में खड़ा वय््म मुसकुराने की चेष्टा कर रहा ्ा। पहली पकड़ में ही अपने प्रबतद्वनद्वी की शश्ति का अनदाजा उसे बमल गया ्ा।

    बववश होकर राजा साहब ने आज्ा दे दी—‘‘लड़ने दो!’’

    बाजे बजने लगे। दश्मकों में बफर उर्ेजना फैली। कोलाहल बढ़ गया। मेले के दुकानदार दुकान बनद करके दौड़े, ‘‘चाँद की जोड़ी? चाँद की कुशती हो रही है!!’’

    चट्-्धा, बगड़-्धा, चट्-्धा, बगड़-्धा...

  • पहलवान की ढोलक

    9

    दोनों युवक पहलवान पैंतरा भरने लगे। भारी आवाज में एक ढोल, जो अब तक चुप ्ा, बोलने लगा—ढाक्-बढन्ा, ढाक्-बढन्ा, ढाक्-बढन्...अ्ा्मत् वाह पट्े! वाह पट्े!!

    लुट्टन को चाँद ने कसकर दबा बलया ्ा।

    ‘‘अरे, गया-गया’’—दश्मकों ने ताबलयाँ बजाईं—‘‘हलुआ हो जाएगा, हलुआ—हँसी खेल नहीं, शेर का बच्ा है...बच्ू!’’

    ‘‘चट्-बगड़-्धा, चट्-बगड़-्धा, चट्-बगड़-्धा’’—अ्ा्मत् मत िरना! मत िरना!!

    लुट्टन की गद्मन पर केहुनी िालकर चाँद ‘बचत’ करने की कोबशश कर रहा ्ा।

    ‘‘वहीं दफना दे बहादुर!’’ बादल बसंह अपने बशषय को उतसाबहत कर रहा ्ा।

    लुट्टन की आँखें बाहर बनकल रही ्ीं। उसकी छाती फटने-फटने को हो रही ्ी। राजमत, बहुमत चाँद के पषि में ्ा। सभी चाँद को शाबाशी दे रहे ्े। लुट्टन के पषि में बसफ्फ ढोल की आवाज ्ी, बजसके ताल पर वह अपनी शश्ति और दाँव-पेंच की परीषिा ले रहा ्ा—अपनी बहममत को बढ़ा रहा ्ा। अचानक ढोल की एक पतली आवाज सुनाई पड़ी—

    ‘‘्धाक-ब्धना, बतरकट-बतना, ्धाक-ब्धना, बतरकट-बतना...!!’’

    लुट्टन को सपष्ट सुनाई पड़ा। ढोल कह रहा ्ा—‘‘दाँव काटो, बाहर हो जा, दाँव काटो, बाहर हो जा!’’

  • लॉकडाउन : 25 वाँ दिन

    पाठ-पुनपापाठ

    लोगों के आश्चय्म की सीमा न रही। लुट्टन दाँव काटकर बाहर बनकला और तुरनत लपककर चाँद की गरदन पकड़ ली।

    ‘‘वाह रे बमट्टी के शेर!’’

    ‘‘अचछा! बाहर बनकल आया? इसीबलए तो...।’’

    जनमत बदल रहा ्ा।

    मोटी और भौंड़ी आवाजवाला ढोल बज उठा—‘‘चटाक्-चट्-्धा, चटाक्-चट्-्धा...’’ अ्ा्मत्—उठा पटक दे! उठा पटक दे!!

    लुट्टन ने चालाकी से दाँव और जोर लगाकर चाँद को जमीन पर दे मारा।

    ब्धक-ब्धना, ब्धक-ब्धना...। अ्ा्मत्—‘‘बचत-करो—बचत करो!!’’

    लुट्टन ने अश्नतम जोर लगाया, चाँद बसंह चारों खाने बचत हो रहा।

    ‘‘्धा-बगड़, ्धा-बगड़-बगड़...’’ अ्ा्मत् ‘‘वाह बहादुर! वाह बहादुर!!’’

    जनता यह श्स्र नहीं कर सकी बक बकसकी जय्धवबन की जाय, फलतः अपनी—अपनी इचछानुसार बकसी ने ‘माँ दुगा्म’ की, बकसी ने ‘महावीरजी’ की, कुछ ने ‘राजा शयामाननद’ की—जय्धवबन की, अनत में सश्ममबलत—‘जय’ से आकाश गूँज उठा।

    बवजयी लुट्टन कूदता-फाँदता, ताल-ठोकता सबसे पहले बाजेवाले की

    ओर दौड़ा, ढोलों को शधिापूव्मक प्रणाम बकया बफर दौड़कर उसने राजा साहब को गोद में उठा बलया। राजा साहब के कीमती कपड़े

  • पहलवान की ढोलक

    11

    बमट्टी में सन गए। मैनेजर साहब ने आपबर् की ‘‘हैं-हैं-अरे-अरे!’’ बकनतु राजा साहब ने सवयं उसे छाती से लगाकर गद्गद होकर कहा—‘‘जीते रहो बहादुर! तुमने बमट्टी की लाज रख ली।’’

    पंजाबी पहलवानों की जमात चाँद बसंह की आँखें पोंछ रही ्ी। लुट्टन को राजा साहब ने पुरसककृत ही नहीं बकया, अपने दरबार में सदा के बलए रख बलया। तब से लुट्टन राज-पहलवान हो गया और राजा साहब उसे लुट्टन बसंह कहकर पुकारने लगे।

    राज-पंबितों में मुँह बबचकाया—‘‘हुजूर! जाबत का दुसा्ध...बसंह...!’’

    मैनेजर साहब षिबरिय ्े। ‘क्ीन-शेवि’ चेहरे को संकुबचत करते हुए अपनी पूरी शश्ति लगाकर नाक के बाल उखाड़ रहे ्े। चुटकी से अतयाचारी बाल को रगड़ते हुए बोले—‘‘हाँ सरकार, यह अनयाय है!’’

    राजा साहब ने मुसकुराते हुए बसफ्फ इतना ही कहा—‘‘उसने षिबरिय का काम बकया है।’’

    उसी बदन से लुट्टन बसंह पहलवान की कीबत्म दूर-दूर तक फैल गई। पौश्ष्टक भोजन और वयायाम त्ा राजा साहब की स्ेह-दृश्ष्ट ने उसकी प्रबसबधि में चार चाँद लगा बदए। कुछ वषषों में ही उसने एक-एक कर सभी नामी पहलवानों को बमट्टी सुँघाकर आसमान बदखा बदया। काला खाँ के समबन्ध में यह बात मशहूर ्ी बक वह जयों ही लँगोट लगाकर—‘आ-ली’ कहकर अपने प्रबतद्वनद्वी पर टूटता है, प्रबतद्वनद्वी पहलवान को लकवा मार जाता है। लुट्टन ने उसको भी पटककर लोगांे का भ्रम दूर कर बदया। उसके बाद वह राज-दरबार का दश्मनीय ‘जीव’ ही रहा।

  • लॉकडाउन : 25 वाँ दिन

    पाठ-पुनपापाठ

    बचबड़याखाने में, बपंजड़े और जंजीरों को झकझोरकर बाघ दहाड़ता—‘‘हाँ ऊँं, हाँ ऊँ!!’’ सुननेवाले कहते—‘‘राजा का बाघ बोला।’’

    ठाकुरबाड़े के सामने पहलवान गरजता—‘‘महा-वीर’’! लोग समझ लेते पहलवान बोला।

    मेलों में वह घुटने तक लमबा चोगा पहने, असत-वयसत, पगड़ी बाँ्धकर मतवाले हा्ी की तरह झूमता चलता। दुकानदारों को चुहल करने की सूझती। हलवाई अपनी दुकान में बुलाता—‘‘पहलवान काका! ताजा रसगुल्ा बना है, जरा नाशता कर लो।’’

    पहलवान बच्ों की-सी सवाभाबवक हँसी हँसकर कहता—‘‘अरे तनी-मनी काहे! ले आवा िेढ़ सेर!’’...और बैठ जाता।

    दो सेर रसगुल्ों को उदरस् करके, मुँह में आठ-दस पान की बगलौररयों को ठूँस, ठुड्ी को पान के रस से लाल करते हुए अपनी चाल में मेला में घूमता। मेला से दरबार लौटते समय उसका अजीब हुबलया रहता—आँखों पर रंगीन अबरख का चशमा, हा् में बखलौनों को नचाता और मुँह से पीतल की सीटी बजाता, हँसता हुआ वह वापस आता। बल और शरीर की व्रबधि के सा्-सा् बुबधि घटकर बच्ों की बुबधि के बराबर ही रह गई ्ी उसमें।

    दंगल में ढोल की आवाज सुनते ही वह अपने भारी-भरकम शरीर का प्रदश्मन करना शुरू कर देता ्ा। उसकी जोड़ी तो बमलती नहीं ्ी, यबद कोई उससे लड़ना भी चाहता तो राजा साहब लुट्टन को आज्ा ही नहीं देते। इसबलए वह बनराश होकर, लँगोट लगाकर, देह में बमट्टी मल और उछलकर अपने को साँड़ या भैंसा साबबत करता रहता ्ा। बूढ़े राजा साहब देख-देखकर मुसकुराते रहते।

  • पहलवान की ढोलक

    13

    यों ही पनद्रह वष्म बीत गए। पहलवान अजेय रहा। वह दंगल में अपने दोनों पुरिों को लेकर उतरता ्ा। पहलवान की सास पहले ही मर चुकी ्ी, बपता पहलवान की सरिी भी दो-दो पहलवानों को पैदा करके सवग्म बस्धार गई ्ी। दोनों बपता की तरह गठीले और तगड़े ्े। दंगल में दोनों को देखकर लोगों के मुँह से अनायास ही बनकल पड़ता—‘‘वाह! बाप से भी बढ़कर बनकलेंगे ये दोनों बेटे!’’

    दोनों ही लड़के राज-दरबार के भावी पहलवान घोबषत हो चुके ्े। अतः दोनों का भरण-पोषण दरबार से ही हो रहा ्ा।

    प्रबतबदन प्रातःकाल पहलवान सवयं ढोलक बजा-बजाकर दोनों से कसरत करवाता। दोपहर में, लेटे-लेटे दोनों को सांसाररक ज्ान की बशषिा भी देता—‘‘समझे। ढोलक की आवाज पर पूरा ्धयान रखना। हाँ, मेरा गुरु कोई पहलवान नहीं, यही ढोल है, समझे!...ढोल की आवाज के प्रताप से ही मैं पहलवान हुआ। दंगल में उतर सबसे पहले ढोलों को प्रणाम करना, समझे!’’ ऐसी ही बहुत-सी बातें वह कहा करता। बफर माबलक को कैसे खुश रखा जाता है, कब कैसा वयवहार करना चाबहए आबद की बशषिा वह बनतय बदया करता ्ा।

    बकनतु उसकी बशषिा-दीषिा, सब बकए-कराए पर एक बदन पानी बफर गया। व्रधि राजा साहब सवग्म बस्धार गए। नए राजकुमार ने राजय-काय्म अपने हा् में ले बलया। राजा साहब के समय में जो बशब्लता आ गई ्ी, राजकुमार के आते ही दूर हो गई। बहुत से पररवत्मन हुए, उनहीं पररवत्मनों के चपेटाघात में पड़ा पहलवान भी। दंगल का स्ान घोड़े के रेस ने ले बलया। पहलवान त्ा दोनों भावी पहलवानों का दैबनक भोजन-वयय सुनते ही राजकुमार ने कहा—‘‘टेररबुल!’’

    पहलवान को साफ जवाब बमल गया, राज-दरबार में उसकी आवशयकता

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    पाठ-पुनपापाठ

    नहीं। उसको बगड़बगड़ाने का भी मौका नहीं बदया गया। उसी बदन वह ढोलक कन्धे से लटकाकर, अपने पुरिों के सा् अपने गाँव में लौट आया तो वहीं रहने लगा। गाँव के एक छोर पर, गाँववालों ने एक झांेपड़ी बाँ्ध दी। वहीं रहकर वह गाँव के नौजवानों और चरवाहों को कुशती बसखाने लगा। खाने-पीने का खच्म गाँववालों की ओर से बँ्धा हुआ ्ा। सुबह-शाम वह सवयं ढोलक बजाकर अपने बशषयों और पुरिों को दाँव-पेंच वगैरह बसखाया करता ्ा।

    गाँव के बकसान और खेबतहर-मजदूर के बच्े भला कया खाकर कुशती सीखते! ्धीरे-्धीरे पहलवान का सकूल खाली पड़ने लगा। अनत में, अपने दोनों पुरिों को ही वह ढोलक बजा-बजाकर लड़ाता रहा। बसखाता रहा। दोनों लड़के बदन-भर मज़दूरी करके जो कुछ भी लाते उसी में गुजर होती रही। अकसमात् गाँव पर वज्रपात हुआ। पहले अनाव्रश्ष्ट, बफर अन् की कमी, तब मलेररया और हैजे ने बमलकर गाँव को भूनना शुरू कर बदया। गाँव प्रायः सूना हो चला ्ा। घर के घर खाली पड़ गए ्े। बदन में तो—कलरव, हाहाकार त्ा हृदय-बवदारक रुदन के बावजूद लोगों के चेहरे पर कुछ प्रभा दृश्ष्टगोचर होती ्ी, शायद सूय्म के प्रकाश में। सूया्मसत होते ही लोग काँखते-कूँखते-कराहते अपने-अपने घरों से बाहर बनकलकर अपने पड़ोबसयों को ढाढ़स देते ्े।

    ‘‘अरे कया करोगी रोकर दुलबहन! जो गया सो चला गया, वह तुमहारा नहीं ्ा, अब जो है उसको तो देखो।’’

    ‘‘भैया! घर में मुदा्म रखकर कब तक रोओगे? कफन? कफन की कया जरूरत है, दे आओ नदी में!’’ इतयाबद।

    बकनतु सूया्मसत होते ही जब लोग अपनी-अपनी झोंपबड़यों में घुस जाते

  • पहलवान की ढोलक

    15

    तो चूँ भी नहीं करते। उनके बोलने की शश्ति भी जाती रहती ्ी। पास में दम तोड़ते हुए पुरि को अश्नतम बार बेटा कहकर पुकारने की बहममत माताओं को नहीं होती ्ी। राबरि की बवभीबषका को बसफ्फ पहलवान की ढोलक ही ललकारकर चुनौती देती रहती ्ी। पहलवान सन्धया से सुबह तक चाहे बजस खयाल से ढोलक बजाता हो, बकनतु गाँव के अधि्मम्रत औषब्ध-उपचार-पथय-बवहीन प्राबणयों में वह संजीवनी शश्ति ही भरती ्ी। बूढ़-बच्े-जवानों की शश्तिहीन आँखों के आगे दंगल का दृशय नाचने लगता ्ा। सपनदन-शश्ति शूनय स्ायुओं में भी बबजली दौड़ जाती ्ी। अवशय ही ढोलक की आवाज में न तो बुखार हटाने का कोई गुण ्ा और न महामारी की सव्मनाश गबत को रोकने की शश्ति ही, पर इसमें सनदेह नहीं बक मरते हुए प्राबणयों को आँख मूँदते समय कोई तकलीफ नहीं होती ्ी, म्रतयु से वे िरते नहीं ्े।

    बजस बदन पहलवान के दोनों बेटे क्रूर काल के चपेटाघात में पड़े, असह्य वेदना से छटपटाते हुए दोनों ने कहा ्ा—‘‘बाबा! ‘उठा पटक दो’ वाला तान बजाओ!’’ ...चटाक्-चट्-्धा, चटाक्-चट्-्धा—सारी रात ढोलक पीटता रहा पहलवान। बीच-बीच में पहलवानों की भाषा में उतसाबहत भी करता ्ा—‘मारो बहादुर!’ प्रातःकाल उसने देखा उसके दोनों बेटे जमीन पर बनसपनद पड़े हैं। दोनों पेट के बल पड़े हुए ्े। एक ने दाँत से बमट्टी खोद ली ्ी। एक लमबी साँस लेकर पहलवान ने मुसकुराने की चेष्टा की ्ी—‘दोनों बहादुर बगर पड़े!’

    उस बदन पहलवान ने राजा शयामाननद की दी हुई रेशमी जाँबघया पहन ली, सारे शरीर में बमट्टी मलकर ्ोड़ी कसरत की, बफर दोनों पुरिों को दोनों कन्धों पर लादकर नदी में बहा आया। लोगों ने सुना तो दंग रह गए। बकतनों की बहममत टूट गई। बकनतु उस रात में बफर पहलवान की ढोलक की आवाज, प्रबतबदन की भाँबत ही सुनाई

  • लॉकडाउन : 25 वाँ दिन

    पाठ-पुनपापाठ

    पड़ी। लोगों की बहममत दुगुनी बढ़ गई। सनतप्त बपता-माताओं ने कहा—‘‘दोनों पहलवान बेटे मर गए पर पहलवान की बहममत तो देखो, कया कलेजा है!’’

    चार-पाँच बदनों के बाद। एक रात को ढोलक की आवाज नहीं सुनाई पड़ी। ढोलक नहीं बोली। पहलवान के कुछ बदलेर बकनतु रूठे बशषयों ने प्रातःकाल जाकर देखा—पहलवान की लाश बचत पड़ी है। रात में बसयारों ने बाईं जाँघ के मांस को खा िाला है, पेट पर भी...

    आँसू पोंछते हुए एक ने कहा—‘‘गुरुजी कहा करते ्े बक जब मैं मर जाऊँ तो बचता पर मुझे पेट के बल सुलाना। मैं बजनदगी में कभी ‘बचत’ नहीं हुआ। और बचता सुलगाने के समय ढोलक बजा देना...’’ वह आगे नहीं बोल सका।

    पास में ही ढोलक लुढ़की पड़ी ्ी। बसयारों ने ढोलक को ‘भोजय-पदा््म’ समझकर उसके चमड़े को फाड़ िाला ्ा।

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    जिन्दगी और िोकं

    *

    अमरकान्त

    महल्े में बजस बदन उसका आगमन हुआ, सवेरे तरकारी लाने के बलए बाजार जाते समय मैंने उसको देखा ्ा। बशवना् बाबू के घर के सामने सड़क की दूसरी ओर श्स्त खँिहर में, नीम के पेड़ के नीचे, एक दुबला-पतला काला आदमी, गनदी लुंगी में बलपटा बचर् पड़ा ्ा, जैसे रात में आसमान से टपककर बेहोश हो गया हो अ्वा दबषिण भारत का भूला-भटका सा्धु बनश्श्चनत स्ान पाकर चुपचाप नाक से हवा खींच-खींच कर प्राणायाम कर रहा हो।

    बफर मैंने शायद एक दो बार और भी उसका कठपुतले की भाँबत िोल-िोलकर सड़क को पार करते या मुहल्े के एक-दो मकानों के सामने चककर लगाते या बैठकर हाँफते हुए देखा। इसके अलावा मैं उसके बारे में उस समय तक कुछ नहीं जानता ्ा।

    रात के लगभग दस बजे खाने के बाद बाहर आकर लेटा ्ा। चैत का महीना, हवा तेज चल रही ्ी। चारों ओर घुप अंब्धयारा। प्रारश्मभक झपबकयाँ ले ही रहा ्ा बक ‘मारो-मारो’ का हल्ा सुनकर चौंक

  • लॉकडाउन : 25 वाँ दिन

    पाठ-पुनपापाठ

    पड़ा। यह शोरगुल बढ़ता गया। मैं ततकाल उठ बैठा। शायद आवाज बशवना् बाबू के मकान की ओर से आ रही ्ी। जलदी से पाँव चपपल में िाल उ्धर को चल पड़ा।

    मेरा अनुमान ठीक ्ा। बशवना् बाबू के मकान के सामने ही भीड़ लगी ्ी। मुहल्े के दूसरे लोग भी शोरगुल सुनकर अपने घरों से भागे चले आ रहे ्े। मैंने भीतर घुसकर देखा और कुछ चबकत रह गया। खँिहर का वही बभखमंगा ्ा। बशवना् बाबू का लड़का रघुवीर उस बभखमंगे की दोनों बाँहों को पीछे से पकड़े हुए ्ा और दो-तीन वयश्ति आँख मूँद त्ा उछल-कूदकर उसे बेतहाशा पीट रहे ्े। बशवना् बाबू त्ा अनय लोग भयजनय क्रो्ध से आँखें फाड़-फाड़कर घूर रहे ्े।

    बभखमंगा नाटा ्ा। गाल बपचके हुए, आँखें ्धँसी हुईं, और छाती की हश्ड्याँ साफ बाँस की खपबचयों की तरह बदखाई दे रही ्ीं। पेट नाँद की तरह फूला हुआ। मार पड़ने पर वह बेतहाशा बचल्ा रहा ्ा, ‘‘मैं बरई हूँ, बरई हूँ, बरई हूँ...’’

    ‘‘साला छँटा हुआ चोर है, साहब।’’ बशवना् बाबू मेरे पास सरक आये ्े, ‘‘पर यह हमारा-आपका दोष है बक आदमी नहीं पहचानते। गरीबों को देखकर हमारा-आपका बदल पसीज जाता है। और मौका-बे-मौका खुद्ी-चुन्ी, साग-सर्ू आपने तो इसको देखा ही होगा, मालूम होता ्ा महीनों से खाना नहीं बमला है पर कौन जानता ्ा बक साला ऐसा बनकलेगा, हरामी का बपल्ा...!’’ बफर बभखमंगे की ओर मुड़कर गरज पड़े, ‘‘बता साले, साड़ी कहाँ रखी है? नहीं इतनी मार पड़ेगी बक नानी याद आ जायेगी।’’

    उनका गला जोर से बचल्ाने के कारण बकंबचत् बैठ गया ्ा,

  • बजनदगी और जोंक

    19

    इसबलए समभवतः ्ककर वह चुप हो गये। पीटने वालों ने भी इस समय पीटना बनद कर बदया ्ा, लेबकन बशवना् बाबू के वतिवय से रामजी बमश का शोहदा पहलवान लड़का शमभूू अतयब्धक प्रभाबवत मालूम पड़ा। वह अभी-अभी आया ्ा और बशवना् बाबू का बयान समाप्त होते ही आव देखा न ताव, भीड़ में से आगे लपक, जूता हा् में ले गनदी गाबलयाँ देते हुए बभखमंगे को पीटना शुरू कर बदया।

    ‘‘एक-िेढ़ हफते से मुहल्े में आया हुआ है’’ बशवना् बाबू जैसे बनश्ंबचत होकर बफर बोले, ‘‘लालची कुर्ों की तरह इ्धर-उ्धर घूमा करता ्ा; सो हमारे घर में दया आ गयी। एक रोज इसे बुलाकर उनहोंने कटोरे में दाल-भात तरकारी खाने को दे दी। बस कया ्ा, परच गया। रोज आने लगा। खैर कोई बात नहीं ्ी, आपकी दया से ऐसे दो-तीन भर-बभखमंगे रोज ही खाकर दुआ दे जाते हैं। यह घर में आने लगा तो मौका पड़ने पर एका्ध काम भी कर देता ्ा, अब यह बकसको पता ्ा बक आज यह घर से नयी साड़ी चुरा लेगा।’’

    ‘‘आपको ठीक से पता है बक साड़ी इसी ने चुरायी है!’’

    मेरे इस प्रशन से वे बबगड़ गये। बोले, ‘‘आप भी खूब बात करते हैं। यही पता लग गया तो चोर कैसा? मैं तो खूब जानता हूँ बक ये सब चोरी का माल होबशयारी से बछपा देते हैं और जब तक इनकी कड़ी बपटाई न की जाये, कुछ नहीं बताते। अब यही समबझए बक करीब नौ बजे साड़ी गायब हुई। जमुना का कहना है बक उसी समय उसने इसको बकसी सामान के सा् घर से बनकलते हुए देखा। बफर मैं यह पूछता हूँ बक आज दस वष्म सेककृमेरे घर का दरवाजा इसी तरह खुला रहता है, लेबकन कभी चोरी नहीं हुई। आज ही कौन-सी नयी बात हो गयी बक वह आया नहीं और मुहल्े में चोरी बदमाशी शुरू हो गयी। अरे, मैं इन सालों को खूब जानता हूँ।’’

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    पाठ-पुनपापाठ

    वह बभखमंगा अब भी तेज मार पड़ने पर बचल्ा उठता, ‘‘मैं बरई हूँ, बरई हूँ, बरई हूँ...’’ सपष्ट ्ा बक इतने लोगों को देखकर वह काफी भयभीत हो गया ्ा और अपने सम््मन में कुछ न पाकर बेतहाशा अपनी जाबत का नाम ले रहा ्ा, जैसे हर जाबत के लोग चोर हो सकते हैं, लेबकन बरई कतई नहीं हो सकते।

    नये लोग अब भी आ रहे ्े। वे क्रो्ध और उर्ेजना में आकर उसे पीटते और बफर भीड़ में बमल जाते। और जब लगातार मार पड़ने पर भी उसने कुछ नहीं बताया तो लोग खामखाह ्क गये। कुछ लोग वहाँ से सरकने भी लगे। बकसी ने उसे पेड़ में बाँ्धने और बकसी ने पुबलस के सुपुद्म करने की सलाह दी। मैं भी कुछ़ ऐसी ही सलाह देकर बखसकना चाहता ्ा बक बशवना् बाबू का मँझला लड़का योगेनद्र दौड़ता हुआ आया और अपने बपताजी को अलग ले जाते हुए फुस-फुस कुछ बातें कीं।

    कुछ देर बाद बशवना् बाबू जब वापस आये उनके चेहरे पर हवाइयाँ सी उठ रही ्ीं। एक दो षिण इ्धर-उ्धर त्ा मेरी ओर बेचारे की तरह देखने के बाद वह बोले, ‘‘अचछा इस बार छोड़ देते हैं। साला काफी पा चुका है, आइनदा ऐसा करते चेतेगा।’’

    लोग बशवना् बाबू को बुरा-भला कहकर रासता नापने लगे। मैंने उनकी ओर मुसकुराकर देखा तो मेरे पास आकर झेंपते हुए बोले, ‘‘इस बार तो साड़ी घर में ही बमल गयी है, पर कोई बात नहीं। चमार-बसयार िाँट-िपट पाते ही रहते हैं पड़ी है, चोर-चाईं तो रात-रात भर मार खाते हैं। अरे, इस पर कया और कुछ भी नहीं बताते।’’ बफर बायीं आँख को खूबी से दबाते हुए दाँत गोलकर हँस पड़े, ‘‘चबलए साहब, नीच और नींबू को दबाने से रस बनकलता है।’’

  • बजनदगी और जोंक

    21

    कभी-कभी मुझे आश्चय्म होता है बक उस बदन की बपटाई के बाद भी खँिहर का वह बभखमंगा मुहल्े में बटके रहने की बहममत कैसे कर सका? हो सकता है, उसने सोचा हो बक बनददोष छूट जाने के बाद मुहल्े के लोगों का बवविास और सहानुभूबत उसको प्राप्त हो जायेगी और दूसरी जगह उसी अबनश्श्चतता का सामना करना पड़ेगा।

    चाहे जो हो, उसके प्रबत मेरी बदलचसपी अब और बढ़ गयी ्ी। मैं उसको खँिहर में बैठकर कुछ खाते या चुपचाप सोते या मुहल्े में िगमग सरकते हुए देखता। लोग अब उसको कुछ-न-कुछ दे देते! बचा हुआ बासी या जूठा खाना पहले कुर्ों या गाय-भैंसों को दे बदया जाता, परनतु अब औरतें बच्ों को दौड़ा देतीं बक जाकर बभखमंगे को दे आयें। कुछ लोगों ने तो उसको कोई पहुँचा हुआ सा्धु-महातमा तक कह िाला।

    और ्धीरे-्धीरे खँिहर का पररतयाग कर बदया और आम सहानुभूबत एवं बवविास का आश्चय्मजनक लाभ उठाते हुए, जब वह बकसी-न-बकसी के ओसारे या दालान में जमीन

    पर सोने-बैठने लगा तो लोग उससे हलके-फुलके काम भी लेने लगे। दया-मया के मामले

    में बशवना् बाबू से पार पाना टेढ़ी खीर है, बकनतु बभखमंगा उनके दरवाजे पर जाता ही न ्ा।

    लेबकन एक बदन उनहोंने बकसी शुभ मुहूत्म में उसे सड़क से गुजरते समय संकेत से अपने पास बुलाया और बतरछी नजर से देखते हुए, मुसकुराकर बोले, ‘‘देख बे, तूने चाहे जो कुछ भी बकया, हमसे तो यह सब नहीं देखा जाता। दर-दर भटकता रहता है। कुर्े-सुअर का

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    पाठ-पुनपापाठ

    जीवन जीता है। आज से इ्धर-उ्धर भटकना छोड़, आराम से यहीं रह और दोनों जून भरपेट खा।’’

    पता नहीं, यह बशवना् बाबू के स्ेह से समभव हुआ या िर से, पर बभखमंगा उनके यहाँ स्ायी रूप से रहने लगा। उनहीं के यहाँ उसका नामकरण भी हुआ। उनका नाम गोपाल भी ्ा, लेबकन बशवना् बाबू के दादा का नाम गोपाल बसंह ्ा, इसबलए घर की औरतों की जबान से वह नाम उतरता ही न ्ा। उनहोंने उसको ‘रजुआ’ कहना आरमभ बकया और ्धीरे-्धीरे यही नाम सारे मुहल्े में प्रबसधि हो गया।

    बकनतु रजुआ के भागय में बहुत बदनों तक बशवना् बाबू के यहाँ बटकना न बलखा ्ा। बात यह है बक मुहल्े के लोगों को यह कतई पसनद न ्ा बक केवल दोनों जून भोजन पर रजुआ बशवना् बाबू की सेवा करे। जब भगवान् ने उनके बीच एक नौकर भेज ही बदया ्ा तो उस पर उनका भी उतना ही अब्धकार ्ा और मौका देखकर उसको अपनी सेवा करने का अवसर देना आरमभ कर बदया। वह बशवना् बाबू के बकसी काम से जाता तो रासते में कोई-न-कोई उसको पैसे देकर बकसी काम की फरमाइश कर देता और यबद वह आनाकानी करता तो समबश्न्धत वयश्ति बबगड़कर ‘‘साला, तू बशवना् का गुलाम है? वह कया कर सकते हैं? मेरे यहाँ बैठकर खाया कर, वह कया बखलायेंगे, बासी भात ही तो देते होंगे।’’

    रजुआ बशवना् बाबू से अब भी िरता ्ा, इसीबलए उनसे बछपाकर ही वह अनय लोगों का काम करता। बकनतु उसको पीटने का और वयश्तियों को भी उतना ही अब्धकार ्ा। एक बार जमुनालाल के लड़के जंगी ने रजुआ से तीन-चार आने की लकड़ी लाने के बलए कहा और रजुआ फौरन आने का वायदा करके चला गया। पर वह शीघ्र न आ सका, कयोंबक बशवना् बाबू के घर की औरतों ने उसे

  • बजनदगी और जोंक

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    इस या उस काम में बाँ्ध रखा। बाद में वह जब जमुनालाल के यहाँ पहुँचा तो जंगी ने पहला काम यह बकया बक दो ्पपड़ उसके गाल पर जड़ बदये, बफर गरजकर बोला, ‘‘सुअर, ्धोखा देता है? कह देता नहीं आऊँगा। अब आज मैं तुमसे बदन भर काम कराऊँगा, देखें कौन साला रोकता है। आबखर हम भी मुहल्े में रहते हैं बक नहीं।’’

    और सचमुच जंगी ने उससे बदन-भर काम बलया। बशवना् बाबू को सब पता लग गया, लेबकन उनकी उदार वयावहाररक बुबधि की प्रशंसा बकये बबना नहीं रहा जाता, कयोंबक उनहोंने चूँ तक नहीं की।

    ऐसी ही कई घटनाएँ हुईं, पर रजुआ पर बकसी का स्ायी अब्धकार बनश्श्चत न हो सका। उसकी सेवाओं की उपयोग-समबन्धी खींचातानी से उसका समाजीकरण हो गया। मुहल्े का कोई भी वयश्ति दो-चार रुपये देकर स्ायी रूप से नौकर रखने को तैयार न हुआ, कयोंबक वह इतना शश्तिशाली कतई न ्ा बक चौबीस घंटे नौकर की महान् बजममेदाररयाँ समहाल सके। वह तेजी के सा् पचीस-पचास गगरे पानी न भर सकता ्ा, बाजार से दौड़कर भारी सामान-सौदा न ला सकता ्ा। अतएव लोग उससे छोटा-मोटा काम ले लेते और इचछानुसार उसे कुछ-न-कुछ दे देते। अब न वह बशवना् बाबू के यहाँ बटकता और न जमुनालाल के यहाँ, कयोंबक उसको कोई बटकने ही न देता। इसको रजुआ ने भी समझ बलया और मुहल्े के लोगों ने भी। वह अब बकसी वयश्ति-बवशेष का नहीं, बश्लक सारे मुहल्े का नौकर हो गया।

    रजुआ के बलए छोटे-मोटे कामों की कमी न ्ी। बकसी के यहाँ खा-पीकर वह बाहर की चौकी या जमीन पर सो रहता और सवेरे उठता तो मुहल्े के लोग उसका मुँह जोहते। नौकर-चाकर बकसी के यहाँ बहुत बदनों तक बटकते नहीं ्े और भाग-भागकर ररकशे चलाने

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    पाठ-पुनपापाठ

    लगते या बकसी बमल या कारखाने में काम करने लगते। दो-चार वयश्तियों के यहाँ ही नौकर ्े, अनय घरों में कहार पानी भर देता, तो लेबकन वह गगरों के बहसाब से पानी देता और यबद एक गगरा भी अब्धक देता तो उसका मेहनताना पाई-पाई वसूल कर लेता। इस श्स्बत में रजुआ का आगमन जैसे भगवान् का वरदान ्ा।

    लोग उससे छोटा-बड़ा काम लेकर इचछानुसार उसकी मजदूरी चुका देते। यबद उसने कोई छोटा काम बकया तो उसे बासी रोटी या भात या भुना हुआ चना या सर्ू दे बदया जाता और वह एक कोने में बैठकर चापुड़-चापुड़ खा-फाँक लेता। अगर कोई बड़ा काम कर देता तो एक जून का खाना बमल जाता, पर उसमें अबनवाय्म रूप से एका्ध चीज बासी रहती और कभी-कभी तरकारी या दाल नदारत होती। कभी भात-नमक बमल जाता, बजसे वह पानी के सा् खा जाता। कभी-कभी रोटी, अचार और कभी-कभी तो बसफ्फ तरकारी ही खाने या दाल पीने को बमलती। कभी खाना न होने पर दो-चार पैसे बमल जाते या मोटा पुराना कच्ा चावल या दाल या चार-छः आलू। कभी उ्धार भी चलता। वह काम कर देता और उसके एवज में बफर बकसी बदन कुछ-न-कुछ पा जाता।

    इसी बीच वह मेरे घर भी आने लगा ्ा, कयोंबक मेरी शीमती जी बुबधि के मामले में बकसी से पीछे न ्ीं। रजुआ आता और काम करके चला जाता। एक-दो बार मुझसे भी मुठभेड़ हुई, पर मैं कुछ बोला नहीं।

    कोई छुट्टी का बदन ्ा। मैं बाहर बैठा एक बकताब पढ़ रहा ्ा बक इतने में रजुआ भीतर आया और कोने में बैठकर कुछ खाने लगा। मैंने घूमकर एक बनगाह उस पर िाली। उसके हा् में रोटी और ्ोड़ा-सा अचार ्ा और वह सुअर की भाँबत चापुड़-चापुड़ खा रहा

  • बजनदगी और जोंक

    25

    ्ा। बीच-बीच में यह मुसकुरा पड़ता, जैसे कोई बड़ी मंबजल सर करके बैठा हो।

    मैं उसकी ओर देखता रहा और मुझे वह बदन याद आ गया, जब चोरी के अबभयोग में उसकी बपटाई हुई ्ी। जब वह खाकर उठा तो मैंने पूछा, ‘‘कयों रे रजुआ, तेरा घर कहाँ है?’’

    वह सकपकाकर खड़ा हो गया, बफर मुँह टेढ़ा करके बोला, ‘‘सरकार, रामपुर का रहने वाला हूँ!’’ और उसने दाँत बनपोर बदये।

    ‘‘गाँव छोड़कर यहाँ कयों चला आया?’’ मैंने पुनः प्रशन बकया।

    षिणभर वह असमंजस में मुझे खड़ा ताकता रहा बफर बोला, ‘‘पहले रसड़ा में ्ा, माबलक!’’

    जैसे रामपुर से सी्धे बबलया आना कोई अपरा्ध हो। उसके बलए संभवतः ‘‘कयों’’ का कोई महत्व नहीं ्ा, जैसे गाँव छोड़ने का जो भी कारण हो, वह अतयनत सामानय एवं सवाभाबवक ्ा और वह न उसके बताने की चीज ्ी और न बकसी के समझने की।

    ‘‘रामपुर में कोई है तेरा?’’ मैंने एक-दो षिण उसको गौर से देखने के बाद दूसरा सवाल बकया।

    ‘‘नहीं माबलक, बाप और दो बहनें ्ीं, ताऊन में मर गयीं।’’ वह बफर दाँत बनपोर हँस पड़ा।

    उसके बाद मैंने कोई प्रशन नहीं बकया। बहममत नहीं हुई। वह फौरन वहाँ से सरक गया और मेरा हृदय कुछ अजीब-सी घ्रणा से भर उठा। उसकी खोपड़ी बकसी हलवाई की दुकान पर बदन में लटकते

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    पाठ-पुनपापाठ

    काले गैस लैमप की भाँबत बहल-िुल रही ्ी। हा्-पैर पतले पेट अब भी हँबड़यों की तरह फूला हुआ और सारा शरीर बनहायत गंदा एवं घ्रबणत...मेरी इचछा हुई; जाकर घर में बीवी से कह दूँ बक इससे कोई काम न बलया करो, यह रोगी...बफर टाल गया, कयोंबक इससे मेरा ही घाटा ्ा। मैं जानता ्ा बक नौकरों की बकतनी बकल्त ्ी और रजुआ के रहने से इतना आराम हो गया ्ा बक मैं हर पहली या दूसरी तारीख को राशन, मसाला आबद खरीदकर महीने-भर के बलए बनश्श्चनत हो जाता।

    × × ×

    ‘‘इनबकलाब बजनदाबाद! महातमा गां्धी की जै!’’

    कुछ महीने के बाद एक बदन जब मैं अपने कमरे में बैठा ्ा बक मुझे रजुआ के नारे लगाने बफर ‘ही-ही’ हँसने की आवाज सुनाई दी।

    मैं चौंका और मैंने सुना, आँगन में पहुँचकर वह जोर से कह रहा है ‘‘मबलकाइन, ्ोड़ा नमक होगा, रामबली बमबसर के यहाँ से रोबटयाँ बमल गयी हैं, दाल बनाऊँगा।’’

    मेरी पतनी चूलहे-चौके में लगी ्ी। उसने कुछ देर बाद उसको नमक देते हुए पूछा, ‘‘रजुआ, सच बताना, तुझे नहाये हुए बकतने बदन हो गये?’’

    ‘‘बखचड़ी की बखचड़ी नहाता हूँ न, मबलकाइन जी!’’ वह नमक लेकर बोला और हँसते हुए भाग गया।

    मैं कमरे में बैठा यह सब सुन रहा ्ा समभवतः उसको मेरी उपश्स्बत का ज्ान न ्ा, अनय्ा वह ऐसी बात न करता। लेबकन यह बात

  • बजनदगी और जोंक

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    साफ ्ी बक अब वह मुहल्े में जम गया है। उसको खाने-पीने की बचनता नहीं है। इतना ही नहीं, अब वह मुहल्े-भर से शह पा रहा है। लोग अब उससे हँसी-मजाक भी करने लगे हैं और उसे मारे-पीटे जाने का बकंबचत् मारि भी भय नहीं। अवशय ही यह बात ्ी और वह श्स्बत में पररवत्मन से लाभ उठाते हुए ढीठ हो गया ्ा। इसबलए उसने अपने आगमन की सूचना देने के बलए राजनीबतक नारे लगाये ्े, जैसे वह कहना चाहता हो बक मैं हँसी-मजाक का बवषय हूँ, लोग मुझसे मजाक करें, बजससे मेरे हृदय में बहममत ढाढ़स बँ्धे।

    मुझे बड़ा ही आश्चय्म हुआ। लेबकन कुछ ही बदन बाद मैंने उसकी एक और हरकत देखी, बजससे मेरे अनुमान की पुश्ष्ट होती ्ी।

    सायंकाल दफतर से आ रहा ्ा बक जीउतराम के गोले के पास मैंने रजुआ की आवाज सुनी। पबतया की सरिी बत्मन माँज रही ्ी और उसके पास खड़ा रजुआ टेढ़ा मुँह करके बोल रहा ्ा, ‘‘सलाम हो भौजी, समाचार ठीक है न।’’ अनत में बेमतलब ‘ही-ही’ हँसने लगा।

    पबतया की बहू ने ्ोड़ा मुसकी काटते हुए सुनाया, ‘‘दूर हो पापी, समाचार पूछने का तेरा ही मुँह है? चला जा, नहीं तो जूठ की काली हाँिी वह मारूँगी बक सारी लफंगई...’’ यहाँ उसने एक गनदे मुहावरे का इसतेमाल बकया।

    लेबकन मालूम पड़ता है बक रजुआ इतने ही से खुश हो गया, ‘‘कयोंबक वह मुँह फैलाकर हँस पड़ा और बफर तुरनत उसने दो-तीन बार बसर को ऊपर झटका देते हुए ऐसी बकलकाररयाँ लगायीं जैसे घास चरता हुआ ग्धा अचानक बसर उठाकर ढीचूँ-ढीचूँ कर उठता है।

    बफर तो यह उसकी आदत हो गयी। सारे मुहल्े को छोटी जाबतयों

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    पाठ-पुनपापाठ

    की औरतों से उसने भौजाई का समबन्ध जोड़ बलया ्ा। उनको देखकर वह कुछ हलकी-फुलकी छेड़खानी कर देता, बजसके उर्र में उसे आशानुकूल गाबलयाँ-बझड़बकयाँ सुनने को बमल जातीं, और तब वह ग्धे की तरह ढीचूँ-ढीचूँ कर उठता।

    कुएँ पर पहुँचकर वह बकसी औरत को कनखी से बनहारता और अनत में पूछ बैठता, ‘‘यह कौन है? अचछा, बड़की भौजी हैं। सलाम, भौजी। सीताराम सीताराम, राम-नाम जपना, पराया माल अपना।’’ इतना कहकर वह दुष्टतापूव्मक हँस पड़ता।

    वह बकसी काम से जा रहा होता, पर रासते में बकसी औरत को बत्मन माँजते या अपने दरवाजे पर बैठे हुए या कोई काम करते हुए देख लेता तो एक दो बमनट के बलए वहाँ पहुँच जाता, बेहया की तरह हँसकर कुशल-षिेम पूछता और अनत में बझड़की-गाली सुनकर बकलकाररयाँ मारता हुआ वापस चला जाता। ्धीरे-्धीरे वह इतना सहक गया बक नीची जाबत की बकसी जवान सरिी को देखकर, चाहे वह जान-पहचान की हो या न हो, दूर से ही बहचकी दे-देकर बकलकने लगा।

    मेरी तरह मुहल्े के अनय लोगों ने भी उसके इस पररवत्मन पर गौर बकया ्ा, और समभवतः इसी कारण लोग उसे ‘रजुआ साला’ कहने लगे। अब कोई बात कहनी होती, बकतनी गमभीर काम के बलए पुकारना होता लोग उसे ‘रजुआ साला’ कहकर बुलाते और अपने काम की फरमाइश करके हँस पड़ते। उनकी देखा-देखी लड़के भी ऐसा ही करने लगे, जैसे ‘साला’ कहे बबना रजुआ का कोई अश्सततव ही न हो। और इससे रजुआ भी बड़ा प्रसन् ्ा, जैसे इससे उसके जीवन में अबनश्श्चतता कम हो रही हो और उस पर अचानक कोई संकट आने की संभावना संकुबचत होती जा रही हो।

  • बजनदगी और जोंक

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    और अब लोग उसे बचढ़ाने भी लगे।

    ‘‘कयों वे रजुआ साला, शादी करेगा?’’ लोग उसे छेड़ते। रजुआ उनकी बातों पर ‘खी-खी’ हँस पड़ता और अपनी आदत के अनुसार बसर को ऊपर की ओर दो-तीन बार झटके देता हुआ त्ा मुँह से ऐसी बहचकी की आवाज बनकालता हुआ, जो अब्धक कड़वी चीज खाने पर बनकलती है, चलता बनता। वह समझ गया ्ा बक लोग उसे देखकर खुश होते हैं और अब वह सड़क पर चलते, गली से गुजरते, घर में घुसते काम की फरमाइश लेकर घर से बनकलते और कुएँ पर पानी भरते समय जोरों से बचल्ाकर उस समय के राजनीबतक नारे लगाता या कबीर की गलत-सलत बानी बोलता या बकसी की सुनी हुई कबवता या दोहे की एक-दो पंश्तियाँ गाता। ऐसा करते समय वह बकसी ओर देखता नहीं, बश्लक टेढ़ा मुँह करके जमीन की ओर देखता हुआ मुँह फैला कर हँसे जाता, जैसे वह बदमाग की आँखों से देख रहा हो बक उसकी हरकतों को बहुत-से लोग देख-सुनकर प्रसन् हो रहे हैं।

    × × ×

    सायंकाल दफतर से आने और नाशता-पानी करने के बाद मैं प्रायः हवाखोरी करने बनकल जाता हूँ। रेलवे लाइन पकड़कर बाँसिीह की ओर जाना मुझे सबसे अचछा लगता है। सरयू पार करके गंगाजी के बकनारे घूमना-टहलना कम आननदमयी नहीं है, लेबकन उसमें सबसे बड़ी कबठनाई यह है बक बरसात में दोनों नबदयाँ बढ़कर समुद्र का रूप ्धर लेती हैं और उसमें इतने दलदल बमलते हैं बक आने की बहममत नहीं होती। लेबकन कभी-कभी ऐसा भी होता है बक मुझे देर हो जाती है या अब्धक चलने-बफरने की कोई इचछा नहीं होती और सटेशन के पलेटफाम्म का ही चककर लगाकर वापस लौट आता हूँ।

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    पाठ-पुनपापाठ

    पनद्रह-बीस बदन बाद एक बदन सायंकाल सटेशन के पलेटफाम्म पर टहलने गया। सटेशन के फाटक के पलेटफाम्म पर आने के बाद मैं बायीं तरफ जी. आर. पी. की चौकी की ओर बढ़ चला। बकनतु कुछ कदम ही चला ्ा बक मेरा ्धयान रजुआ की ओर गया, जो मुझसे कुछ दूर आगे ्ा। वह भी उ्धर ही जा रहा ्ा। मुझे कुछ आश्चय्म नहीं हुआ, कयोंबक शहर से काफी लोग बदशा-मैदान केे बलए कटहरनाला जाते ्े, जो सटेशन के पास ही बहता है। मैं ्धीरे-्धीरे चलने लगा।

    पर रजुआ कटहरनाला नहीं गया, बश्लक जी.आर.पी. की चौकी के पास कुछ बठठककर खड़ा हो गया। अब मुझे कुछ आश्चय्म हुआ। कया वह बकसी मामले में पुबलसवालों के चककर में आ गया है! मेरी समझ में न आया और उतसुकतावश मैं तेज चलने लगा। आगे बढ़ने पर श्स्बत कुछ-कुछ समझ में आने लगी।

    चौकी के सामने एक बेंच पर बैठे पुबलस के दो-तीन बसपाही कोई हँसी-मजाक कर रहे ्े और उनके ्ोड़ी दूर पर नीचे एक नंगी औरत बैठी हुई ्ी। वह औरत और कोई नहीं, एक पगली ्ी, जो कई बदनों से शहर का चककर काट रही ्ी। उसको मैंने कई बार चौक में त्ा एक बार सरयू के बकनारे देखा ्ा। उसकी उम् लगभग तीस वष्म होगी और वह बदसूरत, काली त्ा बनहायत गनदी ्ी। वह जहाँ जाती, कुछ लफंगे ‘हा-हू’ करते उसके पीछे हो जाते। वे उसको बचढ़ाते, उस पर ईंट फेंकते और जब वह तंग आकर चीखती-बचल्ाती भागती तो लड़के उसके पीछे दौड़ते।

    रजुआ उस पगली के पास ही खड़ा ्ा। वह कभी शंबकत आँखों से पुबलस वालों को देखता, बफर मुँह फैलाकर हँस पड़ता और मुटर-मुटर पगली को ताकने लगता। परनतु पुबलसवाले समभवतः उसकी

  • बजनदगी और जोंक

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    ओर ्धयान न दे रहे ्े।

    मुझे बड़ी शम्म मालूम हुई, बकनतु मैं इतना समीप पहुँच गया ्ा बक अचानक घूमकर लौटना न हो सका। इसके अलावा असली बात जानने की उतसुकता भी ्ी। मैं शूनय की ओर देखता हुआ आगे बढ़ा, लेबकन लाख कोबशश करने पर भी उ्धर दृश्ष्ट चली ही जाती।

    रजुआ शायद पुबलसवालों की लापरवाही का फायदा उठाते हुए आगे बढ़ गया ्ा और बसर नीचे झुकाकर अतयनत ही प्रसन् होकर हँसते हुए पुचकारती आवाज में पूछ रहा ्ा, ‘‘कया है पागलराम, भात खाओगी?’’

    इतने में पुबलसवालों में से एक ने कड़ककर प्रशन बकया, ‘‘कौन है बे साला चलता बन, नहीं तो मारते-मारते भूसा बना दूँगा!’’

    रजुआ वहाँ से ्ोड़ा हट गया और हँसते हुए बोला, ‘‘माबलक, मैं रजुआ हूँ।’’

    ‘‘भाग जा साले, बगधि की तरह न मालूम कहाँ से आ पहुँचा!’’ समभवतः दूसरे बसपाही ने कहा और बफर वे सभी ठहाका मारकर हँस पड़े।

    मैं अब काफी आगे बनकल गया ्ा और इससे अब्धक मुझे कुछ सुनाई न पड़ा। मैं जलदी-जलदी पलेटफाम्म से बाहर बनकल गया।

    बकनतु मामला यहीं समाप्त नहीं हो गया। घर आकर मैंने आँगन में चारपाई िाल, बड़ी मुश्शकल से आ्धा घंटा आराम बकया होगा बक मेरी पतनी भागती हुई और कुछ मुसकुराती हुई तेजी से बोलीं, ‘‘अरे, जरा जलदी से बाहर आइये तो, एक तमाशा बदखाती हूँ हमारी कसम,

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    पाठ-पुनपापाठ

    जरा जलदी उबठये।’’

    मैं अबनचछापूव्मक उठा और बाहर आकर जो दृशय देखा उससे मेरे हृदय में एक ही सा् आश्चय्म एवं घ्रणा के ऐसे भाव उठे बजनहें मैं वयति नहीं कर सकता। रजुआ सटेशन की नंगी पगली के आगे-आगे आ रहा ्ा। पगली कभी इ्धर-उ्धर देखने लगती या बड़ी हो जाती तो रजुआ पीछे होकर पगली की अँगुली पकड़कर ्ोड़ा आगे ले जाता और बफर उसे छोड़कर ्ोड़ा आगे चलने लगता त्ा पीछे घूम-घूमकर पगली से कुछ �